तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध युद्ध के कारण

1. टीपू द्वारा फ्रांस-तुर्की से सहायता का प्रयत्न - आंग्ल-मैसूर संबंधों में परिस्थितियों से बाध्य होकर टीपू ने 1784 ई. में अंग्रेजों से मंगलौर की संधि कर ली थी परन्तु हृदय से वह अंग्रेजों का कट्टर शत्रु था। वह उनकी शक्ति को नष्ट करने के लिए दृढ़-संकल्पित था। इसीलिए उसने अंग्रेजों के विरूद्ध फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त करने के लिए जुलाई 1787 ई. में अपना एक राजदूत मण्डल फ्रांस और दूसरा राजदूत मण्डल टर्की के सुलतान के पास कुस्तुनतुनिया भेजा। दोनों राजदूत मण्डलों का भव्य स्वागत तो अवश्य हुआ, किन्तु अंग्रेजों के विरुद्ध कोरे आश्वासनों के अतिरिक्त टीपू कोई ठोस सैनिक सहायता प्राप्त नहीें हो सकी। किन्तु टीपू के इस कदम से अंग्रेज अवश्य रुष्ट हो गये।

2. आंग्ल-निजाम समझौता -  प्रथम मराठा युद्ध के बाद वारेन हेस्ंिटग्स ने हैदराबाद के निजाम को गुन्टूर का प्रदेश दे दिया था। गुन्टूर का राजनीतिक और आर्थिक महत्व था तथा गुन्टूर जिला अंग्रेजों के उत्तरी सरकार के प्रदेश को मद्रास क्षेत्र से मिलाता था। इसलिए कार्नवालिस पुनः गुन्टूर को प्राप्त करना चाहता था जबकि निजाम गुन्टूर को त्यागना नहीं चाहता था क्योंकि गुन्टूर जिले द्वारा निजाम का समुद्री तट से सम्पर्क था। किन्तु निजाम अंग्रेजों को गुन्टूर इस शर्त पर देने को सहमत हो गया कि उसे गुन्टूर के बदले मैसूर के वे क्षेत्र पुनः प्राप्त करवाये जायें जिसे हैदरअली ने उससे छीन लिए थे। 

कार्नवालिस ने 7 जुलाई 1789 ई. को एक पत्र लिखकर ब्रिटिश सेना द्वारा उसे सहायता देने का वचन दिया। साथ ही कार्नवालिस ने यह शर्त रखी कि निजाम ब्रिटिश सेना का उपयोग अंग्रेजों के मित्रों के विरुद्ध नहीं करेगा। इस पत्र के साथ अंग्रेजों के मित्रों की जो सूची भेजी गयी उसमें टीपू का नाम नहीं था। 

इस प्रकार कार्नवालिस के पत्र से टीपू को यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज उसके शत्रु हैं और वे कभी भी उसके विरुद्ध युद्ध कर सकते हैं।

3. टीपू का ट्रावनकोर पर आक्रमण - ट्रावनकोर राज्य की उत्तरी सीमा की सुरक्षा के लिए दो दुर्ग कांगनूर और अइकोटा डचों के अधिकार में थे। टीपू के बढ़ते हुए प्रभाव को तथा उसके आक्रमण को रोकने के लिए ट्रावनकोर नरेश ने ये दो दुर्ग डचों से खरीद लिए थे। टीपू स्वयं इनको खरीदना चाहता था। टीपू इन दुर्गाें को अपने प्रभाव क्षेत्र की सीमा में मानता था। इसीलिए 14 दिसम्बर 1789 ईको उसने ट्रावनकोर राज्य पर आक्रमण कर दिया। ट्रावनकोर नरेश अंग्रेजों का मित्र था। फलतः टीपू के इस आक्रमण से अंग्रेज गवर्नर जनरल कार्नवालिस रूष्ट हो गया और उसने टीपू के इस अकारण आक्रमण को शत्रुता का कार्य माना।

4. कार्नवालिस द्वारा मराठा और निजाम से संधि - मैसूर से टीपू को अन्य मित्रों से पृथक करने के उद्देश्य से कार्नवालिस ने 1 जून 1790 ई. को मराठों के साथ और 4 जुलाई 1790 ई. को निजाम के साथ संधि कर ली जिसके अनुसार दोनों ने टीपू के विरूद्ध अंग्रेजों को सैनिक सहायता देने का वचन दिया। इसके बदले में दोनों को युद्ध में जीते हुए टीपू के राज्य के भाग दिये जायेंगे। इस प्रकार अंग्रेज, मराठे और निजाम का गुट बनाकर कार्नवालिस ने टीपू के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध की घटनाएँ

1790 ई. में युद्ध के प्रारंभ में अंग्रेज सेनानायक जनरल मिडीज के नेतृत्व में अंग्रजों ने मैसूर राज्य पर आक्रमण किया, पर उसमें उनको विशेष सफलता नहीं मिली फलतः दिसम्बर 1790 ई. में अंग्रेज सेना का नेतृत्व स्वयं कार्नवालिस ने सम्भाला और उसने वैलोर पर और मार्च 1791 ई. में बैंगलौर पर अधिकार कर लिया और श्रीरंगपट्टम की ओर बढ़ा। वर्षा के कारण युद्ध धीमा पड़ गया। तत्पश्चात नवम्बर 1791 ई. में टीपू ने कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया।

कार्नवालिस ने भी निजाम और मराठों की सेनाओं के साथ आगे बढ़कर टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टम के मार्ग के दुर्गाे पर अधिकार कर लिया और शीघ्र ही श्रीरंगपट्टम के दुर्ग प्राचीर तक पहुँच गया। श्रीरंगपट्टम नगर की बाहरी बस्तियों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। परिस्थितियों से विवश होकर टीपू ने कार्नवालिस से संधि की बातचीत प्रारंभ की और अंत में टीपू और अंग्रेजों में श्रीरंगपट्टम की संधि हो गयी।

श्रीरंगपट्ट्टम की संंधि (मार्च 1792 ई.)

इस संधि की शर्ते निम्नलिखित थीं - 

(1) टीपू को अपना आधा राज्य और 3 करोड़ रूपये युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में अंग्रेजों को देना पड़े। टीपू से जो आधा राज्य प्राप्त हुआ वह निजाम, मराठों और अंगे्रजों में विभाजित कर लिया गया। उसका एक बड़ा भाग निजाम को प्राप्त हुआ। यह मैसूर राज्य के उत्तर-पूर्व में कड़प्पा से करनूल का क्षेत्र था। मैसूर राज्य के उत्तर पश्चिम का प्रदेश धारवाड़ का क्षेत्र मराठों को प्राप्त हुआ। इससे मराठा साम्राज्य की सीमाएँ दक्षिण में तुंगभद्रा नदी तक पहुँच गयीं।

किन्तु टीपू से छीने हुए आधे राज्य का सबसे बड़ा भाग अंग्रेजो को प्राप्त हुआ। इसमें मालाबार, दक्षिण में डिंडीगुल दुर्ग और उसके आसपास के जिले और पूर्व में बारामहल और आसपास के सभी पहाड़ी मार्ग सम्मिलित थे। इस विभाजन से मैसूर राज्य चारों ओर से मराठों, निजाम और अंग्रेजों से घिर गया।

(2) युद्ध की क्षतिपूर्ति का पूरा धन तुरन्त न देने के कारण पर टीपू को अपने दो पुत्रों को कार्नवालिस के पास बंधक के रूप में रखना पड़ा।

महत्व - श्रीरंगपट्टम की संधि से मैसूर राज्य अत्यधिक क्षतिग्रस्त हो गया। सीमा के अनेक जिले शत्रुओं के हाथों में चले जाने से मैसूर की सुरक्षा व्यवस्था समाप्त हो गयी। तीन करोड़ क्षति के रूप में देने से मैसूर की अर्थ-व्यवस्था अस्त व्यस्त हो गयी। उसकी आर्थिक सम्पन्नता और समृद्धि नष्ट हो गयी। ऐसी स्थिति में टीपू अब भविष्य में विशाल सेना रखकर शत्रु से दीर्घकालीन युद्ध करने में असमर्थ हो गया। अंग्रेजों को परास्त करना उसके लिए असंभव हो गया।

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