वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कौन है ?

वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक दर्शन दर्शन के प्रणेता कणाद मुनि माने जाते है। कणाद शब्द का अर्थ है कणों को खाने वाला। ऐसा सम्भव है कि परमाणुओं को मानने के कारण उनका यह नाम पड़ा है। वैशेषिक नाम विशेष नाम के एक पदार्थ के मानने के कारण पड़ा। इस दर्शन की व्याख्या धर्म के प्रयोजन से हुई। जिससे इस लोक में अभ्युदय तथा परलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो उसे धर्म कहते हैं। इस सम्बन्ध में पदार्थों की व्याख्या वैशेषिक दर्शन में की गई है।

(अ) पदार्थ - इस दर्शन में 6 पदार्थ माने गये हैं - (1) द्रव्य, (2) गुण, (3) कर्म, (4) सामान्य, (5) विशेष, (6) समवाय। इन समस्त पदार्थो को विशेष रूप में देखा गया है। इस दर्शन में आत्मा को भी अन्य द्रवों के साथ एक द्रव्य माना गया है।

(ब) गुण - इसमें 24 गुणों का उल्लेख किया गया है - स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिणाम, पृथकत्व, परतत्व, अप्ररत्व, बुद्धि, सुखेच्छा, दुखेच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, द्वेष, स्नेह, गुरत्व तथा वेग।

(स) चार प्रमाण - इस दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति, आर्ष ज्ञान आदि चार प्रमाण स्वीकार किये गये हैं। संशय, विपर्य तथा स्पप्न आदि से विपरीत ज्ञान की प्राप्ति होती है।

(द) परमाणुवाद का प्रतिपादन - वैशेषिक दर्शन ने परमाणुओं को स्वीकार किया है। सर्वप्रथम कणाद ने ही परमाणुवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन इस दर्शन में किया। यही आधुनिक विज्ञान का मूल सिद्धांत है। वैज्ञानिकों ने भी इस दर्शन के विज्ञान की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। परमाणु जगत के उत्पादन कारण माने जाते है। ये परमाणु एकत्रित तथा पृथक होते रहते है। यह क्रम अनन्त काल से चला आ रहा है। अग्नि तथा पृथ्वी के परमाणुओं द्वारा ईश्वर के ध्यान मात्र से इस ब्रह्म की सृष्टि हो जाती है।।

इसमें ईश्वर जगत व ब्रह्मा को उत्पन्न करता है। ब्रह्मा परम ज्ञान व परम शक्ति द्वारा मानस पुत्र, प्रजापति, देवता, पितर, चार वर्ण व अन्य जीवों को उत्पन्न करता है। सृष्टि और प्रलय अनन्त काल तक होते रहते है। अहिंसा ही परम धर्म तथा हिंसा अधर्म है। संसार से घृणा करना ही हिंसा है। धर्म से हर प्रकार की उन्नति होती है। आत्मा का अदृश्य से सम्बंधित होकर शरीर धारण करना संसार है और इससे पृथक होना मोक्ष है।

(य) आत्मा- इस दर्शन के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप द्रव्य है। चैतन इन्द्रियों का प्रवर्तक  विषयों का उपभोक्ता तथा शरीर से परिछिन्न है। यही आत्मा है। चैतन्य शरीर के व्यापार ही आत्मा के परिचायक लिंग है। शरीर का अधिष्ठाता, मन को पे्ररित करने वाला, सभी इन्द्रियों का स्वामी और सुख-दुःख इच्छा देव, एवं प्रयत्न इन मनोभावों का सूचक केवल आत्मा है। इसके दो भेद है। (1) जीवात्मा- अनित्य तथा शरीर भेद से अनन्त है। (2) परमात्मा- नित्य तथा एक।

(र) ईश्वर- वैशेषिक दर्शन में प्रारम्भ में ईश्वर का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं होता। विश्व की रचना में ईश्वर का कोई स्थान भी नहीं माना गया, परन्तु बाद के युग में ईश्वर को सृष्टि की रचना का निर्माणकर्ता स्वीकार कर लिया गया। उसको सृष्टि की प्रक्रिया के संयोजक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इस दर्शन के अनुसार परमाणुओं तथा आत्मा में स्वतः रचना करने की शक्ति नहीं है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु के परमाणु नियत है। ईश्वर उनका निर्माता नहीं है, अपितु उनको संयुक्त करने वाला है। ईश्वर सृष्टि का प्रारम्भ करता है। उसे उत्पन्न नहीं करता। आत्मा नामक द्रव्य का दूसरा रूप ईश्वर है। वह ईश्वर का निमित कारण है। प्रलय काल के उपरान्त उसकी इच्छा से परमाणुओं से हलचल होती है और उसके संयुक्त होने से पृथ्वी आदि चार महाभूतों की रचना होती है। विश्व में एक प्रकार की व्यवस्था है, न्याय, और ईश्वर उनका संचालक है, किन्तु वह अपनी स्वेच्छा से कुछ नहीं करता।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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