द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण

1. निजाम की अंग्रेजों से रूष्टता

कंपनी की मद्रास सरकार ने 1768 ई. में कर्नाटक के नबाव को तंजौर पर आक्रमण कर उसे प्राप्त करने में सहायता प्रदान की थी और बसालतजंग से जो निजाम का संबंधी था, गुन्टूर जिला छीन लिया था। नवम्बर 1778 ई. में बसालतजंग और अंग्रेजों के बीच संधि हो गयी जिसके अनुसार गुन्टूर जिले की सुरक्षा का उत्तरदायित्व अंग्रेजों ने प्राप्त कर लिया। इन घटनाओं से निजाम अंग्रेजों से रूष्ट हो गया था। इसी बीच 1768 ई. में मद्रास सरकार ने निजाम से जो संधि की थी उसके अनुसार उत्तरी क्षेत्र के जिलों के बदले में सात लाख रूपया प्रतिवर्ष देना स्वीकार किया था। किन्तु मद्रास सरकार ने इसे देने से इन्कार कर दिया। इन कारणों से निजाम अंग्रेजों का शत्रु बन गया।

2. हैदरअली की शत्रुता

1771 ई. जब में मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया, तब 1769 ई. की मद्रास संधि के अनुसार अंग्रेजों ने हैदरअली की सहायता नहीं की। इस समय हैदरअली की सैनिक और राजनीतिक स्थिति भी इतनी दृढ़ नहीं थी कि वह अकेला ही मराठों का सामना कर सकता। फलतः उसने मराठों को 36 लाख रूपये दिये तथा 14 लाख रूपये वार्षिक कर देने का वचन दिया। उसने मराठों को अपने राज्य का कुछ भाग भी दिया। इस प्रकार हैदरअली ने मराठों को तो संतुष्ट कर दिया, किन्तु अंग्रेजों के वचन भंग और विश्वासघात के कारण वह उनका कट्टर शत्रु बन गया। इसके अतिरिक्त गुन्टूर क्षेत्र के निकट हैदरअली अपना प्रभाव क्षेत्र स्थापित कर रहा था और गुन्टूर क्षेत्र में वह अंग्रेजों का आधिपत्य बर्दाश्त नहीं कर सकता था। इसीलिये वह अंग्रेजों के विरूद्ध हो गया।

3. अंग्रेजों के विरुद्ध का भारतीय-गुट निर्माण

वारेन हेस्टिंग्स की हस्तक्षेप की नीति के कारण महाराष्ट्र में अंग्रेजों और मराठों में राघोबा के प्रश्न को लेकर युद्ध छिड़ गया था। अब अंग्रेजों के तीन शत्रु हो गये थे- मराठा, निजाम और हैदरअली। अतः तीनों ने अंग्रेजों के विरूद्ध एक गुट निर्मित कर लिया।

4. अंग्रेजों का माही-आक्रमण

अमेरिका में स्वतन्त्रता संग्राम के कारण अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में युद्ध आरम्भ हो गया था। अंग्रेजों ने 1779 ई. में भारत में मालाबार तट पर स्थित फ्रांसीसी बन्दरगाह माही पर अधिकार कर लिया। माही, हैदरअली के राज्य में था और फ्रांसीसी उसके मित्र थे अतः माही के अंग्रेज नियन्त्रण में चले जाने से हैदरअली को बाहर से सैनिक सामग्री प्राप्त करने में अत्यन्त कठिनाई हो गयी। इसीलिये हैदरअली अंग्रेजों से और अधिक चिढ़ गया। वह अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध करने के लिये पहले से ही अवसर की खेाज में था। माही पर अंग्रेजों का आधिपत्य युद्ध का तात्कालिक कारण बन गया।

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध की घटनाएं

मौलिक एवं तात्कालिक कारणों से हैदरअली ने अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। जुलाई 1780 ई. में हैदरअली ने अपनी विशाल सेना लेकर अंग्रेजों के मित्र राज्य कर्नाटक की राजधानी अरकाट पर आक्रमण कर उसे घेर लिया। कर्नाटक का नवाब भागकर अंग्रेजों की शरण में मद्रास पहुँचा।

मद्रास सरकार ने एक सेना कर्नल बेली नेतृत्व में और दूसरी सेना सर हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में हैदरअली के विरूद्ध भेजी। हैदरअली के पुत्र टीपू ने इन दोनों सेनाओं को परस्पर मिलने नहीं दिया। अतः 10 सितम्बर 1780 को हैदरअली ने अरन्दी के युद्ध में कर्नल बेली के नेतृत्व वाली अंग्रेज सेना को बुरी तरह परास्त किया। अंग्रेजों के सैकड़ो सैनिक युद्ध में मारे गये। जब मुनरो को जो, काँजीवरम में बेली की प्रतीक्षा कर रहा था, बेली की भीषण पराजय का समाचार मिला तो वह भयभीत होकर अपनी युद्ध सामग्री तालाब में फेंककर मद्रास भाग गया। अक्टूबर 1780 ई. में हैदरअली ने अरकाट भी जीत लिया। यह समय भारत में अंग्रेजों के लिए सर्वाधिक विकट एवं शर्मनाक था।

अंग्रेजों की पराजय के बाद वारेन हेस्टिंग्स ने कूटनीति, युद्ध और समझौते से निजाम, महादाजी सिंधिया और भोंसले को अंग्रेजों के पक्ष में कर लिया। उसने मराठों से 1782 ई. में सालबाई की संधि कर ली जिससे मराठे मैसूर युद्ध से पृथक हो गये। निजाम को भी गुन्टूर जिला देकर उसे हैदरअली से पृथक करने के लिये वारेन हेस्टिंग्स ने सहमत कर लिया। इस प्रकार निजाम और मराठों के अलग हो जाने से हैदरअली को स्वयं अंग्रेजों से युद्ध करना पड़ा।

वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल से एक विशाल सेना सर आयरकूट के नेतृत्व में दक्षिण में अंग्रेज शक्ति की रक्षा करने और हैदरअली से युद्ध करने के लिये भेजी। 1781 ई. में आयरकूट ने हैदरअली को पोर्टोनोवा के युद्ध में परास्त किया। इसके बाद आयरकूट और कर्नल पीयर्स की सम्मिलित सेनाओं ने पोलीलोर के युद्ध में हैदरअली का सामना किया, पर यह अनिर्णायक युद्ध रहा। इसके बाद सितम्बर 1781 ई. में आयरकूट ने हैदरअली को सोलिंगपुर के युद्ध में परास्त कर दिया और नीगापट्टम पर भी अधिकार कर लिया।

इस बीच 1782 ई. में एडमिरल सफरिन के नेतृत्व में एक फ्रांसीसी जहाजी बेड़ा 2000 फ्रांसीसी सैनिक लेकर हैदरअली की सहायता के लिए मद्रास तट पर आ गया। फ्रांसीसियों ने कुडालोर और त्रिनोपाली के बन्दरगाहों पर भी अधिकार कर लिया। इन घटनाओं ने अंग्रेज सेनापति आयरकूट को बड़ी संकटापन्न स्थिति में डाल दिया। किन्तु बर्षा ऋतु से युद्ध की गति मंद पड़ गयी।

हैदैदैदरअली की मृत्ृत्यु औरैरैर टीपू सुल्ुल्ुल्तान से युद्ध 7 दिसम्बर 1782 ई. को हैदरअली का देहान्त हो गया, पर उसके पुत्र और उत्तराधिकारी टीपू सुलतान ने अंग्रेजों से युद्ध जारी रखा। 1783 ई. में पश्चिम की ओर से आक्रमण करने के लिए बम्बई सरकार द्वारा ब्रिगेडियर मेथ्यूस के नेतृत्व में सेना भेजी गयी। अंग्रेज सेना को टीपू ने परास्त कर मेथ्यूस को बन्दी बना लिया। इसी बीच 1783 ई. में यूरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस में संधि हो जाने से भारत में फ्रांसीसी, अंग्रेजों के साथ चल रहे युद्ध से पृथक हो गये। इससे टीपू को बड़ा आघात लगा। इसी समय 1783 ई. में अंग्रेज सेना ने कर्नल फुलटर्न के नेतृत्व में कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया और टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टम की ओर बढ़ना प्रारम्भ कर दिया। किन्तु टीपू और कम्पनी की मद्रास सरकार दोनों ही युद्ध से ऊब गये थे। मद्रास सरकार के पास आर्थिक और सैनिक साधनों की अत्यधिक कमी आ गई थी। टीपू भी शान्ति का इच्छुक हो गया था। इसलिए दोनों में मंगलौर की संधि हो गई।

मंगलौर की संधि (7 मार्च 1784 ई.) 

इस संधि की शर्ते निम्नलिखित थीं - (1) दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटा दिये और टीपू ने अंग्रेज बन्दियों को मुक्त कर दिया। (2) अंग्रेजों ने यह आश्वासन भी दिया कि वे मैसूर के साथ मित्रता का व्यवहार रखेंगे और संकटापन्न स्थिति में मैसूर की सहायता करेंगे।

इस संधि के परिणामस्वरूप अंग्रेजों को कर्नाटक से हाथ धोना पड़ा, क्योंकि इस संधि में अंग्रेजों के मित्र रहे कर्नाटक के नवाब का कहीं भी उल्लेख नहीं था। उसे अब अंग्रेजों का मित्र स्वीकार नहीं किया गया था। यह संधि टीपू की कूटनीतिक सफलता थी क्योंकि इसके द्वारा वह अंग्रेजों के साथ पृथक संधि करने में और मराठों की सर्वोच्चता स्वीकार न करने में सफल हो गया था। उसने अपने राज्य में अंग्रेजों को कोई व्यापारिक अधिकार भी नहीं दिये थे। अंग्रेजों को इस संधि से गहरा आघात लगा। सच तो यह है कि मंगलौर की संधि कोई स्पष्ट और स्थायी संधि नहीं थी। यह तो दोनों पक्षों पर परिस्थितिवश लादी गयी संधि थी, क्योंकि दोनों ही युद्ध जारी रखने में असमर्थ थे। दोनों ही शान्ति के लिए और अपने-अपने साधनों को पुनः संगठित करने के लिए समय चाहते थे। यह तो निश्चित ही था कि अंग्रेज और मैसूर राज्य पुनः निकट भविष्य में ही अपनी-अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए परस्पर एक दूसरे के विरोध में युद्ध के रूप में करेंगें।

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