संस्कृत-व्याकरण की दृष्टि से
‘सभ्यता’ पद की रचना इस प्रकार हुई है - ‘‘सभायां साधुः’’ अर्थ में सभा पद से यत् प्रत्यय
लगाकर सभ्य पद निष्पन्न होता है। सभा+यत्= सभ्य। सभ्य पद का अर्थ है - वह व्यक्ति,
जो सभाओं एवं समाज में उचित आचरण करता है, सामाजिक व्यवहारों को जानता है और
इनका पालन करता है तथा अपने को समाज के अनुशासन में बांधता है। ‘‘सभ्यस्य भावः’’ अर्थ
में सभ्य शब्द से तल् प्रत्यय करके स्त्रीलिंग में सभ्यता पद की रचना होती है।
सभ्य+तल्+टाप्= सभ्यता। इस प्रकार सभ्यता पद का अर्थ है- व्यक्तियों का सामाजिक
नियमों और व्यवहारों को जानना, उनका पालन करना, समाज के योग्य समुचित आचरण
करना और समाज के अनुशासन में रहना।
वर्तमान समय में सभ्यता पद का प्रयोग इससे कहीं अधिक व्यापक अर्थ में प्रचलित है। उस व्यक्ति या समाज को सभ्य कहा जाता है, जो अपने जीवन और व्यवहार में शिष्ट नियमों और परम्पराओं का पालन करता हो तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सुधरे हुए उत्तम साधनों का प्रयोग करता हो। किसी देश की सभ्यता उन्नत है, इसका अभिप्राय है कि उस देश में रहने वाला जन-समुदाय आचार-विचार की दृष्टि से सभ्य है, शिष्ट है। वहाँ का सामाजिक अनुशासन व्यवस्थित है। वहाँ जीवन-निर्वाह के लिए शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक सुधरे और समुन्नत वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग होता है।
वर्तमान समय में सभ्यता पद का प्रयोग इससे कहीं अधिक व्यापक अर्थ में प्रचलित है। उस व्यक्ति या समाज को सभ्य कहा जाता है, जो अपने जीवन और व्यवहार में शिष्ट नियमों और परम्पराओं का पालन करता हो तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सुधरे हुए उत्तम साधनों का प्रयोग करता हो। किसी देश की सभ्यता उन्नत है, इसका अभिप्राय है कि उस देश में रहने वाला जन-समुदाय आचार-विचार की दृष्टि से सभ्य है, शिष्ट है। वहाँ का सामाजिक अनुशासन व्यवस्थित है। वहाँ जीवन-निर्वाह के लिए शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक सुधरे और समुन्नत वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग होता है।
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सभ्यता
सभ्यता पर एक उत्कृष्ट लेख लिखा है अपने
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