वैष्णव धर्म का उद्भव एवं विकास

वैष्णव धर्म के सिद्धांत एवं विचार

वैष्णव धर्म का विकास भागवत धर्म से हुआ। मान्यता के अनुसार इसके प्रवर्तक वृष्णि (सत्वत) वंशी कृष्ण थे जिन्हें वसुदेव का पुत्र होने के कारण वासुदेव कृष्ण कहा गया। छान्दोग्य उपनिषद में उन्हें देवकी-पुत्र कहा गया है तथा घोर अंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण के अनुयायी उन्हें भगवत् कहते थे। अतः उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म भागवत धर्म हो गया। महाभारत काल में वासुदेव कृष्ण का समीकरण विष्णु से किया गया। अतएव भागवत धर्म वैष्णव धर्म बन गया। 

वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष गुप्त शाासन काल में आया था। फलतः उत्तर भारत में इस धर्म का अच्छा प्रसार हुआ। तमिल क्षेत्र में वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार अलवार संतों द्वारा किया गया। 

वैष्णव संतों में सर्वाधिक लोकप्रिय तिरूमलिशई मिरूमंगई आदि थे। अलवार संतों की संख्या 12 थी। इनमें एक प्रमुख महिला संत अन्दाल थी। दक्षिण भारत में अन्दाल के पदों की उतनी ही प्रतिष्ठा देखने को मिलती है, जितनी उत्तर में माराबाई की थी। आगे चलकर प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज ने मत का प्रचार किया।

वैष्णव  मत के अन्य देव

भागवत धर्म में विश्णु की उपासना के साथ ही साथ चार अन्य व्यक्तियों की उपासना भी की जाती थी, जो कि इस प्रकार है -
  1. संकर्षण - वासुदेव के रोहिणी से उत्पन्न पुत्र
  2. प्रद्युम्न - ये कृष्ण के रूक्मिणी से उत्पन्न पुत्र थे।
  3. साम्ब - वासुदेव-कृष्ण के जाम्बवन्ती से उत्पन्न पुत्र
  4. अनिरूद्ध - प्रद्युम्न के पुत्र
उपर्युक्त चारों को ‘चतुव्र्यूह’ कहा जाता है। वासुदेव के समान इनकी भी मूर्तियाँ बनाकर वैष्णव मतानुयायी पूजा किया करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्ण के समान अन्य चारों ने भी नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया तथा धर्माचार्य कहलाये। बाद में उनमें देवत्व का आरोपण कर दिया गया। वासुदेव कृष्ण को परमतत्व मानकर अन्य चारों को उन्हीं का अंश स्वीकार किया गया। संकर्षण, अनिरूद्ध तथा प्रद्युम्न को क्रमशः जीव, अहंकार तथा बुद्धि का प्रतिरूप माना गया है।

वैष्णव धर्म के सिद्धांत एवं विचार

वैष्णव धर्म में ईश्वर भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने पर बल दिया गया है। गीता में ज्ञान, कर्म तथा भक्ति का समन्वय स्थापित करते हुए भक्ति द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का प्रतिपादन मिलता है। इस धर्म के अनुसार ईश्वर समय-समय पर अपने भक्तों के कष्ट दूर करने के लिये पृथ्वी पर अवतरित होते है। अतः अवतारवाद का सिद्धान्त धर्म में सबसे महत्वपूर्ण है। 

पुराणों में विष्णु के 10 अवतारों का विवरण प्राप्त होता है - 1. मत्स्य 2. कर्म तथा कच्छप 3. वराह 4. नृसिंह 5. वामन 6. परषुराम 7. राम 8. कृष्ण 9. बुद्ध 10. कल्कि वैष्णव धर्म में मूर्ति पूजा तथा मन्दिरों का महत्वपूर्ण स्थान है। मूर्ति को ईष्वर का प्रत्यक्ष रूप माना जाता है। 

दशहरा, जन्माष्टमी जैसे पर्व वासुदेव-विष्णु के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के प्रतीक है। वैष्णव धर्म में कीर्तन द्वारा भगवान के ध्यान का विशेष महत्व है। 

रामानुज, माधव, बल्लभ, चैतन्य आदि प्रमुख वैष्णव आचार्यों के नाम उल्लेखनीय है। आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना कर रामभक्ति की महत्ता को प्रतिष्ठित किया।

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