बहुभाषावाद या बहुभाषिता से तात्पर्य, बहुभाषिता के लाभ क्या है ?

बहुभाषावाद या बहुभाषिता से तात्पर्य

बहुभाषावाद या बहुभाषिता से तात्पर्य एक से अधिक भाषाओं के प्रयोग से है। किसी व्यक्ति अथवा समुदाय द्वारा दो या दो से अधिक भाषाओं का प्रयोग बहुभाषिता कहलाता है। यह बहुभाषिता विभिन्न स्तर पर हो सकती है। कुछ लोग लिखने, बोलने या पढ़ने में दो या अधिक भाषाओं का प्रयोग कर लेते हैं, भले ही भाषाओं के दक्षता में बहुत अन्तर हो। इसी प्रकार कुछ लोग अंग्रेजी या कोई अन्य भाषा बोले जाने पर उसका अर्थ तो समझ लेते हैं, परंतु वे स्वयं बोल नहीं पाते। यह सभी बहुभाषिता के अन्तर्गत आता है। 

ऐसे सभी लोग बहुभाषिक हैं जो एक से अधिक भाषाओं को सुनकर समझने, बोलने, पढ़ने या लिखने में से किसी भी स्तर पर अपनी दक्षता रखते हैं। 

बहुभाषिता के लाभ 

मनुष्य के सामाजिक, बौद्धिक, आर्थिक या भावात्मक विकास में भाषा की भूमिका अहम होती है। एकाधिक भाषाएँ सीखने से व्यक्ति के ज्ञान-क्षेत्र का विकास हो जाता है। इससे उसके कार्य-क्षेत्र का भी विस्तार हो जाता है। एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति के सम्पर्क का दायरा बढ़ जाता है। वह उस भाषा के जानकार लाखों लोगों से अंतःक्रिया कर सकता है जो उस भाषा का प्रयोग करते हैं। 

जब व्यक्ति दूसरी भाषाओं का उपयोग करने वाले व्यक्ति के सम्पर्क में आता है तो उससे भावात्मक रूप से जुड़ने लगता है और उसके प्रति उसमें उदारता तथा सहनशीलता की मात्रा बढ़ जाती है। ऐसे व्यक्ति की सोच में व्यापकता आने लगती है।

भारत में बहुभाषावाद 

भारत प्राचीनकाल से ही बहुभाषायी राष्ट्र रहा है और यहाँ विभिन्न क्षेत्र में निवास कर रही विभिन्न आदिम जनजातियाँ भिन्न-भिन्न भाषाओं का उपयोग करती रही। आर्यों के संबंध में एक मजबूत धारणा यह भी है कि ये पश्चिमी एशिया (कैस्पियन सागर के आसपास के क्षेत्र) से आकर सिन्ध्ु नदी और उसके आसपास के क्षेत्र (आधुनिक भारत एवं पाकिस्तान का पंजाब प्रान्त) में आकर बसे। बाद में ये गंगा के मैदान वाले क्षेत्र में अपना प्रभुत्व कायम कर लिये। आर्यों ने प्राचीन काल में संस्कृत भाषा को प्रतिष्ठित कर ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाया और इस भाषा में अनेक ग्रंथों (वेद, पुराण, उपनिषद्, महाभारत आदि) की रचना की।

उस समय पालि, प्राकृत जैसी भाषाएँ जनभाषा के रूप में प्रचलित थी, जिसका जैन एवं बौद्ध धर्मावलम्बियों ने प्रचार-प्रसार किया। पुनः मध्यकालीन भारत में विदेशी आक्रमणकारियों तथा धर्म-प्रचारकों का जब हस्तक्षेप बढ़ा तो वे भी अपनी भाषा को यहाँ लाने एवं प्रतिष्ठित करने में सफल रहे। अंग्रेजों के आगमन के साथ ही भारतीयों ने तेजी से अंगे्रजी सीख ली। अंगे्रजी सीखक इन लोगों को न सिर्फ सरकारी पद और पैसा मिलना शुरू हुआ, बल्कि समाज में भी ये उच्च प्रतिष्ठा की नजर से देखे जाने लगे। अंगेजी सीखे ऐसे लोग आजादी के बाद तक भी अपनी अगली पीढि़यों को अंग्रेजी सिखाते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी का राजकाज की भाषा के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान या उच्च शिक्षा (खासकर विज्ञान विषयों) की भाषा के रूप में प्रभुत्व कायम रहा।

स्वतंत्रा भारत में जब पहली बार भाषा आधरित जनगणना हुई तो देश में कुल 1652 मातृभाषाओं का पता चला था, लेकिन सन् 1971 में एक नई परिभाषा के साथ भाषाओं का सर्वेक्षण किया गया, जिसके अनुसार 10,000 से ज्यादा लोगों द्वारा बोली जानेवाली भाषा को ‘कट आफ प्वाइंट’ के रूप में स्वीकारा गया था। इसके चलते भाषाएँ सिमटकर 182 रह गईं, बाद में सन् 2001 में भाषाओं की यह संख्या सिमटकर 122 ही रह गई। इससे अर्थ निकलता है कि पिछले एक सौ साल या कुछ दशकों में ही सैंकड़ों की तादाद में भाषाएँ हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। दो तरह की भाषाएँ भारत में सबसे ज्यादा लुप्त हुई हैं। एक तो वो, जो तटीय क्षेत्रों में बोली थीं, लेकिन सी-फार्मिंग में बदलती हुई तकनीक के कारण ये बड़ी संख्या में लुप्त हो गयी। इसके अलावा वो भाषाएँ भी इन कुछ वर्षों में बहुत तेजी से लुप्त हुई हैं जो अनध्सिूचित कोटि के समुदाय, जैसे-बंजारा समुदाय द्वारा बोली जाती थी। असल में ये तमाम लोग अब शहरों में आकर अपना पहचान के समुदाय, जैसे-बंजारा समुदाय द्वारा बोली जाती थी। असल में ये तमाम लोग अब शहरों में आकर अपनी पहचान छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए ये सभी अन्य लोगों से अपनी भाषाओं में बात नहीं करते और धीरे-धीरे इनकी भाषाएँ हमेशा-हमेशा के लिए समाप्तप्राय हो जाती हैं।

उपरोक्त तथ्यों के बावजूद भाषाओं को विविधता के मामले में भारत की गिनती सबसे समृद्ध राष्ट्रों में होती है। भारत के संबंध् में यह समझ लेना आवश्यक है कि भारत उस तरह का यूरोपीय राष्ट्र-राज्य नहीं है, जिसे एक पहचान में बाँध जा सके। भारत को किसी यूनीफाॅर्म राष्ट्रभाषा की आवश्यकता नहीं है। विविधता भारत को संस्कृति रही है और बहुभाषिता यहाँ के लोगों की जीवनशैली। ऐसे में किसी एक ही भाषा के विकास की बात करना यहाँ बेमानी होगी।

भारतीय संविधान के अध्याय 17 के अनुच्छेद 343 के अनुसार-‘‘संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी।’’ हिन्दीतर भाषी राज्यों के लोगों ने इसका विरोध किया, क्योंकि हिन्दी के व्यवहार में वे सक्षम नहीं थे। इसलिए संविधन के अनुच्छेद 343(2) के तहत केवल 15 वर्षों के लिए (अर्थात् 1965 तक) यह व्यवस्था की गयी कि हिन्दी के साथ-साथ अंगे्रजी भी राजकाज की भाषा रहेगी, ताकि इस दौरान हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो सके। लेकिन 1965 में संसद में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि सभी सरकारी कार्यों में हिन्दी का व्यवहार होगा, पर साथ ही अंग्रेजी का भी सह-राजभाषा के रूप में प्रयोग होता रहेगा। पुनः 1967 में संसद में पारित ‘भाषा संशोधन विधेयक’ के द्वारा राजकाज में अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया गया। इस फैसले का असर यह हुआ कि आजादी के बाद भी अंग्रेजी न सिर्फ सत्ता की भाषा बनी रही है बल्कि उच्च शिक्षा और रोजगार के माध्यम के रूप में भी अंग्रेजी को प्रतिष्ठा मिली। अंगे्रजी माध्यम के विद्यालय खोलने एवं उसमें अपने बच्चों को दाखिला दिलाने की होड़ लग गयी।

भारत की भाषायी स्थिति को देखते हुए संविधान के अनुच्छेद 29(1) के तहत भारत में हर व्यक्ति को अपनी मातृभाषा के अध्ययन व संरक्षण का मौलिक अधिकार प्राप्त है। वर्तमान समय में भारतीय संविधान (8वीं अनुसूची) द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की कुल संख्या 22 है, जिसमें और भी भाषाओं को शामिल करने की माँग होती रही है। हालांकि अनुच्छेद 350ए के अनुसार राज्य व स्थानीय निकायों को स्थानीय भाषा में भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में उपलब्ध कराने का जिम्मा सौंपा गया है।

Post a Comment

Previous Post Next Post