संविधानवाद क्या है संविधानवाद की उत्पत्ति और विकास

 

संविधानवाद की उत्पत्ति और विकास

संविधानवाद शासन की वह पद्धति है जिसमें शासन जनता की आस्थाओं, मूल्यों व आदर्शों को परिलक्षित करने वाले संविधान के नियमों व सिदान्तों  के आधार पर ही किया जाए व ऐसे संविधान के माध्यम से ही शासकों को प्रतिबंधित व सीमित रखा जाए जिससे राजनीतिक व्यवस्था की मूल व्यवस्थाएँ सुरक्षित रहें और व्यवहार में हर व्यक्ति को उपलब्ध हो सकें। 

संविधानवाद उस निष्ठा का नाम है जो मनुष्य संविधान में निहित शक्ति में रखते है जिससे सरकार व्यवस्थित बनी रहती है। अर्थात वह निष्ठा व आस्था की शक्ति जिसमें सुसंगठित राजनीतिक सत्ता नियंत्रित रहती है, ‘संविधानवाद’ है।

कुछ विचारक शासन को सीमित व नियंत्रित करने के लिए तथा मानव मूल्यों की सुरक्षा सम्भव बनाने के लिए शक्ति विभाजन को अधिक महत्व देते हैं व उसे संविधानवाद का मूल आधार मानते हैं। उनकी मान्यता है कि संविधानवाद राजनीतिक शक्तियों का विभाजन कर सरकार के कार्यों पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करना है। अतः संविधानवाद तभी संभव है जब किसी राजनीतिक व्यवस्था में शक्ति विभाजन के द्वारा सरकारी कार्यों पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया जा सके।

इससे यह भी स्पष्ट है कि जहाँ संविधान है वहाँ संविधानवाद आवश्यक रूप से पाया जाता हो यह जरूरी नहीं है। संविधान के माध्यम से तो हम किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था, अर्थात सरकार के स्वरूप, उसकी शक्तियों व नागरिकों और सरकार के सम्बन्धों से सम्बन्धित सिदान्तों व नियमों का संकेत पाते हैं जबकि संविधानवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें संविधान के माध्यम से ही सरकार की शक्तियों पर शक्ति वितरण द्वारा प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया जाता है।

संविधानवाद की उत्पत्ति और विकास

संविधानवाद की उत्पत्ति किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं है। इसकी उत्पत्ति और विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज है। यूनानियों से लेकर वर्तमान समय तक संविधानवाद एक लम्बी ए्रतिहासिक प्रक्रिया से गुजरा है। यूनानी चिन्तकों के बाद इसे परवर्ती विचारकों ने भी विकसित होने में अपना सहयोग दिया है। एक गतिशील अवधारणा के रूप में संविधानवाद का अपना एक विशिष्ट प्रकार का इतिहास है। 

यूनानी नगर राज्यों के जन्म से वर्तमान अवस्था तक संविधानवाद के विकास को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है :-

1. यूनानी संविधानवाद - संविधान की उत्पत्ति सबसे पहले यूनान के ऐथेंस नगर में हुई थी। सर्वप्रथम यूनानी दार्शनिकों ने ही राज्य के रूप, कार्यों और उद्देश्यों पर विचार करते हुए राज्य के विभिन्न रूपों में अन्तर किया। उन्होंने विवेकपूर्ण ढंग से संविधानिक शासन पर विचार किया और व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने वाली राज्य की शक्ति पर मनन किया। 

प्लेटो ने संविधानिक शासन के बारे में कहा कि संविधानिक शासन शासक की इच्छा से नहीं, बल्कि नियमानुसार संचालित होता है। 

प्लेटो की तरह अरस्तु ने भी संविधानवाद के तत्वों - सार्वजनिक हित, सामान्य कानूनों का शासन, सहमति का आधार आदि पर अपने विचार दिए। अरस्तु की दृष्टि में अच्छी नागरिकता की कसौटी-संविधान का पालन करना था। 

अरस्तु ने सर्वप्रथम राज्य और सरकार में शासन के उद्देश्यों तथा संस्थात्मक आधार पर भेद व वर्गीकरण किया। यूनानी विचारकों ने संविधानों का पालन कराने के लिए शिक्षा पर बहुत जोर दिया ताकि राज्य को अराजकता से बचाया जा सके। यूनानी नगर राज्यों में संविधान का पालन अनिवार्य रूप से किया जाता था। आज भी यूनानी संविधानवाद का प्रभाव कानून की सर्वोच्चता के रूप में विद्यमान है। 

लेकिन यूनानी संविधानवाद का सबसे बड़ा दोष उसमें गतिशीलता व परिवर्तनशीलता का अभाव था। इसी कारण वह संविधानवाद तो समाप्त हो गया लेकिन उसका राजनीतिक आदर्श आज भी जीवित है।

2. रोमन संविधानवाद - यूनानी नगर-राज्यों के पतन के बाद रोम के महान साम्राज्य की स्थापना के बाद रोम में सरकार के उपकरण के रूप में संविधान का जन्म हुआ। यह संविधान दृष्टान्तों, मानव स्मृतियों, राज्य के विशेषज्ञों के कथनों, रीति-रिवाजों पर आधारित सरकार का कानून था। रोमन संविधानवाद कानून के शासन के रूप में विख्यात है। उन्होंने सामान्य और संविधानवाद कानूनों में अन्तर किया। उनका अतिराष्ट्रीय सत्ता में भी विश्वास था। उन्होंने यह भी सिद्धान्त दिया कि कानूनी शक्ति का स्रोत जनता ही है। जब रोमन गणतन्त्र का पतन हुआ तो संविधानवाद भी विनाश की ओर चल पड़ा। 

3. मध्यकाल में संविधानवाद - रोमन साम्राज्य के नष्ट होने के बाद यूरोप को सामन्तवाद का प्रादुर्भाव हुआ। इस युग में चर्च ही सर्वोच्च धार्मिक सत्ता थी। उसे ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। राजा केवल ईश्वर के प्रति ही उत्तरदायी था। इससे संविधानवाद का मार्ग अवरुद्ध हो गया। लेकिन आगे चलकर सामन्तवाद की बुराईयों का अन्त हुआ और दैवीय सत्ता के स्थल पर स्वेच्छाचारी राजतन्त्र तथा वैधानिक राजतन्त्र की स्थापना हुई। 

इंग्लैण्ड, फ्रांस, स्पेन में केन्द्रीयकरण की प्रगति ने सामन्तवाद की बुराईयों को नष्ट कर दिया और वहां पर संविधानवाद के लक्षण प्रकट होने लगे। ब्रिटेन में राजा के दैवी अधिकारों के स्थान पर संसद की सर्वोच्चता का सिद्धान्त पनपने लगा। इस युग में लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त, सर्वव्यापी कानून, प्रतिनिधि लोकतन्त्रवाद की अवधारणा का उदय हुआ। 

4. पुनर्जागरण और संविधानवाद - पुनर्जागरण काल में इटली और जर्मनी में संविधानवाद का मार्ग अवरुद्ध हो गया। इटली में मैकियावेली ने 'The Prince' पुस्तक में राजनीति को नैतिक नियमों से अलग कर दिया, यूरोप में सामन्तवाद के पतन के बाद एकीकरण करने वाली शक्ति राजा ही था। इस काल में केवल इंग्लैण्ड ही ऐसा देश था, जहां संविधानवाद का विकास हुआ। 

1688 की शानदार क्रान्ति के बाद इंग्लैण्ड के निरंकुश राजतन्त्र के स्थान पर सीमित राजतन्त्र की स्थापना हुई। इस युग में इंग्लैंड में मन्त्रिपरिषद तथा प्रधानमन्त्री की संस्थाओं का जन्म हुआ। 

1742 में प्रधानमंत्री वालपोल ने अविश्वास मत के कारण अपना पद छोड़ दिया। इससे इस सिद्धान्त की स्थापना हो गई कि मन्त्रीपरिषद व प्रधानमन्त्री अपने पद पर उसी समय तक रह सकते हैं, जब तक उन्हें लोकसदन का विश्वास हासिल रहे। 

इंग्लैंड में कानून के शासन की स्थापना ने संविधानवाद का नया अध्याय शुरु किया। इस युग में ही अमेरिकी व फ्रांसीसी क्रांतियों ने लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों को जन्म िदेया। अमेरिका के स्वतन्त्रता युद्ध का नारा था-”प्रतिनिधित्व के बिना कर नहीं।” 

4 जुलाई 1776 के अमेरिका स्वतन्त्रता के घोषणा पत्र में कहा गया कि “सब व्यक्ति समान हैं और सभी को जीवन, स्वतन्त्रता तथा सुख प्राप्त करने के अधिकार हैं। इन अधिकारों की प्राप्ति के लिए ही सरकारें स्थापित की जाती हैं।” वास्तव में आधुनिक संविधानवाद का जन्म यहीं से होता है। 

1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति के घोषणा पत्र में भी इसी बात पर बल दिया गया कि मनुष्य जन्म से स्वतन्त्र और अधिकारों में समान है। कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति है। जब 1791 में फ्रांस का संविधान बनाया गया था तो इस घोषणा को उसमें महत्वपूर्ण जगह मिली।

5. औद्योगिक क्रान्ति से प्रथम विश्वयुद्ध तक संविधानवाद - औद्योगिक क्रान्ति के जनम ने संविधानवाद को विकसित किया। इस क्रान्ति के कारण पूंजीवादी वर्ग ने शासन पर कब्जा करके कानूनों का प्रयोग मनमाने तरीके से करना शुरु कर दिया। पूंजीवाद के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि हुई और राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वता की भावना भी बढ़ी। पूंजीवाद ने श्रमिक आन्दोलनों को जन्म दिया। श्रमिक संगठित होकर अपने राजनीतिक अधिकारों की मांग करने लगे। 1867 और 1885 के सुधार अधिनियम श्रमिकों के आन्दोलन के ही परिणाम थे। 

1848 में माक्र्स के कम्यूनिष्ट मैनीफेस्टो (Comminist Monifesto) में श्रमिकों को एकता के लिए कहा गया। इसका संविधानवाद के विकास पर बहुत प्रभाव पड़ा। पूंजीपतियों ने निरंकुश सत्ता के स्थान पर संविधानिक सत्ता के प्रयास शुरु कर दिए। मध्यम वर्ग को मताधिकार प्राप्त हो गया और राष्ट्रवादी दलों के संगठन के कारण राष्ट्रवाद तथा संविधानिक सत्ता के प्रयास शुरु कर दिए। मध्यम वर्ग को मताधिकर प्राप्त हो गया और राष्ट्रवादी दलों के संगठन के कारण राष्ट्रवाद तथा संविधानिक सुधारों का विकास हुआ। इटली तथा जर्मनी में एकीकरण आन्दोलनों का विकास हुआ। 1859 में एकीकृत इटली का संविधान बना, डेनमार्क में 1864 में संसदीय व्यवस्था की स्थापना हुई, आस्ट्रिया और हंगरी में 1869 में नए संविधान बने और फ्रांस में 1875 में तृतीय गणतन्त्र की स्थापना हुई। इस तरह संविधानवाद का सीमित विकास हुआ। 

1874 में स्विट्रलैंड में भी आधुनिक ढंग के संविधान का निर्माण हुआ, जो आज तक भी प्रचलित है। इसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था द्वारा जनता को ही महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। 1889 में जापान के सम्राट ने भी वैधानिक शासन की स्थापना के लक्ष्य को प्राप्त करने वाले नए संविधान पर हस्ताक्षर किए। 1875 में कनाडा में भी एक नए संविधान का निर्माण किया गया। इस तरह संविधानवाद में नई नई प्रवृत्तियों का विकास हुआ और संविधानवाद में आधुनिकता के तत्वों का समावेश होता गया।

6. प्रथम विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध तक संविधानवाद - प्रथम विश्वयुद्ध के बाद संविधानवाद का विकास नए ढंग से हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद संविधानवाद यूरोपीय सीमाओं को लाँघकर सार्वभौमिकता की तरफ बढ़ने लगा। युद्ध के बाद सभी देशों ने लोकतन्त्रीय संविधानों का निर्माण शुरु किया। राष्ट्र संघ की स्थापना ने संविधानवाद के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस दौरान इटली में फासीवाद तथा जर्मनी में नाजीवाद के उदय ने संविधानवाद को गहरी क्षति भी पहुंचाई। इसी तरह रूस में भी साम्यवाद के प्रादुर्भाव ने संविधानवाद के लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों का त्याग कर दिया। लेकिन इसके बावजूद भी नए लिखित संविधानों में वैयक्तिक स्वतन्त्रता, लोकसत्ता और राष्ट्रीयता को महत्वपूर्ण स्थान मिला। लेकिन यह व्यवस्था आडम्बरपूर्ण थी। 

1922 में मुसोलिनी ने इटली में तथा 1933 में हिटलर ने जर्मनी में संविधान के आदर्शों के विपरीत अपनी निरंकुश सत्ता स्थापित करके संवैधानिक शासन की धज्जियां उड़ा दी। ऐसे वातावरण में 1936 में स्पेन में जनरल फ्रांको ने भी प्रचलित गणतन्त्रात्मक संविधान का उल्लंघन कर दिया। इस स्थिति में बेल्जियम, नीदरलैंड, डेनमार्क और चकोस्लोवाकिया आदि राज्यों ने अपनी संसदीय व्यवस्था की बड़ी मुस्किल से रक्षा की।

7. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संविधानवाद  - द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद धुरी शक्तियों का नामोनिशान मिट गया और संविधानवाद का मार्ग अवरुद्ध करने की उनमें कोई शक्ति नहीं रही। लेकिन इसके बाद संविधानवाद का साम्यवादी प्रतिमान उभरने लगा। अनेक देशों में सोवियत संघ के मार्गदर्शन में साम्यवादी सरकारों की स्थापना ने लम्बे समय तक संविधानवाद साम्यवादी तरीके से विकास किया। उधर अमेरिका के झण्डे तले पाश्चात्य संविधानवाद का पाश्चात्य प्रतिमान ही लागू करने के प्रयास जारी रहे। नवोदित तृतीय विश्व के राष्ट्रों ने संविधानवाद का नया प्रतिमान विकसित किया। इस तरह संविधानवाद के नए-नए प्रतिमान उभरे। उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद की पकड़ ढीली होने से स्वतंत्र राष्ट्रों ने अपने अपने संविधान बनाने आरम्भ कर दिए। जापान ने 1946 में संविधान का नया प्रारूप स्वीकार किया जो प्रजातांत्रिक तथा शांतिवादी सिद्धान्तों पर आधारित था। वह प्रारूप जापान में आज भी विद्यमान है। 

1947 में भारत ने ब्रिटेन से औपनिवेषिक स्वतन्त्रता प्राप्त करके 1950 में अपना तथा प्रजातन्त्रीय संविधान लागू किया। 1949 में चीनी क्रान्ति के बाद माओ के नेतृत्व में चीन में जनवादी गणतन्त्र की स्थापना हुई। चीन में 1954 में समाजवादी संविधान बनाया गया, लेकिन उसके बाद 1975ए 1978 तथा 1982 में चौथी बार संविधान का निर्माण हुआ। अन्तिम संविधान चीनी जनकांग्रेस ने व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही तैयार किया है और उसका रूप आज भी वही है। इसके बाद बर्मा, इण्डोनेशिया, श्रीलंका आदि राष्ट्रों ने भी अपने नए संविधान बनाए। 

1958 में फ्रांस के पांचवे गणतन्त्रीय संविधान का निर्माण हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ने संविधानवाद की रक्षा करने के प्रयास किए हैं। अनेक राष्ट्रों की संस्था के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर सभी राष्ट्रों के लिए लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों के आदर्श के रूप में कार्यरत हैं।

यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि राष्ट्रों में सैनिक शासन व निरंकुशतावादी ताकतों के प्रादुर्भाव से संविधानवाद को गहरा आघात भी पहुंचा है। अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक की फासीवादी ताकतों को समाप्त करके वहां अपना कठपुतली अस्थायी शासन तो स्थापित कर लिया है, लेकिन वहां संवैधानिक सरकार जैसी कोई वस्तु नहीं है। वहां पर अराजकता की स्थिति में संविधानवाद की कल्पना करना असम्भव है। इसी तरह पाकिस्तान में सैनिक शासन के कारण आज संविधानिक सरकार के अभाव में संविधानवाद नहीं है। लेकिन आज जनता की आवाज संविधानवाद के लिए नया मार्ग तलाश करने को तैयार है। पाकिस्तान, ईराक व अफगानिस्तान में भी वहां की जनता का रुझान प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों के प्रति अधिक है। 

आज विश्व में संविधानवाद का रास्ता रोकने वाली ताकत अधिक मजबूत नहीं हैं। संविधानवाद का रास्ता रोकने वाली ताकतों का जो हर्ष ईराक व अफगानिस्तान में हुआ है, वही अन्य देशों में भी हो सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आज संविधानवाद विकास के मार्ग पर अग्रसर है।

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