तुलसीदास की प्रमुख रचनाएं कौन कौन सी हैं?

तुलसीदास

विल्सन तथा गार्सा द तासी ने उनका जन्म संवत् 1600 (1543 ई.) में माना है।  ‘मूलगोसाइर्ंचरित’ में तुलसीदास का जन्म संवत् 1554 (1497 ई.) में माना गया है। डा. ग्रियर्सन आदि ने तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 (1532 ई.) माना है तथा इसे ही सर्वाधिक स्वीकृति प्राप्त हुई है।

तुलसीदास की माता का नाम हुलसी था इनके पिता का नाम आत्माराम दूबे था। तुलसीदास का नाम दूसरा नाम ‘रामबोला’ मिलता है बहिर्साक्ष्य में ‘तुलसीचरित’ में मूल नाम तुलाराम बताया है। गुरु का नाम तुलसीराम था और इसी कारण गुरु के स्नेह से इन्हें तुलसी गुरु के दासरूप तुलसीदास कहा जाने लगा। 

तुलसीदास के जन्म-स्थान को लेकर बड़ा मतभेद मिलता है। इस संबंध में हाजीपुर, तारी, राजापुर तथा सोरों- चार स्थानों के नाम सामने आये हैं। हाजीपुर का उल्लेख विल्सन द्वारा हुआ था। तारी का उल्लेख डा- ग्रियर्सन ने किया था। राजापुर के बूढ़ों से भी सुना गया है कि तारी ही में गोस्वामीजी का जन्म हुआ था, राजापुर में नहीं। अयोध्या निवासी श्री रामरसरंगमणि जी ने भी कवित्त रामायण की टीका में तारी को ही जन्म-स्थान माना है।

तुलसीदास की प्रमुख रचनाएं

तुलसी की बारह रचनाओं को ही उनकी प्रामाणिक कृतियाँ स्वीकार किया है -
  1. वैराग्य संदीपिनी
  2. रामाज्ञा प्रश्न
  3. रामलला नहछू
  4. जानकी मंगल
  5. रामचरितमानस
  6. पार्वती-मंगल
  7. कृष्ण गीतावली
  8. गीतावली
  9. विनय-पत्रिका
  10. दोहावली
  11. बरवै रामायण
  12. कवितावली
1. वैराग्य-संदीपिनी- यह तथ्य किंचित विवादास्पद ही है कि ‘वैराग्य-संदीपिनी’ और ‘रामाज्ञा प्रश्न’ में से गोस्वामीजी की किस कृति की पहले रचना हुई है? हाँ, अधिकांश विद्वान तुलसी की इसी रचना को उनकी प्रथम कृति मानते हुए इसका रचनाकाल सं॰ 1626-27 वि॰ स्वीकार करते हैं। 

प्रस्तुत कृति के लगभग पच्चीस छन्दों में (आठवें से लेकर 33वें दोहे तक) कवि ने संतों की महिमा का वर्णन करते हुए दिखाया है। 

2. रामाज्ञा-प्रश्न- इस कृति में कुल 343 दोहे हैं।

3. रामलला नहछू- प्रस्तुत कृति की परिगणना गोस्वामीजी की आरंभिक कृतियों में की जाती है और इसमें मात्रा बीस सोहर छंद हैं। सोहर बाईस मात्राओं का लोक-गीतों से सादृश्य रखने वाला छंद है। ‘नहछू’ शब्द ‘नह-खुर’ शब्द का अपभ्रष् रूप है, जो उस संस्कार का संकेत करता है जिसे यज्ञोपवीत और विवाह संस्कारों के अवसर पर सम्पन्न किया जाता है और नाई अथवा नाइन द्वारा नाखून काटे जाते हैं। 

प्रस्तुत कृति में तुलसी ने नाइन द्वारा राम के नाखून काटे जाने का वर्णन करते हुए दिखाया है कि कौशल्याजी दूल्हा बने राम को अपनी गोद में लिए बैठी हैं और उनके शीश पर अपने अंचल की छाया कर रही हैं-

4. जानकी मंगल- वण्र्य-वस्तु की दृष्टि से प्रस्तुत कृति ‘रामलला नहछू’ की अगली कड़ी कही जा सकती है, क्योंकि ‘रामलला नहछू’ में राम के वर-रूप का चित्रण किया गया है, जबकि ‘जानकी मंगल’ में कवि ने राम और सीता के विवाह का वर्णन किया है।

5. रामचरित मानस- गोस्वामीजी द्वारा विरचित कृतियों में ‘रामचरितमानस’ ही उनकी अक्षय-कीर्ति का मेरुदण्ड कही जा सकती है। प्रस्तुत महाकाव्य को विश्व-साहित्य में अग्रगण्य महाकाव्यों से तुलना की जा सकती है, जबकि भारतीय महाकाव्यों में तो इसका महत्व अक्षुण्ण ही है। इस कृति की रचना का समारम्भ संवत् सोलह सौ इकत्तीस में फाल्गुन मास की नवमी को अयोध्या में किया गया था

6. पार्वती मंगल- प्रस्तुत कृति का वण्र्य-विषय शिव और पार्वती का विवाह है। इसके रचनाकाल का कवि ने निम्नांकित छन्द में निर्देश करते हुए, उसे जय संवत् अर्थात् 1643 वि. बताया है

7. कृष्ण-गीतावली- वैसे तो गोस्वामी के जीवन-वृत्त के साथ यह किंवदती भी जुड़ी हुई है उनकी ‘कृष्ण-गीतावली’ नामक रचना से सि( हेता है कि गोस्वामीजी में उक्त किंवदंती जैसी संकीर्ण साम्प्रदायिक भावना नहीं थी। प्रस्तुत कृति में 61 छन्द है, जिनमें उन्होंने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन किया है। कृति के छन्दों में सूर के पदों जैसा लालित्य तो नहीं है, तथापि तुलसी ने कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं को देखकर प्रमुदित होती यशोदा की मनोभावनाओं का सुन्दर निरूपण किया है।

8. गीतावली- प्रस्तुत कृति में 238 छंद हैं जबकि इसका रचनाकाल सं. 1630 से लेकर 1670 वि. अर्थात् लगभग चालीस वर्ष स्वीकार किया जाता है। अभिप्राय यह है कि इसके अंतर्गत गोस्वामीजी द्वारा समय-समय पर रचे गए पद संकलित कर दिए गए हैं। प्रस्तुत कृति में कवि ने ‘रामचरितमानस’ की भाँति पदों में राम-कथा का वर्णन किया है और इन पदों को ‘मानस’ की भाँति ही सात कांडों में विभक्त किया है।

9. विनयपात्रिका- प्रस्तुत कृति का तुलसी की कृतियों में अन्यतम महत्व है। इसमें कुल 279 पद हैं। इस कृति का रचनाकाल सं. 1660 से 1670 वि. स्वीकार किया जाता है अर्थात् यह कवि के प्रौढ़ काल की रचना स्वीकार की जाती है। जैसा कि कृति के नामकरण से ही स्पष्ट हो जाता है, इसमें कवि ने भगवान राम से अपने उत्तर की विनयपूर्ण प्रार्थना की है और इस प्रार्थना-पत्रिका की स्वीकृति हेतु लक्ष्मण हनुमानादि उन राम-भक्तों की भी स्तुति की है, जिनसे इस प्रार्थना-पत्र की स्वीकृति में सहायता मिल सके। एक पद में कवि ने यह भाव व्यक्त भी किया है कि उसके आराध्य ने उसकी इस प्रार्थना को स्वीकृति प्रदान करके कवि को अपना दास स्वीकार कर लिया है।

10. दोहावाली- प्रस्तुत कृति में कुल 573 छंद है। जिनमें से 551 दोहे तथा 22 सोरठा हैं। इन छंदों की रचना कवि ने विभिन्न अवसरों पर की है, जिसे उनके वण्र्य-विषय में विविधता आ गई है। इस कृति में संकलित कतिपय दोहे ‘रामचरितमानस’, ‘वैराग्य-संदीपिनी’ और ‘रामाज्ञा-प्रश्न’ में भी मिलते हैं। इस कृति के कुछ दोहों से गोस्वामी जी की रुग्णता का संकेत मिलता है

11. बरवै रामायण- इस कृति में कवि ने राम-कथा का वर्णन मात्रा बरवै नामक छंद में किया है अतः तदनुकूल ही इसका नामकरण ‘बरवै रामायण’ किया गया है। प्रस्तुत कृति में भी राम-कथा का विभाजन ‘रामचरितमानस’ की भाँति सात कांडों में ही किया गया है। यह माना जाता है कि गोस्वामीजी ने विभिन्न अवसरों पर राम-कथा से सम्बन्धित जिन बरवै छन्दों की रचना की थी, उन्हें ही बाद में उनके शिष्यों ने ‘बरवै रामायण’ के रूप में संकलित कर दिया है, अर्थात् इस कृति की तुलसी ने स्वतन्त्र रूप में रचना नहीं की है यह भी माना जाता है कि गोस्वामीजी ने इस छन्द को कहीं से अपनाया है, जिससे इन बरवै छन्दों में श्रृंगार-भावना का भी अच्छा समावेश मिलता है।

12. कवितावली- गोस्वामीजी की जिन बारह कृतियों को उनकी प्रामाणिक कृतियाँ स्वीकार किया जाता है, उनमें से ‘कवितावली’ अंतिम रचना है। आरम्भ में कवित्त-छंद का अर्थ व्यापक था और सवैया तथा छप्पय छंदों की भी कवित्तों में परिगणना की जाती थी। हाँ, कालान्तर में कवित्त का अर्थ संकुचित हो गया है और अब सवैया तथा छप्पय प्रथम छन्द स्वीकार किए जाने लगे हैं। अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत कृति में कवित्तों की अवली अर्थात् कविता- अवली मिलने के कारण ही इसका नामकरण ‘कवितावली’ किया गया है। 

इसकी वण्र्य-वस्तु भी ‘मानस’ की तरह राम कथा है और कथा का विभाजन भी सात कांडों में किया गया है। विभिन्न कांड और उनमें संकलित कवित्तों की संख्या इस प्रकार है-
  1. बालकांड = 21 छंद, 
  2. अयोध्याकांड = 28 छंद, 
  3. अरण्यकांड = 1 छंद, 
  4. किष्किंधा कांड = 1 छंद, 
  5. सुन्दरकांड = 32 छंद, 
  6. लंकाकांड = 58 छन्द, 
  7. उत्तरकांड = 183 छन्द।
‘कवितावली’ के उत्तरकांड में कवि ने मुगल-शासन में भारतवासियों की दयनीय दशा का मार्मिक वर्णन किया है।

‘कवितावली’ काव्योत्कर्ष की दृष्टि से निश्चय ही गोस्वामीजी की प्रौढ़तम रचनाओं में से एक है।

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