लागत का परम्परावादी सिद्धांत क्या है?

 

लागत का परम्परावादी सिद्धांत 

परम्परावादी सिद्धांत में समय अवधि के अनुसार लागतों का अध्ययन दो भागों में किया जाता है।
  1. अल्पकाल में लागत
  2. दीर्घकाल में लागत

1. अल्पकाल में लागत 

अल्पकाल समय की वह अवधि है जिसमे उत्पादन के कुछ साधन स्थिर (fixed) होते हैं तथा कुछ साधन परिवर्तनशील (Veriable) होते हैं। अल्पकाल में कुछ लागत, औसत लागत तथा सीमांत लागत का अध्ययन निम्न प्रकार से किया जा सकता है।

1. कुल लागत: एक वस्तु के विभिन्न स्तरों का उत्पादन करने के लिये जो धन व्यय करना पड़ता है उसे कुल लागत कहते हैं। यदि 500 कापियों का उत्पादन करने के लिये 200 रुपये कुल खर्च करना पड़ता है तो इन 500 कॉपियों की कुल लागत 2000 रुपये होगी।

2. बन्धी या पूरक लागत : अल्पकाल में स्थिर साधनों की कुल लागत को बन्धी लागत कहा जाता है। ये उत्पादन की मात्रा के साथ परिवर्र्तित नहीं होती। यदि उत्पादन यदि उत्पादन शून्य हो या अधिकतम हो, बन्धी लागत इतनी ही रहेगी। बन्धी लागत में निम्नलिखित खर्च शामिल होते हैं।

3. परिवर्तनशील लागतें : ये वे लागते हैं जो उत्पादन के घटते बढ़ते साधनों के प्रयोग के लिये खर्च करनी पड़ती है। डूली के अनुसार घटती बढ़ती लागत वह लागत है जो उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर परिवर्तित होती है। 

4. औसत लागत -  किसी वस्तु की प्रति इकाई लागत को औसत लागत कहा जाता है।

5. औसत बन्धी लागत : कुल बन्धी लागत को उत्पादन की मात्रा से भाग देने पर जो भजनफल आता है उसे औसत बन्धी लागत कहते हैं।

6. सीमान्त लागत - किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने से कुल लागत में जो अन्तर आता है उसे सीमान्त लागत कहते हैं।

2. दीर्घकाल में लागतें 

कोतसुिब्यानी के अनुसार, ‘‘दीर्घकाल वह अवधि है जिसमें सभी साधन परिवर्तनशील होते हैं।’’ इस अवस्था में कोई बन्धी हुई लागत नहीं होती। सभी लागतें घटती-बढ़ती लागतें होती हैं। अल्पकाल की तरह दीर्घकाल में भी लागत की तीन धारणायें हैं (1) दीर्घकाल कुल लागत (2) दीर्घकाल औसत लागत (3) दीर्घकाल सीमान्त लागत।

1. दीर्घकाल कुल लागत .लीभाफास्की के अनुसार, ‘‘दीर्घकालीन कुल उत्पादन के किसी स्तर की न्यूनतम कुल लागत है जबकि सभी साधन परिवर्तनशील हैं।’’ दीर्घकालीन कुल लागत सदैव अल्पकालीन कुल लागत से कम होगी या उसके बराबर होगी

2. दीर्घकालीन औसत लागत वक्र : दीर्घकालीन औसत लागत, दीर्घकाल में किसी वस्तु की विभिन्न मात्राओं को उत्पन्न करने की प्रति इकाई न्यूनतम सम्भव लागत होती है। दीर्घकाल में प्रत्येक फर्म विभिन्न प्रकार के प्लांटों का प्रयोग कर सकती है। एक निश्चित उत्पादन की मात्रा के लिए एक विशेष प्रकार का प्लांट उपयुक्त रहता है क्योंकि उस प्लांट की सहायता से उत्पादन करने से औसत लागत न्यूनतम होती है। 

दीर्घकाल में एक उत्पादक उस प्लांट से उत्पादन करेगा जिससे औसत लागत न्यूनतम हो जाये। उत्पादन की मांग में परिवर्तन होने के साथ-साथ वह प्लांट के आकार भी परिवर्तन करता जायेगा। प्रत्येक प्लांट की एक अल्पकालीन औसत लागत वक्र (SAC) होती है। इसकी सहायता से हम दीर्घकालीन औसत लागत वक्र (LAC) का अनुमान लगा सकते हैं। मान लीजिए एक फर्म दो प्रकार के प्लांटों का प्रयोग कर सकती है। एक छोटा (Small) प्लांट है। उसकी अल्पकालीन लागत वक्र SAC1 है, दूसरा बड़ा प्लांट है। इसकी अल्पकालीन लागत वक्र SAC2 है। 

दीर्घकाल में फर्म इन दोनों प्लांटों में से सबसे लाभदायक प्लांट पर निवेश करने की योजना बना सकती है। उत्पादन की विभिन्न मात्राओं पर इन दोनों अल्पकालीन लागत वक्रों की सहायता से यह ज्ञात किया जा सकता है कि उत्पादन की विभिन्न मात्राओं पर कौन से प्लांट के द्वारा उत्पादन करने में औसत लागत न्यूनतम होगी।

3. दीर्घकालीन सीमान्त लागत : दीर्घकाल में किसी वस्तु की एक अधिक या कम इकाई उत्पन्न करने से कुल लागत में जो अन्तर आता है उसे दीर्घकालीन सीमांत लागत कहा जाता है।

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