अलबरूनी का जीवन परिचय, अलबरूनी की प्रमुख किताबे

प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञान, विज्ञान, व्यापार, धर्म और अध्यात्म का बहुत विकास हुआ. इस विकास की ख़बरें मौखिक रूप में व्यापारियों के माध्यम से फारस, ग्रीस, रोम तक पहुँच जाती थी. इसकी वजह से व्यापारी, पर्यटक, बौद्ध भिक्खु तो आते ही थे बहुत से हमलावर भी आ जाते थे. इनमें से कुछ ने यात्रा संस्मरण, लेख, किताबें लिखीं या नक़्शे बनाए जो उस समय का इतिहास जानने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। 

अलबरूनी का जीवन परिचय

अलबरुनी का जन्म सन 973 में ख्वारेज्म, खोरासन में हुआ था जो अब उज़बेकिस्तान में है. उसकी मृत्यु 1048 में गज़ना में हुई थी जिसे अब ग़ज़नी (अफगानिस्तान) कहते हैं. वैसे अल बरुनी इरानी ( फारसी ) नागरिक था और उसका पूरा नाम अबू रेहान मुहम्मद इब्न अहमद अल-बरूनी था। 

उसे तुर्की, फ़ारसी, हिब्रू, अरबी, अरमेन्याई भाषाओं का ज्ञान था. यहाँ आकर अलबरूनी ने संस्कृत भी सीख ली थी. उसे ज्योतिष, दवाइयां, गणित और खगोल विद्या में रूचि थी और यहाँ आकर उसने यह जानकारी बढ़ाने की कोशिश की. दिल्ली आकर उसने दूर दूर तक यात्रा की और उस समय के भारत के वो पहला मुस्लिम भारतवेत्ता माना जाता है। 

अलबरूनी की प्रमुख किताबे 

अलबरूनी की प्रमुख चार किताबे है। 
  1. किताब-उल-हिन्द
  2. अल क़ानून अल मसूदी
  3. क़ानून अल मसूदी अल हैयात और
  4. अल नज़ूम। 
अलबरूनी का आना महमूद गज़नवी के साथ ही हुआ और वह तेरह साल भारत में रहा. उसकी लिखी 'किताब उल-हिन्द' काफी चर्चित है. इस पुस्तक में यहाँ के जीवन का विस्तार से वर्णन किया है. संस्कृत सीख लेने के कारण प्राचीन ग्रंथों जैसे की गीता, उपनिषद, पतंजलि, पुराण और वेद के कोटेशन बरुनी के लेखों में काफी मिलते हैं. दरअसल इस किताब का पूरा नाम था - तहकीक मा लि-ल-हिन्द मिन मक़ाला मक्बुला फी अल-अक्ल औ मर्दूला ( Verifying All That the Indians Recount, the Reasonable and the Unreasonable - किताब के नाम का अनुवाद इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से )।  

ये नाम बहुत कुछ ज़ाहिर कर देता है की लेखक की मन्शा क्या है. किताब का हिंदी अनुवाद 'अलबेरुनी का भारत' के नाम से 1960 में प्रकाशित हुआ और अनुवादक थे रजनी कान्त शर्मा. 466 पेज की ये किताब ऑनलाइन पढ़ने के लिए इन्टरनेट पर उपलब्ध है।  

अलबरूनी की  किताब परेशानियां 

किताब की शुरुआत में अलबरूनी ने लिखा है की किसी भी हिन्दुस्तानी विषय पर लिखना हो तो निम्न तरह की परेशानियां आती हैं:

1. भाषा की विभिन्नता - 'हमारी ज़ुबान के लिए संस्कृत भाषा का उच्चारण अत्यन्त कठिन है'.हिन्दू लोग यूनानियों की तरह बाएँ से दाएं लिखते हैं'. पांडुलिपियों को बहुत लापरवाही से तैयार किया जाता है और पूर्ण शुद्ध तथा पूर्णत: क्रमबद्ध पाण्डुलिपि बनाने पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता'.

2. धार्मिक पक्षपात - 'अन्य धर्मानुयायियों के लिए उनके द्वार सदा बंद रहते हैं क्योंकि उनका विश्वास है की ऐसा करने पर वे धर्म भ्रष्ट हो जाएंगे'.

3. आचार विचार तथा रीतियों का भेद - 'तीसरे वे अपने तौर तरीकों व व्यवहार विधि में हमसे इतने अधिक भिन्न हैं की वे बच्चों को हमारे नाम से, हमारे वस्त्रों से और हमारी रीतियों और व्यवहार से डराते हैं, और हमें शैतान की औलाद बता कर हमारे कार्यों को उन सभी कामों के विरुद्ध बताते हैं जिन्हें ये अच्छा और उचित मानते हैं. परन्तु हमें स्वीकार कर लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए की विदेशियों का यह हेय भाव केवल हमारे और हिन्दुओं के बीच नहीं है, सभी देशों में एक दूसरे के प्रति सामान रूप से व्याप्त है'.

4. बौद्धों का पाश्चात्य देशों से निष्कासन - हिन्दुओं और विदेशियों के बीच आरम्भ से व्याप्त भेदभाव व प्रतिद्वंदिता की भावना को प्रोत्साहन देने का एक अन्य कारण है की ब्राह्मणों से घृणा रखते हुए भी शमन्नियां ( अरबी भाषा में बौद्ध श्रमणों को शमन्नियाँ कहते हैं ) अन्य धर्मावलम्बियों की अपेक्षा उन्हीं के अधिक निकट हैं. पूर्ववर्ती समय में खुरासान, परसिस, इराक, मोसुल और सीरिया की सीमा तक के क्षेत्र में बौद्ध धर्म काफी जोरों पर था'.

4. हिन्दुओं का आत्मगौरव तथा विदेशी वस्तुओं से घृणा - 'स्वभावतः वे जो कुछ जानते हैं, उसे व्यक्तिगत थाती बना कर रखने की प्रवृति रखते हैं, और विदेशियों की बात तो दूर अपने ही देश के किसी अन्य जाती के लोगों से भी उसके छुपा रखने का प्रत्येक संभव प्रयत्न करते हैं. उनके विश्वास के अनुसार पृथ्वी पर उनके सामान कोई अन्य देश नहीं है, उनके सामान कोई अन्य जाति नहीं है, और उनके अतिरिक्त किसी अन्य देश या जाति के पास ना शास्त्र है ना ज्ञान. उनके गर्व की सीमा कहाँ तक है, इसे इस उदाहरण से भली भांति समझा जा सकता है - यदि उनसे खुरासान या परसिस के किसी विद्वान या शास्त्र का उल्लेख करें, तो वे ऐसी सूचना देने वाले को मूर्ख के साथ साथ झूठा कहने में भी संकोच नहीं करेंगे. यदि वे पर्यटन करते तथा अन्य राष्ट्रों के जन जीवन का परिचय प्राप्त करते तो उनके ह्रदय में इस मिथ्या आत्म गौरव की भावना निकल जाती. उनके पूर्वज वर्तमान पीढ़ी के सामान संकुचित मनोवृति वाले नहीं थे

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