अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए भीमराव अंबेडकर द्वारा किए गए प्रयास

 डॉ भीमराव अंबेडकर बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे एक महान बौद्धिक प्रतिभा के धनी थे - डॉक्टर अंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय न्यूयॉर्क से एम ए (1915), पीएचडी (1917), तथा लंदन से एमएससी (1922), विधि स्नातक तथा डीएससी (1923) की उपाधियां प्राप्त की। इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन के कालखंड में डॉक्टर अंबेडकर सर्वाधिक शिक्षित राष्ट्रीय नेता थे।

डॉक्टर अंबेडकर सामाजिक-राजनीतिक कर्मण्यवादी थे। उन्होंने एक सभा में निर्भीकतापूर्वक घोषणा की कि अनुसूचित जाति के लोग अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प के साथ राष्ट्र के स्वाधीनता संग्राम में भाग लेंगे।

डॉक्टर अंबेडकर प्रख्यात पत्रकार एवं संगठनकर्ता थे। उन्होंने अनेक पत्रों का संपादन भी किया।

डॉ. अंबेडकर ने दलित चेतना जागृत करने में अपना जीवन लगा दिया तथा दलितों को संवैधानिक आरक्षण दिलवाया। इसके साथ ही वे सामाजिक समरसता के पुरोधा भी थे।

डॉ भीमराव अम्बेडकर ने मार्च 1927 में महाड के चौबदार तालाब से पानी भरने के अधिकार के प्रश्न पर जल सत्याग्रह कर दलित वर्ग के सामाजिक समानता के अधिकार को पुनर्स्थापना का प्रथम सामूहिक अभियान चलाया।

उनके नेतृत्व में दलितों ने मार्च 1930 में भगवान कालाराम के प्रसिद्ध मंदिर (नासिक) में प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया। अंततः 1935 में पुजारियों ने मंदिर के द्वार अस्पृश्यों के लिए खोल दिए।

उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अपने 300000 अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी।

डॉक्टर अंबेडकर संस्कृत भाषा को भारत के ज्ञान, दर्शन और संस्कृति का मूल स्त्रोत मानते थे। उन्होंने संस्कृत को भारत की राजभाषा बनाने हेतु सितंबर 1949 में संविधान सभा में संशोधन प्रस्तुत किया था।

अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए भीमराव अंबेडकर द्वारा किए गए प्रयास

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे न केवल महान बौद्धिक प्रतिभा के धनी थे अपितु सामाजिक-राजनीतिक कर्मण्यवादी भी थे। उन्होंने अनुसूचित जातियों के कल्याण हेतु जो प्रयत्न किए उनका विवेचन निम्न बिंदुओं के आधार पर किया गया है -

1. विधान मंडलों में पृथक आरक्षण की व्यवस्था -सन 1918 में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के सामाजिक-राजनीतिक कर्म क्षेत्र में आगमन से अछूतोद्धार-दलितोंद्वार आंदोलन को नई दिशा और उत्तरोत्तर गति प्राप्त हुई। उन्होंने साउथबोरो समिति (1918) के समक्ष 23 जनवरी 1919 को बयान देते हुए कहा कि स्वशासन की सफलता के लिए दलित जातियों हेतु विधान मंडलों में आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

2. पत्रों के प्रकाशन द्वारा दलित चेतना पैदा करना - डॉक्टर अंबेडकर ने दलितों (अब अनुसूचित जाति) की सामाजिक वेदना को सख्त शब्दों में अभिव्यक्त करने तथा सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के संघर्ष को जनाधार प्रदान करने के लिए अनेक साप्ताहिक अथवा पाक्षिक पत्र - मूकनायक, बहिष्कृत भारत, जनता, समता और प्रबुद्ध भारत आदि प्रकाशित किए। इन सभी पत्रों का एक ही लक्ष्य था दलितों में समान नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए चेतना उत्पन्न करना।

3. विचारों का संस्थाकरण - उन्होंने अपने सामाजिक विचारों का संस्थाकरण करने के लिए 20 जुलाई 1924 के बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की जिसका प्रमुख संदेश था - "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो ।"
उन्होंने सर्वप्रथम 'ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेस कांग्रेस' का अधिवेशन 8 अगस्त 1930 को नागपुर में आयोजित किया। अध्यक्ष पद से डॉक्टर अंबेडकर ने स्वशासन के पक्ष में उद्बोधन करते हुए दलितों के लिए संयुक्त निर्वाचन प्रणाली सहित आरक्षण की मांग की।

उन्होंने जुलाई 1942 में 'ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन' की स्थापना की। इस संस्था का कार्यक्षेत्र सामाजिक होने के साथ-साथ राजनीतिक भी था।

4. सत्याग्रह - डॉक्टर अंबेडकर ने मार्च 1927 में महाड़ (जिला कोलाबा,महाराष्ट्र) के चौबदार तालाब से पानी भरने के अधिकार के प्रश्न पर महाड़ जल सत्याग्रह किया। डॉक्टर अंबेडकर ने इस अवसर पर कहा कि, "स्वतंत्रता किसी को उपहार के रूप में नहीं मिलती, इसके लिए संघर्ष किया जाता है। आत्म-उत्थान अन्य लोगों के आशीर्वाद से नहीं, अपितु अपने ही प्रयत्नों, संघर्ष और परिश्रम से होता है।"

भारत के सामाजिक इतिहास में सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता के अधिकार की पुनर्स्थापना के लिए दलित वर्ग का यह प्रथम सशक्त अभियान था।
दिसंबर 1927 को छत्रपति शिवाजी महाराज के जयघोष के साथ सामाजिक रूढ़िवाद की प्रतीक मनुस्मृति को सार्वजनिक रूप से जलाया।

उनके नेतृत्व में दलितों ने अपनी सामाजिक चेतना का विराट प्रदर्शन मार्च 1930 में भगवान कालाराम  मंदिर नासिक में सत्याग्रह करके किया। अंततः 1935 में पुजारियो ने मंदिरों के दरवाजे अस्पृश्यों के लिए खोल दिए।

5. दलितों के आरक्षण के लिए प्रयत्न - डॉक्टर अंबेडकर ने साइमन कमीशन (1928) और लंदन में आयोजित तीन गोलमेज सम्मेलनों (1930-32) में दलितों के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए पृथक निर्वाचन तथा आरक्षण पर बल दिया।

परिणामस्वरूप महात्मा गांधी के साथ पूना पैक्ट (1932) तथा भारतीय संविधान में अनुसूचित जाती तथा जनजाति के लिए संयुक्त निर्वाचन प्रणाली के साथ आरक्षण के प्रावधान डॉक्टर अंबेडकर के संघर्षशील जुझारू व्यक्तित्व की देन है।

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