बाल गंगाधर तिलक का जीवन परिचय, व्यक्तित्व ,सामाजिक एवं राजनीतिक विचार

तिलक एक महान पत्रकार, शिक्षक, लोकमान्य तथा स्वतंत्रता सेनानी थे। बालगंगाधर तिलक का जन्म 13 जुलाई 1856 में महाराष्ट्र के रत्नागिरी में हुआ था। इनके पिता नाम गंगाधर रामचंद्र तिलक था और माता का नाम पार्वती बाई गंगाधर था। 1871 में उनका विवाह तपिबाई कन्या से हुआ जो की बाद में सत्यभामा के नाम से जानी गई।

बाल गंगाधर तिलक ने संपूर्ण भारत व कांग्रेस को 'स्वराज्य का नया लक्ष्य' तथा उसे प्राप्त करने के लिए स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध जैसे अस्त्र प्रदान किए। उन्होंने महात्मा गांधी के आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की तथा "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" का नारा दिया‌ बाल गंगाधर तिलक को आधुनिक भारत का निर्माता, लोकमान्य और भारतीय राष्ट्रवाद का भागीरथ ऋषि कहा जाता है। 

तिलक महान विद्वान थे उनकी विद्वता का प्रमाण उनकी पुस्तकें 'द ओरियन', 'द आर्कटिक होम ऑफ द वेदाज', 'गीता रहस्य' है।

बाल गंगाधर तिलक के व्यक्तित्व एवं चिंतन पर प्रभाव

तिलक के व्यक्तित्व व चिंतन पर पड़े प्रभाव निम्न प्रकार हैं  -

1. पारिवारिक प्रभाव - बाल गंगाधर तिलक के परिवार का वातावरण नैतिकता, पवित्रता एवं धार्मिक निष्ठा से पूर्ण     था।

2. हिंदू दर्शन एवं चिंतन का प्रभाव - तिलक पर हिंदू दर्शन एवं चिंतन का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। उन्होंने गीता में निहित 'निष्काम कर्मयोग' को अपने व्यक्तित्व एवं सार्वजनिक जीवन का आधार बनाया। आत्मा की अमरता में विश्वास करते हुए शारीरिक एवं अलौकिक कष्टों की परवाह नहीं की। उन्होंने प्राचीन भारत की महानता एवं गौरव को पुनः स्थापित करने के लिए स्वराज की स्थापना पर बल दिया और ब्रिटिश राज का विरोध किया।

3. शिवाजी का प्रभाव - तिलक मध्यकालीन भारत के महान नायक शिवाजी के चरित्र से भी प्रभावित थे।'शिवाजी उत्सव' का आयोजन करके उन्होंने आधुनिक राष्ट्रवाद का प्रेरणा स्रोत बना दिया।

4. पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन का प्रभाव - तिलक पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन से भी प्रभावित दिखाई देते हैं। डमंड बर्क के इस मत से वे प्रभावित हैं कि किसी राष्ट्र का पुनः निर्माण उस राष्ट्र की प्राचीन परंपराओं की उपेक्षा करके नहीं किया जाना चाहिए। वे मैजिनी और गैरीबाल्डी के त्याग को भारतीयों के लिए अनुकरणीय मानते थे। उनके लोकतंत्र संबंधी विचारों पर भी पश्चिमी चिंतन का प्रभाव दिखाई देता है।

बाल गंगाधर तिलक के सामाजिक विचार

बाल गंगाधर तिलक तत्कालीन सामाजिक दशा से असंतुष्ट थे परंतु ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा समाज सुधार के क्षेत्र में पहल एवं हस्तक्षेप को उचित नहीं मानते थे। वे सामाजिक सुधारों से पहले राजनीतिक स्वराज्य चाहते थे। सामाजिक सुधार, तिलक के शब्दों में, "हिंदू समाज का आंतरिक मामला था।" इसलिए समाज सुधारो का आधार कानूनी बाध्यता नहीं वर्णन सहमति होना चाहिए।

अतः सामाजिक सुधारों से पहले सामाजिक जागृति उत्पन्न होनीे चाहिए। सुधारों का आधार, स्वदेशी मूल्य ही होने चाहिए, पाश्चात्य मूल्य नहीं।

तिलक बाल विवाह के घोर विरोधी थे और स्त्री शिक्षा व विधवा उद्धार के भी पूर्ण समर्थक थे। वह सभी जातियों एवं संतों के व्यक्तियों के साथ खान-पान रखते थे। उन्होंने शिवाजी उत्सवों में दलित वर्ग के व्यक्तियों को सम्मानपूर्वक शामिल किया। उन्होंने अपनी पुत्रियों को शिक्षित किया और 16 वर्ष की आयु के बाद उसका विवाह किया।

बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार

1. व्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी विचार - स्वतंत्रता का मूल अर्थ है- 'स्व' पर अपने तंत्र की स्थापना। तिलक ने स्वतंत्रता को आत्म विकास का एक साधन स्वीकार किया। उन्होंने जॉन लॉक के समान स्वतंत्रता को व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार स्वीकार किया। इसलिए उन्होंने स्वतंत्रता को जन्मसिद्ध अधिकार बताया। उनके विचार ने भारतीयों को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया।

2. स्वराज्य का विचार - प्रत्येक राष्ट्र को राजनीतिक स्वतंत्रता ही उनके स्वराज्य का अर्थ है। ब्रिटिश शासन की स्थापना से भारत में जीवन के सभी क्षेत्रों में निरंतर पतन हो रहा था। इस स्थिति से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय भारतीयों को पुनः राजनीतिक स्वराज्य प्राप्त करना था। इसलिए तिलक ने अपने अड़ींग संकल्प को दोहराते हुए ब्रिटिश सरकार को चुनौती के स्वर में कहा, "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।"

तिलक के स्वराज्य संबंधी चिंतन पर 'वैदिक स्वराज्य' एवं 'शिवाजी के हिंदू पद पादशाही' का प्रभाव दिखाई देता है। तिलक का उद्देश्य भारत में ऐसे स्वराज्य की स्थापना करना था जो भारत को पुनः उसका गौरव दिलाने में समर्थ हो।
बाल गंगाधर तिलक के स्वराज्य के, आध्यात्मिक एवं राजनीतिक दो स्वरूप स्वीकार किए हैं‌। तिलक मानते थे कि अंग्रेजों के समान सभी देशों की जनता का यह प्राकृतिक अधिकार है कि वह अपने-अपने देशों पर शासन स्थापित करें।

सन 1914 की विशिष्ट राजनीतिक परिस्थितियों के प्रसंग में तिलक स्वराज्य की व्याख्या होमरूल के रूप में की। किंतु अधिकांश विद्वानों का मत है कि इस काल में भी उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता के विचार का परित्याग नहीं किया था।
तिलक पर हिंदूवादी या मुस्लिम विरोधी होने का आरोप भी लगाया जाता है, लेकिन यह उचित नहीं है। 

तिलक ने स्वयं घोषित किया था, "मैं जिस स्वराज्य की मांग कर रहा हूं, वह मात्र हिंदुओं, मुसलमानों अथवा किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं होगा वरना वह संपूर्ण भारतीय समुदाय के लिए होगा।"

3. साधन संबंधी विचार - जहां गोखले यह स्वीकार करते थे कि साध्य के साथ ही साधनों की पवित्रता भी अनिवार्य है, वहीं तिलक की दृष्टि में स्वराज की प्राप्ति एवं पवित्र साध्य था और इसकी प्राप्ति के लिए साधनों की पवित्रता का उनका कोई आग्रह नहीं है। इसकी प्राप्ति के लिए उन्होंने गरमपंथी राजनीति के साधन अपनाए, जिन्हें वे 'खुले राजनीतिक साधन' भी कहते हैं।

तिलक ने उग्रवादी राजनीतिक साधनों के अंतर्गत ऐसे सभी राजनीतिक साधनों को स्वीकार किया जो कानूनी दृष्टि से हिंसक एवं अवैध नहीं थे। उन्होंने प्रमुख रूप से चार साधनों का स्वराज प्राप्ति के लिए समर्थन किया - स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा एवं निष्क्रिय प्रतिरोध।

बाल गंगाधर तिलक का विश्वास था कि इनकी मदद से भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति भय समाप्त किया जा सकता था तथा बलिदान के लिए प्रेरित करके राज्य प्राप्त किया जा सकता था।

4. प्राचीन भारत के गौरव से प्रभावित राष्ट्रवाद - भारतीय राष्ट्रवाद को एक निश्चित व मूर्त अवधारणा बनाने का श्रेय तिलक को दिया जा सकता है। तिलक राष्ट्रवाद को भारतीय परंपराओं, भावनाओं एवं परिस्थितियों के अनुरूप ही विकसित करना चाहते थे। तिलक 'स्वदेशी राष्ट्रवाद' के समर्थक थे। तिलक का मत था, "हम अपनी संस्थाओं का अंग्रेजीकरण नहीं करना चाहते।"

तिलक 'हिंदू राष्ट्र' के विचार को प्रस्तुत किया और हिंदुओं को संगठित करने के लिए गणेश उत्सव एवं शिवाजी उत्सव को प्रारंभ किया। परंतु शीघ्र ही उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता को आधार बनाया और समस्त भारतीयों के लिए स्वराज्य की मांग की। इसलिए तिलक ने समस्त भारतीयों के आर्थिक हितों की एकता एक राष्ट्रभाषा हिंदी, क्षेत्रीय भाषाओं के लिए देवनागरी को सामान्य लिपि बनाने का विचार प्रस्तुत किया। तिलक ने राष्ट्रवाद को राष्ट्रधर्म कहा।

तिलक का राष्ट्रवाद बहु-आयामी था। यह एक साथ ही धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक था। राष्ट्रवाद द्वारा भारत के संपूर्ण जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते थे। तिलक प्रथम राजनेता थे, जिन्होंने राष्ट्रवाद को उसकी संपूर्णता में प्रकट किया। अतः तिलक द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रवाद 'समग्र राष्ट्रवाद' कहलाता है।
बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीय आंदोलन के एक नए उग्रवादी युग को प्रारंभ किया। उन्होंने राजनीति में यथार्थवादी एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण का समर्थन किया। इसलिए उन्हें 'आधुनिक कौटिल्य' भी कहा जाता है।

वैलेंटाइन शिरोल तिलक को 'भारतीय अशांति का जनक' बताते हैं, लेकिन उन पर यह आरोप लगाना अनुचित है क्योंकि तिलक उग्रपंथी अवश्य थे, परंतु उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा कभी नहीं लिया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रति सशस्त्र क्रांति की कोई योजना बनाई हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।

एक महान कर्मयोगी - तिलक महान कर्मयोगी थे, जो अंतिम सांस तक स्वराज्य के लिए संघर्षरत रहे। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल (मांडले, बर्मा) बंद कर मिटाने का प्रयास किया परंतु वे अपने लक्ष्य की ओर और दुगुने जोश से बढ़ते रहे।

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