गयासुद्दीन बलबन का वास्तविक नाम बहाउद्दीन बलबन था। उसके पिता एक बड़े कबीले के मुखिया थे। वह एक इल्बरी तुर्क था। किशोरावस्था में ही मंगोलों ने उसे बन्दी बना लिया और बगदाद ले गये। जहाँ उन्होंने बलबन को एक गुलाम के रूप में ख्वाजा जमालुद्दीन बसरी नामक एक दासों के व्यापारी को बेंच दिया। जमालुद्दीन बसरी उसे दिल्ली लाया। जहाँ इल्तुतमिश ने 1233 ई. में ग्वालियर विजय के बाद खरीद लिया। कुछ समय बाद इल्तुतमिश ने उसे खासदार (सुल्तान का व्यक्तिगत सेवक) का पद प्रदान किया। रजिया सुल्तान के शासन काल में उसे अमीर-ए-शिकार का पद प्राप्त हुआ।
जब रजिया सुल्तान और बहराम शाह के बीच सत्ता का संघर्ष हुआ, बलबन ने बहरामशाह का पक्ष लिया फलस्वरूप उसे अमीर-ए-आखूर का पद व रेवाड़ी की जागीर मिली। इसी प्रकार उसने बहरामशाह को गद्दी से हटाने में मसूदशाह की सहायता की। जिसके कारण मसूदशाह ने उसे अमीर-ए-हाजिब का पद और हांसी की सूबेदारी प्रदान की। इसी समय उसने मंगोलों को पराजित कर कच्छ पर अधिकार कर लिया। जिससे बलबन की शक्ति और प्रतिष्ठा दोनों में वृद्धि हुई। जब मसूदशाह और नासिरुद्दीन महमूद के बीच सत्ता के लिए संघर्ष हुआ। तब बलबन ने नासिरुद्दीन का साथ दिया। सुल्तान बनने के बाद नासिरुद्दीन महमूद ने बलबन को नाइब -ए-मुमलिकात का पद और 'उलुग खां' की उपाधि प्रदान की।नासिरुद्दीन के समय में शासन की समस्त शक्ति बलबन के हाथों में थी। अगस्त 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नासिरुद्दीन महमूद से कर दिया।
गयासुद्दीन बलबन के कार्य
1. नाइब-ए-मुमलिकात के रूप में बलबन के कार्य
नाइब का पद प्राप्त करने के बाद बलबन ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया। इसके लिए उसने तीन सूत्रीय नीति अपनाई-1. विरोधी तुर्क अमीरों दमन- बलबन के तीन प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे-इमामुद्दीन रैहान, कुतुलुग खां व किश्लू खां। बलबन ने इनका सफलता पूर्वक दमन किया।
2. मंगोल आक्रमण से रक्षा- दिल्ली के विद्रोही सरदार किश्लू खां ने मंगोल नेता हलाकू खां तथा अवध के सूबेदार कुतलुग खां के सहयोग से दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयास किया। किन्तु बलबन ने हलाकू खां से समझौता कर उसके इस प्रयास को विफल कर दिया। बलबन ने कूटनीति, प्रशासनिक कुशलता व सैन्य संचालन से दिल्ली की मंगोल आक्रमण से रक्षा की।
3. हिन्दू राजाओं की शक्ति को रोकना- दिल्ली सल्तनत के कमजोर उत्तराधिकारियों की दुर्बलता का लाभ उठाकर, हिन्दू राजा अपनी शक्ति पुनः सुदृढ़ करने लगे। किन्तु बलबन ने अपने सैन्य संचालन से उनके इस प्रयास को विफल कर दिया। उसने बुंदेलखंड तथा बघेलखण्ड के चन्देल शासकों का उत्तर की ओर विस्तार रोक दिया। 1251 ई. में चंदेरी, नारनौल व मालवा पर अधिकार कर लिया।
2. सुल्तान के रूप में बलबन के कार्य
बलबन योग्य, साहसी व दूरदर्शी था। राज्य की कठिनाइयों को दूर करने के लिए उसने साम्राज्य विस्तार के स्थान पर आंतरिक संगठन पर अधिक बल दिया। इसके लिए उसने निम्नलिखित कदम उठाये-1. राजत्व के सिद्धान्त की स्थापना- बलबन दिल्ली का प्रथम सुल्तान था, जिसने अपने राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्तों की स्थापना की और इन सिद्धान्तों की विस्तार पूर्वक व्याख्या की। उसके राजत्व सिद्धान्त के अनुसार, राजा को राजवंश से सम्बन्धित होना चाहिए। राजत्व को दैवीय संस्था मानते हुए उसने कहा कि राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि (नियाबत-ए-खुदाई) होता है। अतः उसका स्थान केवल पैगम्बर के पश्चात है।
बलबन के अनुसार राजत्व के लिए दिखावटी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा का होना आवश्यक है। उसने ईश्वर, शासक और जनता के बीच त्रिपक्षीय सम्बन्धों को राजत्व का आधार बनाया।
2. तुर्कान-ए-चिहलगानी का दमन- इल्तुतमिश द्वारा बनाये गए चालीसा दल अर्थात तुर्कान-ए-चिहलगानी का दमन निरंकुश सत्ता स्थापित करने के लिए आवश्यक था। शासक बनने से पूर्व बलबन खुद इस दल का सदस्य था। वह इस दल की शक्ति से परिचित भी था। वह अच्छी तरह से जनता था कि सुल्तान की प्रतिष्ठा और उसके वंश की सुरक्षा के लिए इस गुट का समाप्त होना आवश्यक है। इसके लिए उसने अन्य तुर्को को महत्वपूर्ण पद देकर चालीसा सरदारों के समकक्ष बनाया। तत्पश्चात उसने चालीसा दल के सदस्यों को साधारण अपराध के लिए कठोर दण्ड दिया। शेर खां जो चालीसा दल का प्रमुख सदस्य था। बलबन के उसे विष देकर मरवा दिया। अन्य सरदारों को भी उसने किसी न किसी तरह मरवा दिया। इस तरह चालीसा दल को उसने पूरी तरह नष्ट कर दिया।
3. आन्तरिक विद्रोहों का दमन- सम्राट पद की प्रतिष्ठा स्थापित करने और केन्द्रीय प्रशासन को संगठित करने के बाद बलबन ने आन्तरिक विद्रोहों की ओर ध्यान दिया। कानून व व्यवस्था की दृष्टि से बलबन के समक्ष प्रमुख रूप से चार समस्याग्रस्त क्षेत्र थे
- दिल्ली का निकटवर्ती क्षेत्र जहां मेवातियों का आतंक था। वे नगर के आसपास लूटपाट करते थे। बलबन ने मेवातियों के आतंक दमन करने के लिए दिल्ली के आसपास के जंगलों को कटवा दिया। गोपालगिरी में एक दुर्ग का निर्माण करवाया तथा कई थाने स्थापित किये।
- गंगा-यमुना का दोआब क्षेत्र के लोग जो सुल्तान की सत्ता को निरन्तर चुनौती दे रहे थे। इनके दमन के लिए बलबन ने दोआब क्षेत्र के नगर व प्रदेशों को उन इक्तादारों को प्रदान किये जिनके पास अधिक धन था। उसने आदेश दिया जिस गांव के लोग सुल्तान की सत्ता को नहीं मानते उन्हें पूरी तरह नष्ट कर दिया जाये।
- अवध का व्यपारिक मार्ग जिसे अवध डाकू व विद्रोही बन्द किये थे। इनका दमन करने के लिए बलबन स्वयं गया। यहां पर वह 6 माह रुका और डाकुओं एवं विद्रोहियों का पूरी तरह सफाया किया।
- बंगाल विद्रोह का दमन--1279 ई. बंगाल के राज्यपाल तुगरिल खां बलबन के विरुद्ध विद्रोह कर बंगाल को स्वतंत्र घोषित कर दिया। वह सुल्तान मुगीसुद्दीन की उपाधि लेकर बंगाल की गद्दी पर बैठा। इस विद्रोह को कुचलने के लिए बलबन ने पहले अमीन खां उसके बाद बहादुर को भेजा। किन्तु दोनों ही असफल रहे। अतः इस बलबन ने स्वयं इस विद्रोह को दबाने का निश्चय किया। तुगरिल खां भागकर जंगलों में छिप गया। किन्तु मलिक मुकद्दीर ने उसे पकड़कर उसकी हत्या कर दी। बलबन ने खुश होकर मुकद्दीर की "तुगरिलकुश" की उपाधि प्रदान की।