चिंतन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है और यह हमारे मस्तिष्क में चलती रहती है। चिंतन में अनेक आन्तरिक क्षमताओं का उपयोग होता रहता है, जैसे-कल्पना, एकाग्रता, जागरूकता, स्मृति, समझ और अवलोकन आदि। ये सभी आन्तरिक क्षमताएं चिंतन की प्रक्रिया में सहभागी एवं सहयोगी बनती है। चिंतनशक्ति की स्पष्टता एवं विकास के लिए पृथकता से विचार करना अपेक्षित है।
चिंतन की परिभाषा
डाॅ. एस.एन. शर्मा ने वारेन के द्वारा चिंतनके संदर्भ में दी गई परिभाषा को अपने शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- ‘‘चिंतन एक विचारात्मक प्रक्रिया है जिसका स्वरूप प्रतिकात्मक है, इसका प्रारंभ व्यक्ति के समक्ष किसी समस्या अथवा क्रिया से होता है, परन्तु समस्या के प्रत्यक्ष प्रभाव से प्रभावित होकर अंतिम रूप से समस्या सुलझाने अथवा उसके निष्कर्ष की ओर ले जाती है।
आइजनेक एवं उनके साथियों (1972) के अनुसार कार्यात्मक परिभाषा के रूप में चिंतन काल्पनिक जगत में व्यवस्था स्थापित करना है। यह व्यवस्था स्थापित करना वस्तुओं से सम्बन्धित होता है तथा साथ ही साथ वस्तुआ के जगत की प्रतिकात्मता से भी सम्बन्धित होता है। वस्तुओं में सम्बन्धों की व्यवस्था तथा वस्तुओं में प्रतीकात्मक सम्बन्धों की व्यवस्था भी चिंतन है।
चिंतन के प्रकार
मनोवैज्ञानिकों ने चिंतन के निम्न प्रकार बताये हैं-1. प्रत्यक्षात्मक चिंतन - इस प्रकार का चिंतन पशुओं और छोटे बालकों में पाया
जाता है। इस प्रकार के चिंतन का मुख्य आधार प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसमें संवेदना और प्रत्यक्षीकरण कार्य करते
हैं। व्यक्ति किसी वस्तु या परिस्थिति को देखकर चिंतन करता है। इसमें किसी प्रकार के शब्द या नाम का प्रयोग
नहीं किया जाता। इस प्रकार का चिंतन पूर्व अनुभवों पर आधारित होता है।
उदाहरणार्थ, एक बार आग से जला हुआ
बालक पुनः जब आग देखता है तब भयभीत हो जाता है। इसी प्रकार बालक जब कक्षा में गृह कार्य नहीं करके
ले आता तो उसे दण्ड मिलने का भय होता है, उसके भयभीत होने में चिंतन आ जाता है।
2. कल्पनात्मक चिंतन- इसमें प्रत्यक्ष वस्तुओं के न रहने पर भी प्रयत्नों के सहारे उन वस्तुओं की कल्पना की जाती है। इस प्रकार के चिंतन में कोई वस्तु या परिस्थिति प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं रहती। इसमें प्रत्यक्ष का अभाव होता है। इसमें स्मृति के सहारे पूर्व अनुभवों का प्रयोग किया जाता है और मानसिक प्रतिमाओं के माध्यम से चिंतन होता है।
2. कल्पनात्मक चिंतन- इसमें प्रत्यक्ष वस्तुओं के न रहने पर भी प्रयत्नों के सहारे उन वस्तुओं की कल्पना की जाती है। इस प्रकार के चिंतन में कोई वस्तु या परिस्थिति प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं रहती। इसमें प्रत्यक्ष का अभाव होता है। इसमें स्मृति के सहारे पूर्व अनुभवों का प्रयोग किया जाता है और मानसिक प्रतिमाओं के माध्यम से चिंतन होता है।
उदाहरणार्थ रोज शाम को घर लौटने पर पिता बालक के लिए
कोई-न-कोई खाने की वस्तु लेकर आता है इसलिए बालक शाम होते ही पिता की प्रतीक्षा और वस्तु की प्राप्ति हेतु
चिंतन करने लगता है। यह कल्पनात्मक चिंतन है।
3. प्रत्ययात्मक चिंतन - प्रत्ययात्मक चिंतन में पूर्व निर्मित का प्रयोग किया जाता है। यह चिंतन का सर्वोच्च रूप है।प्रत्ययात्मक चिंतन में भाषा ज्ञान आवश्यक है। प्रत्ययात्मक चिंतन के स्वरूप को समझने के लिए ‘प्रत्यय ज्ञान’ को भी समझना आवश्यक है।
4. तार्किक चिंतन - यह सर्वोत्कृष्ट चिंतन है। चिंतन की जटिल प्रक्रिया को समझने के लिए प्रत्यय निर्माण, तर्क तथा समस्या समाधान के विषय में अध्ययन करना आवश्यक है।
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