हीगल कौन थे, हीगल का जन्म कब हुआ था?

हीगल (1770-1831) एक महान् द्वन्द्ववादी विचारक थे जिनकी सृजनात्मक उपलब्धियां दार्शनिक और राजनीतिक विधिक चिन्तन के समूचे इतिहास में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनका नाम जर्मन आदर्शवादी परम्परा के मूल प्रवर्तकों में काण्ट के पश्चात लिया जाता है। उसके ग्रन्थों में राजनीतिक आदर्शवाद अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया।

हीगल का जन्म जर्मनी के एक नगर स्टुटगार्ट में सन् 1770 में हुआ था। उनके पिता वैर्टमबग एक सरकारी पदाधिकारी थे। उसका पिता हीगल को धर्मशास्त्र का विद्वान बनाना चाहता थे और इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु धार्मिक विद्यालय में उसे भर्ती करवाया गया। हीगल स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही प्राचीन यूनानी रोमन इतिहास तथा साहित्य में रुचि लेने लग गए थे। 1789-1802 में उन्होंने अपना काफी समय राजनीति तथा विधि से सम्बन्धित एक विशद ग्रन्थ ‘जर्मनी का संविधान’ की रचना को भी समर्पित किया, जो अधूरा ही रह गया और उनके जीवन काल में प्रकाशित न हो पाया। येना में बिताए गए वर्षों की एक अन्य रचना ‘नैतिकता की पद्धति’ में हीगल नैतिकता को अमूर्त व्यक्ति, परिवार तथा आचार जैसे तत्वों का समन्वय बताते हैं। 

हीगल के 1805-1806 के व्याख्यानों का संग्रह ‘येना का यथार्थ दर्शन’ उनकी दर्शन पद्धति का प्रथम आभास देता है।

हीगल के दर्शन का आधार स्तम्भ है-‘विश्वात्मा की अवधारणा’ और विश्वात्मा की विशेषताएँ हैं-सतत् गतिशीलता। अतः ‘विश्वात्मा’ की इस स्वतः प्रेरित गतिशीलता को अभिव्यक्त करने वाली पद्धति को उसने ‘द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया’ का नाम दिया है। उसने अपने समस्त दार्शनिक और राजनीतिक सिद्धांतों को द्वन्द्वात्मक पद्धति की पृष्ठभूमि पर आधारित किया।

सभ्यता के विकास क्रम को द्वन्द्वात्मक पद्धति के अनुसार समझाते हुए हीगल कहता है कि सबसे पहले प्रत्येक वस्तु का मौलिक रूप होता है जो वाद के रूप में होता है। विकसित होने की प्रकृति के कारण धीरे-धीरे यह विकसित होकर अपने में निहित अन्तविरोधों के कारण अपने विपरीत रूप को जन्म देता है जो उसके प्रतिवाद का रूप ग्रहण कर लेता है विकास की प्रक्रिया बराबर जारी रहती है, अतः प्रारम्भ में इन दोनों रूपों में संघर्ष होता है जिससे अन्ततः उसमें समन्वय एवं सन्तुलन स्थापित होता है और वह संवाद के रूप में प्रकट होता है। यह संवाद, वाद और प्रतिवाद दोनों का समन्वित रूप होने के कारण इन दोनों से विकास की उच्च स्थिति का द्योतक होता है, लेकिन विकास की प्रक्रिया यहां आकर रुकती नहीं वरन् निरन्तर जारी रहती है।

हीगल की स्वतन्त्राता संबंधी धारणा वैयक्तिक न होकर सामाजिक नीतिशास्त्रा पर आधारित है। हीगल ने इसे भी राज्य की धारणा की ही भांति आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है।

इस प्रकार हीगल ने राज्य को वस्तुगत तथा आत्मगत स्वतन्त्रता कहा है। वह व्यक्ति की सच्ची स्वतन्त्रता तथा आदर्श इच्छा का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता वरन् उन्हें सुरक्षित भी करता है, अतः राज्य और व्यक्ति के उद्देश्य समान हैं। राज्य की इच्छा में सदैव व्यक्ति की वास्तविक अथवा आदर्श इच्छा निहित रहती है, अतः दोनों में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। जब कभी राज्य की इच्छा और व्यक्ति की इच्छा में विरोध दिखाई देता है, तब वास्तव में वह विरोध दोनों ही वास्तविक, इच्छाओं से नहीं होता, व्यक्ति की स्वार्थपरता तथा अपूर्णता के कारण हमें दोनों में विरोध प्रतीत होता है।

हीगल के मतानुसार राज्य का प्रकटीकरण तीन रूपों में होता है। 1. संविधान, 2. अन्तरर्राष्ट्रीयता सम्बन्ध तथा 3. विश्व इतिहास।

संविधान के अन्तर्गत उसने तीन प्रकार की सत्ताएँ बतलायीं-विधायिका, कार्यपालिका और राजा। अपने पूर्ववर्ती लाॅक और माण्टेस्क्यू की भांति हीगल भी सत्ताओं के पृथक्करण की संकल्पना को एक राजनीतिक आदर्श के रूप में सांविधानिक राजतन्त्र का औचित्य सिद्ध करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, किन्तु लाॅक और माण्टेस्क्यू से मतभेद दिखाते और फ्रांसीसी क्रान्ति के दिनों में सत्ताओं के पृथ्थकरण के विचार को जिस ढंग से इस्तेमाल किया गया था, उसकी आलोचना करते हुए हीगल सत्ताओं की स्वायत्तता और उनके परस्पर नियन्त्रण की अवधारणा को भ्रामक बताते हैं, क्योंकि उसमें इन सत्ताओं के बीच परस्पर द्वेष, परस्पर अविश्वास और एक-दूसरे के विरुद्ध कार्य करने की कल्पना की गयी है।

हीगल जन-सम्प्रभुता के जनवादी सिद्धांत की आलोचना करते हैं और उसके स्थान पर वंशागत सांविधानिक राजा आवश्यक मानता था, क्योंकि उसकी दृष्टि में सम्राट के अभाव में एकता स्थापित नहीं की जा सकती।

कार्यपालक सत्ता को परिभाषित करते हुए हीगल कहते हैं कि यह फ्विशेष क्षेत्रों और अलग-अलग मामलों को एक सामान्य सूत्रा में पिरोने वाली सत्ता है। इस सत्ता का, जिसमें हीगल पुलिस और न्याय प्रशासन को भी सम्मिलित करते हैं, कार्य सम्राट के निर्णयों को क्रियान्वित करना, प्रचलित कानूनों पर अमल करवाना और विद्यमान संस्थाओं को बनाये रखना है।

राजकर्मचारियों के समुदाय की प्रशंसा करते हुए हीगल उसे ‘वैधता तथा बौद्धिकता के मामले में राज्य का मुख्य अवलम्ब कहते हैं।

काण्ट में एक प्रकार का द्वैतवाद है। उसने केवल दृश्य जगत् की वस्तुओं को ही बुद्धिगम्य माना था। उसके अनुसार इस जगत के मूल में जो सत्य है वह बुद्धिगम्य नहीं है। उसका आभास हमें व्यावहारिक बुद्धि द्वारा ही होता है। हीगल ने इस विचारधारा का खण्डन किया। उसके अनुसार यदि मूल वस्तु अज्ञात है तो उसकी कल्पना करना ही व्यर्थ है तथा उसका आभास हो ही कैसे सकता है? साथ ही यह कहना कि कोई वस्तु अज्ञात है इस बात को सूचित करता है कि वह वस्तु पूर्ण अज्ञात नहीं है, अन्यथा यह कहा ही नहीं जा सकता कि वह वस्तु अज्ञात है। हीगल ने इस तर्क द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि सभी कुछ बुद्धि द्वारा जाना जा सकता है। संक्षेप में, हीगल अद्वैतवादी था, वह जड़ जगत की पृथव्फ सत्ता नहीं मानता। वह जड़-चेतन सभी वस्तुओं को विश्वात्मा का रूप मानता है।

दोनों की पद्धतियां भिन्न-भिन्न हैं। काण्ट ने विश्लेषणात्मक तथा निगमनात्मक पद्धति द्वारा ज्ञान पर बल दिया था, जबकि हीगल ने ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक पद्धति का सहारा लिया।

सेबाइन के शब्दों में, फ्हीगल के राजनीतिक दर्शन में दो तत्व सबसे महत्वपूर्ण थे। इनमें से एक तत्व तो द्वन्द्वात्मक पद्धति का था। इसके द्वारा हीगल ने सामाजिक अध्ययनों में वुफछ नवीन परिणाम निकाले। ये परिणाम ऐसे थे जो अन्यथा सामने नहीं आ सकते थे। दूसरा तत्व राष्ट्रीय राज्य का था। हीगल राष्ट्रीय राज्य को राजनीतिक शक्ति का सजीव प्रतीक मानता था। हीगल के बाद ये दोनों ही सिद्धांत बहुत अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुए।

हीगल की विचारधारा में नेपोलियन के युद्धों की समाप्ति के समय की जर्मनी की अवस्था का, फ़्रांस के हाथों उसके कटु राष्ट्रीय अपमान का और जर्मन संस्कृति की महत्ता तथा एकता के अनुसार ही राष्ट्रीय एकता का निर्माण करने के लिए उसकी महत्वाकांक्षा का अच्छा चित्रण मिलता है।

हीगल के दर्शन में आधुनिक राजनीतिक चिन्तन का प्रस्पुफटन स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जा सकता है। सेबाइन के शब्दों में हीगल का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक था और उसके दर्शन में न केवल आधुनिक चिन्तन पूरी तरह व्याप्त था बल्कि वह आधुनिक चिन्तन का समाकलन भी था और संसिद्धि भी।

उसने द्वन्द्वात्मक पद्धति के रूप में वैज्ञानिक खोज का एक ऐसा उपकरण तैयार करने की कोशिश की जो ‘संसार में ईश्वर की यात्रा’ को प्रमाणित कर सके। उसने अपरिवर्तनशील प्राकृतिक विधि की व्यवस्था के स्थान पर इतिहास में निरपेक्ष के विवेकयुक्त उद्घाटन को प्रतिष्ठित किया।

हीगल द्वारा प्रस्तुत द्वन्द्वात्मक पद्धति विश्व में होने वाले परिवर्तनों को समझने के लिए एक नवीन एवं मौलिक दार्शनिक उपकरण है। उसने विकासवादी प्रक्रिया से प्रगति के विचार पर बल देते हुए यह प्रतिपादित किया कि हम किसी वस्तु के यथार्थ रूप को उसके विरोधी रूप से उसकी तुलना करके ही जान सकते हैं।

हीगल को राष्ट्रीय राज्य का जनक माना जाता है। राष्ट्रवाद को धर्म की भांति एक विश्वास तथा मत का रूप देने में हीगल के विचारों ने भारी योगदान किया है।

हीगल का चिन्तन एक ऐसा बीज था जिसने आगे चलकर उन्नीसवीं शताब्दी में सामाजिक दर्शन के प्रत्येक पक्ष पर प्रभाव डाला। 

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