हिन्दी भाषा शिक्षण की विधियाँ

 

हिन्दी भाषा शिक्षण की विधियाँ

हिन्दी भाषा शिक्षण की निम्नलिखित विधियाँ है -

1. हिन्दी भाषा शिक्षण की प्रत्यक्ष विधि

हिन्दी भाषा शिक्षण की प्रत्यक्ष विधि का मुख्य सिद्धांत यह है कि जिस प्रकार बालक सुनकर एवं अनुकरण के द्वारा मातृ भाषा सीख जाता है, उसी प्रकार वह दूसरी भाषा भी सीख सकता है। भाषा शिक्षण की प्रत्यक्ष विधि का मुख्य सिद्धांत यह है कि जिस प्रकार बालक सुनकर एवं अनुकरण के द्वारा मातृ भाषा सीख जाता है, उसी प्रकार वह दूसरी भाषा भी सीख सकता है। भाषा शिक्षण की प्रत्यक्ष विधि का मुख्य सिद्धांत यह है कि जिस प्रकार बालक सुनकर एवं अनुकरण के द्वारा मातृ भाषा सीख जाता है, उसी प्रकार वह दूसरी भाषा भी सीख सकता है। कहने का तात्पर्य है कि बातचीत और मौखिक अभ्यास द्वारा दूसरी भाषा सिखानी चाहिए। 

व्याकरण के नियम पर बिना बल दिए वास्तविक परिस्थितियों में भाषा के व्यवहारिक रूपों को सहज रूप से सिखाना ही प्रत्यक्ष विधि की विशेषता है।

इस विधि से व्याकरण अनुवाद विधि के दोष अपने आप दूर हो जाते हैं। व्याकरण की सहायता इस विधि में नहीं ली जाती है। जहां उसकी आवश्यकता पड़ती है और वहां भी उसके व्यवहारिक रूप पर ही बल दिया जाता है। अनुवाद का सहारा भी इस विधि में नहीं लिया जाता। दूसरी भाषा सिखाने में उसी भाषा का माध्यम अपनाया जाता है, अतः अनुवाद की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

इस विधि में चित्रों एवं शिक्षण सहायक सामग्रियों का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है। शब्दार्थ भी प्रयोग के माध्यम से ही बालकों को बता दिया जाता है। मातृभाषा का प्रयोग न के बराबर होता है। पाठ भी वास्तविक जीवन की परिस्थितियों जैसे परिवार, वेशभूषा, खान-पान, व्यवसाय, त्यौहार, उत्सव, रीति रिवाज, यात्रा आदि से संबंधित होते हैं।

बातचीत और मौखिक अभ्यासों के द्वारा शिक्षा प्रदान करने से उस भाषा के दो आधारभूत कौशलों - सुनने और बोलने को सीखने का पर्याप्त अवसर मिलता है तथा उस भाषा की ध्वनियों एवं उच्चारण से बालक सहज ही परिचित हो जाता है।

प्रत्यक्ष विधि के प्रतिपादकों का कहना है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में सीधा संबंध होना चाहिए, बीच में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। अतः शब्द का अर्थ उस शब्द के द्योतक वस्तु को प्रत्यक्ष दिखाकर ही समझाया जाता है। परन्तु इस विधि में कठिनाई यह है कि कुछ संज्ञा शब्दों जैसे पुस्तक, घड़ी, कलम गेंद, कागज, कुर्सी, मेज, लड़का-लड़की आदि का ज्ञान तो करा दिया जाता है पर भाववाचक शब्दों, विशेषणों एवं रचनात्मक शब्दों के ज्ञान में बड़ी कठिनाई होती है।

इस विधि में दूसरी कठिनाई यह है कि वाक्य संरचनाओं का भी पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं कराया जा सकता। प्रश्नोत्तर विधि द्वारा कुछ गिने चुने वाक्यों की संरचना तो बता दी जाती है पर सभी प्रकार की वाक्य संरचनाओं का ज्ञान कराना बहुत कठिन है।

हिन्दी भाषा शिक्षण  की प्रत्यक्ष विधि की प्रमुख विशेषताएं -

  1. वस्तु और शब्द के मध्य सीधा संबंध स्थापित कर पढ़ाया जाता है।
  2. प्रत्यक्ष विधि वार्तालाप पर बल देती है।
  3. संज्ञा शब्दों के ज्ञान हेतु प्रत्यक्ष विधि सर्वोत्तम विधि है।
  4. प्रत्यक्ष विधि के दोषों का निवारण बहुत कुछ हद तक सैनिक विधि या संघटनापरक विधि द्वारा हो जाता है।
  5. प्रत्यक्ष विधि को प्राकृतिक विधि भी कहा जाता है।
  6. प्रत्यक्ष विधि का सर्वप्रथम प्रयोग 1901 में फ्रांस में अंग्रेजी विषय के लिए हुआ।
  7. प्रत्यक्ष विधि में बालक अनुकरण द्वारा दूसरी भाषा सीखता है।
  8. प्रत्यक्ष विधि के जनक जॉन बेसडो को माना जाता है।
  9. व्याकरण अनुवाद विधि के दोषों को प्रत्यक्ष विधि द्वारा दूर किया जा सकता है।

हिन्दी भाषा शिक्षण  की प्रत्यक्ष विधि के दोष -

  1. इसमें मातृभाषा का प्रयोग वर्जित है।
  2. मौखिक कार्यों को प्रधानता दी जाती है।
  3. संज्ञा शब्दों के अलावा अन्य जैसे सर्वनाम, विशेषणों, भाववाचक शब्दों, रचनात्मक शब्दों का ज्ञान नहीं होता है।
  4. व्याकरण के नियमों का ज्ञान नहीं कराया जाता।
  5. वाक्य संरचनाओं का पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं कराया जाता है।

2. हिन्दी भाषा शिक्षण की व्याकरण - अनुवाद विधि

हिंदी भाषा की शिक्षण विधियों में व्याकरण अनुवाद विधि को बहुत ही विस्तार से समझाया गया है। हिंदी भाषा शिक्षण की विधियों से विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में जैसे CTET, UPTET, REET, MPTET, HTET, DSSSB, TGT, PGT, RPSC SCHOOL LECTURE, वरिष्ठ अध्यापक आदि में इससे संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं। इन सभी परीक्षाओं की दृष्टि से यह बहुत ही महत्वपूर्ण विषय होता है। आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि यह आर्टिकल आप सभी के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

हिन्दी भाषा शिक्षण की यह सर्वाधिक प्रचलित एवं प्राचीनतम विधि है। प्राचीन भाषाएं जैसे संस्कृत, अरबी, ग्रीक, लैटिन आदि का शिक्षण इसी विधि से होता आया है। द्वितीय भाषाओं की 'स्वयं शिक्षणमालाएं' इस विधि पर आधारित होती है।


इस विधि में द्वितीय भाषा का व्याकरण पहले पढ़ाया जाता है। उदाहरण के लिए संस्कृत भाषा पढ़ाने के लिए यह आवश्यक माना जाता है कि बालक अष्टाध्यायी या सिद्धांत कौमुदी को कंठस्थ कर ले। आज भी अंग्रेजी सिखाते समय हम उसका व्याकरण और उसके नियम बताकर भाषा की शिक्षा प्रदान करते हैं।

इस विधि में बोलने की अपेक्षा लिखने और पढ़ने पर तथा भाषा की अपेक्षा भाषा के तत्वों के ज्ञान पर अधिक बल दिया जाता है। यही इस विधि का सबसे बड़ा दोष भी है कि भाषा शिक्षण का अधिकांश समय व्याकरण ज्ञान में समाप्त हो जाता है। वस्तुतः उस समय का उपयोग हमें भाषा शिक्षण के लिए करना चाहिए था।

भाषा सिखाना हमारा उद्देश्य है भाषाशास्त्र सिखाना नहीं। भाषा कौशलों की दक्षता प्रदान करना हमारा उद्देश्य होना चाहिए ना की भाषा के नियमों का ज्ञान कराना। बालक को द्वितीय भाषा के ढांचे जैसे ध्वनियों, शब्दों, पदों एवं वाक्यों के ढांचे का प्रयोग आना चाहिए, ना कि इन ढांचों का नियम।

व्याकरण पद्धति का दोष यह है की भाषा शिक्षण की जगह भाषाशास्त्र (व्याकरण) का शिक्षण साध्य बन जाता है। इससे भाषा का सैद्धांतिक ज्ञान भले ही हो जाए, व्यवहारिक ज्ञान एवं कौशल नहीं प्राप्त होता। इस पद्धति में मौखिक अभ्यास की तो बहुत ही उपेक्षा होती है।

अनुवाद इस प्रणाली का अनिवार्य अंग है मातृभाषा के अवतरणों का द्वितीय भाषा में अनुवाद कराया जाता है और इसके अभ्यास द्वारा द्वितीय भाषा के शब्दों एवं वाक्य रचनाओं का ज्ञान प्रदान किया जाता है।अनुवाद को इतना महत्व देना और द्वितीय भाषा सीखने के लिए उसे आधार बना देना भी इस पद्धति का दोष है। अनुवाद करना एक जटिल कार्य है। अनुवाद करते समय शिक्षार्थी मातृभाषा के शब्दों के आधार पर द्वितीय भाषा के शब्दों के रखने का प्रयत्न करता है। पर सत्य तो यह है कि किन्ही दो भाषाओं के दो शब्द पूर्ण रूप से पर्यायवाची नहीं होते। प्रत्येक भाषा की अपनी सांस्कृतिक परंपरा होती है और इस कारण उस भाषा के शब्दों का अपना विशिष्ट अर्थ होता है। अतः शब्द के अनुवाद से भावों का ठीक-ठीक द्योतन नहीं हो पाता।

अनुवाद में समानार्थी शब्दों के ढूंढने की समस्या के अतिरिक्त भाषा के गठन की भी समस्या बड़ी भारी है। दो भाषाओं के गठन समान नहीं होते। अतः एक भाषा के गठन को दूसरी भाषा के गठन में परिवर्तित करना एक दुष्कर कार्य है। इसे द्वितीय भाषा सीखने वाला विद्यार्थी पूरा नहीं कर सकता। सही अनुवाद तो वही व्यक्ति कर सकता है जिसका दोनों भाषाओं पर पूर्ण अधिकार होता है।

 अतः व्याकरण एवं अनुवाद विधि द्वितीय भाषा शिक्षण की वैज्ञानिक विधि नहीं हो सकती। उपर्युक्त दोषों के कारण व्याकरण एवं अनुवाद विधि के स्थान पर द्वितीय भाषा शिक्षण की किसी वैज्ञानिक विधि के लिए प्रयास प्रारंभ हुआ।

18 वीं शताब्दी में प्रसिद्ध शिक्षाविद जान कमेनियस ने इस दिशा में कुछ कार्य भी किया। 18 वीं सदी में जान बेसडो ने व्याकरण विधि का विरोध किया और कहा कि भाषा शिक्षण में पहले बोलने और पढ़ने पर बल देना चाहिए व्याकरण पर बाद में। आगे चलकर इसी विचार ने प्रत्यक्ष विधि का आधार तैयार किया। जिसमें मौखिक बातचीत पर विशेष बल दिया गया। प्रत्यक्ष विधि के बारे में हम अगले आर्टिकल में चर्चा करेंगे।

 व्याकरण अनुवाद विधि की प्रमुख विशेषताएं -

  1. इस विधि को भंडारकर विधि भी कहा जाता है। क्योंकि डॉ. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर द्वारा अपनाए जाने के कारण इसको भंडारकर विधि भी कहा जाता है। यह विधि पहले संस्कृत भाषा में थी।
  2. द्वितीय भाषाओं की स्वयं शिक्षण मालाएं इसी विधि पर आधारित होती है।
  3. व्याकरण ही अध्ययन का मुख्य विषय होता है।
  4. अन्य भाषा के व्याकरण की मातृभाषा के व्याकरण के साथ तुलना की जाती है।
  5. मातृभाषा के अवतरणों का द्वितीय भाषा में अनुवाद कराया जाता है।
  6. व्याकरण अनुवाद विधि में शिक्षण का क्रम - व्याकरण --> शब्द --> वाक्य --> संज्ञा --> सर्वनाम --> विशेषण --> कारक इस प्रकार होता है।
  7. व्याकरण अनुवाद विधि में द्वितीय भाषा का व्याकरण पहले पढ़ाया जाता है।
  8. बोलने की अपेक्षा लिखने और पढ़ने पर बल दिया जाता है।
  9. मातृभाषा के अवतरणों का द्वितीय भाषा में अनुवाद कराया जाता है।

व्याकरण अनुवाद विधि के दोष -

  1. व्याकरण ही अध्ययन का मुख्य विषय होता है, अन्य पहलुओं की उपेक्षा कर दी जाती है।
  2. अन्य भाषा के व्याकरण की मातृभाषा के व्याकरण के साथ तुलना की जाती है। किन्हीं दो भाषाओं के दो शब्द पूर्ण रूप से पर्यायवाची नहीं होते। प्रत्येक भाषा की अपनी सांस्कृतिक परंपरा होती है और इस कारण उस भाषा के शब्दों का अपना विशिष्ट अर्थ होता है। अतः शब्द के अनुवाद से भावों का ठीक-ठीक द्योतन नहीं हो पाता।
  3. बोलने की अपेक्षा लिखने और पढ़ने पर बल दिया जाता है।
  4. भाषा की अपेक्षा भाषा के तत्वों के ज्ञान पर अधिक बल दिया जाता है।
  5. मौखिक अभ्यास की उपेक्षा होती है।

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