जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे। जो काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन के पुत्र थे। इन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में सन्यास जीवन को स्वीकारा था। इनके द्वारा दी गई शिक्षा थी-
- हिंसा न करना
- सदा सत्य बोलना
- चोरी न करना
- संपत्ति न रखना।
महावीर के अनुयायियों को मूलत: निग्रंथ कहा जाता है। महावीर के प्रथम अनुयायी उनके दामाद(प्रियदर्शनी के पति) जामिल बने। प्रथम जैन भिक्षुणी नरेश दधिवाहन की पुत्री चंपा थी। महावीर ने अपने शिष्यों को 11 गणधरों में विभाजित किया था। आर्य सुधर्मा अकेला ऐसा गंधर्व था जो महावीर की मृत्यु के बाद भी जीवित रहा और जैन धर्म का प्रथम थेरा या मुख्य उपदेशक हुआ।
लगभग 300 ईसापूर्व में मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा, जिसके कारण भद्रबाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक चले गए। किंतु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रुक गए। भद्रबाहु के वापस लौटने पर मगध के साधुओं से उनका गहरा मतभेद हो गया जिसके परिणाम स्वरुप जैन मत श्वेतांबर एवं दिगंबर नामक दो संप्रदायों में बट गया। स्थूलभद्र के शिष्य श्वेतांबर(श्वेत वस्त्र धारण करने वाले) एवं भद्रबाहु के शिष्य दिगंबर(नग्न रहने वाले) कहलाए।
जैन धर्म के त्रिरत्न
- सम्यक दर्शन
- सम्यक ज्ञान
- सम्यक आचरण
जैन धर्म मानने वाले कुछ राजा
- उदायिन,
- वंदराजा,
- चंद्रगुप्त मौर्य,
- कलिंग नरेश खारवेल,
- राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष,
- चंदेल शासक।
मैसूर के गंग वंश के मंत्री, चामुंड के प्रोत्साहन से कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में 10 वीं शताब्दी के मध्य में विशाल बाहुबलि की मूर्ति(गोमतेश्वर की मूर्ति) का निर्माण किया गया। खजुराहो में जैन मंदिरों का निर्माण चंदेल शासकों द्वारा किया गया। मौर्योत्तर युग में मथुरा जैन धर्म का प्रसिद्ध केंद्र था। मथुरा कला का संबंध जैन धर्म से है। जैन तीर्थंकरों की जीवनी भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र में है। 72 वर्ष की आयु में महावीर की मृत्यु(निर्वाण) 468 ईसापूर्व में बिहार राज्य के पावापुरी(राजगीर) में हो गई।
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