पर्यावरण प्रदूषण किसे कहते हैं यह कितने प्रकार के होते हैं?

पर्यावरण शब्द 'परि' + 'आवरण' से मिलकर बना है जिसका क्रमशः अर्थ है, 'चारो ओर', 'ढका हुआ' । इस अर्थ में प्राणी के चारों ओर जो कुछ भी भौतिक और अभौतिक वस्तुयें हैं वे उनका पर्यावरण हैं। मानव के अपने चारों ओर कई प्राकृतिक शक्तियों एवं पदार्थों जैसे चाँद तारे, सूरज, पृथ्वी, वायु, नदी, पहाड़, जंगल एवं ताप आदि से तथा सामाजिक- सांस्कृतिक तथ्यों जैसे समाज, समूह, संस्था, प्रथा, लोकाचार, नैतिकता, धर्म एवं राजनैतिक मूल्यों आदि से घिरा हुआ है जो कि उसका पर्यावरण कहा जाता है। इस प्रकार प्राणी चारों ओर पाई जाने वाली सभी प्राकृतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक वस्तुओं एवं दशायें उसका पर्यावरण कहलाती हैं।

पर्यावरण वह सब कुछ है जो किसी वस्तु के चारों ओर से घिरी हुई हो और प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है।"
पर्यावरण से अभिप्राय हमारे चारों ओर फैले उस वातावरण और परिवेश से है, जिससे हम घिरे रहते हैं। प्रकृति में जो विद्यमान समस्त जैविक तथा अजैविक घटक मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं । अर्थात् जल, वायु, भूमि, प्रकाश, वनस्पति, जन्तु, मानव इत्यादि पर्यावरण के घटक या तत्व हैं। ब्रह्माण्ड में सम्भवतः पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा खगोलीय पिण्ड है, जहाँ जीवन के अनुकूल प्राकृतिक दशायें पायी जाती हैं। इसी कारण यहाँ जीवों का विकास संभव हो सका है। स्थल, जल एवं वायुमण्डल तीनों में ही जीवों का अस्तित्व पाया जाता है। पृथ्वी पर सजीवों (वनस्पति एवं प्राणी) के निवास क्षेत्र को 'जीवमण्डल' कहते हैं। 

पर्यावरण प्रदूषण किसे कहते हैं

पर्यावरण-प्रदूषण के घटको जैसे वायु, जल, भूमि, ऊर्जा के विभिन्न रूप आदि के भौतिक रासायनिक या जैविक लक्षणों का वह अवांछनीय परिवर्तन जो मानव और उसके लिये लाभदायक दूसरे जीवों, औद्योगिक प्रक्रमों, जैविक दशाओं, सांस्कृतिक विरासतों एवं कच्चेमाल के साधनों को हानि पहुँचाती है, प्रदूषण कहलाता है ।

पर्यावरण में होने वाले किसी ऐसे परिवर्तन को जो मनुष्य व उसके लाभदायक सजीवों व निर्जीवों को हानि पहुँचाये पर्यावरण प्रदूषण है। 

जिन पदार्थों की कमी या अधिकता के कारण उत्पन्न होती है अर्थात्-पर्यावरण की प्राकृतिक गुणवत्ता में ह्रास होता है उन्हें प्रदूषक कहते हैं । जैसे धूल, धुआँ, रसायन, ऊर्जा के विभिन्न रूप आदि पर्यावरण मिलकर मानव व उसके कार्य-कलापों पर बुरा प्रभाव डालते है, वे प्रदूषक है।

वायुमण्डल में प्रदूषण के स्रोत प्राकृतिक और कृतिम या मानव प्रदत्त प्रदूषण के रूप में विभक्त होते हैं । प्राकृतिक प्रदूषण का स्रोत स्वयं प्रकृति है । अनचाहे और अनजाने यह प्रदूषण हो जाता है जिसका प्रभाव जीवधारियों पर पड़ता है। जैसे—ज्वालामुखी विस्फोट, चट्टानों का टूटना, आँधी या तूफान, वनों की आग, बिजली का गिरना आदि नदियों के साथ अनचाही वस्तुओं का बहना और उनका कहीं इकट्ठा हो जाना भी प्राकृतिक प्रदूषण के अन्तर्गत आता है। 

कृतिम या मानव जनित प्रदूषण गाँवों के प्रत्येक घर में जहाँ अभी खाना पकाने का काम परम्परागत तरीकों से ईंधन (लकड़ी, कोयला, गोबर) जला कर किया जाता है, वहाँ चूल्हों से निकलने वाला धुआँ भी अत्यन्त विषैला होता है और वायुमण्डल को प्रदूषित करता है । 

पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार

1. वायु प्रदूषण

वायुमण्डल की संरचना मूलतः विभिन्न प्रकार की गैसों से हुई है। वायुमण्डल में ये गैसें एक निश्चित मात्रा एवं अनुपात में पायी जाती हैं। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से गैसों की निश्चित मात्रा एवं अनुपात में अवांछनीय परिवर्तन हो जाता है अथवा वायुमण्डल में कुछ ऐसे विषाक्त पदार्थ मिल जाते हैं। जिससे वायु जीवधारियों के हानिकारक हो जाती है, वायु प्रदूषण कहलाता है।

1. वायु प्रदूषण के स्रोत- विभिन्न प्रकार के वाहनों से निकलने वाला धुँआ वायु प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में से एक है। इस धुएँ में विभिन्न प्रकार की जहरीली गैसें जैसे-कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड, सल्फ्यूरिक एसिड आदि होती हैं। जो वायुमण्डल को दूषित करती हैं। बड़े-बड़े शहरों में लगे विभिन्न औद्योगिक कारखाने भी वायु प्रदूषण को बढ़ाते हैं। 

कृषि क्षेत्र में कीटनाशक दवाओं के प्रयोग से वायु, मृदा व जल तीनों प्रदूषित हो रहे हैं। यह प्रदूषित वायु मनुष्य एवं अन्य प्राणियों के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही हैं।

2. वायु प्रदूषण के प्रभाव- प्रदूषित वायु का मनुष्य के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जैसे-यदि वायु में कार्बन मोनोऑक्साइड की थोड़ी सी अधिकता हो जाये तो श्वसन अवरोध हो जाता है। और दम घुटने लगता है। जबकि सल्फर डाई ऑक्साइड की अधिकता से आँख, गले एवं फेफड़ों के रोग हो जाते हैं। अम्ल वर्षा का कारण वायुमण्डल में सल्फर डाई ऑक्साइड तथा नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड गैसों की अधिकता है।

3. वायु प्रदूषण रोकने के उपाय- वायु प्रदूषण को रोकने का सबसे प्रभावशाली तरीका है कि लोगों को वायु प्रदूषण के घातक परिणामों के प्रति जागरूक किया जाये। वायु को शीघ्रता से प्रदूषित करने वाली सामग्रियों के निर्माण पर तुरन्त प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिए एवं कम हानिकारक उत्पादों की खोज की जानी चाहिए। इसके साथ ही वायुमण्डल में सकल प्रदूषण भार को घटाने के लिए सक्रिय उपाय करने चाहिए।

2. जल प्रदूषण

जल की भौतिक, रासायनिक एवं जैवीय विशेषताओं में हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तनों की उस सीमा को जल प्रदूषण कहते हैं। जिस पर जल जीव समुदाय के लिए हानिकारक हो जाता है। जल पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है। वनस्पति से लेकर जीव जन्तु अपने पोषक तत्वों की प्राप्ति जल के माध्यम से करते हैं। मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के लिए पीने के पानी के स्रोत नदियां, सरिताएं, झीलें एवं नलकूप हैं। मनुष्य ने स्वयं ही अपनी क्रियाओं द्वारा अपने ही जल स्रोतों को प्रदूषित किया है।

1. जल प्रदूषण के स्रोत- जल की गुणवत्ता को कम करने वाले तत्वों को जल प्रदूषक कहते हैं। वर्तमान समय में जल कई स्रोतों से प्रदूषित हो रहा है। जैसे-औद्योगिक इकाइयों द्वारा प्रयोग में लिए गये जल में कई प्रकार के रासायनिक प्रदूषक जैसे- क्लोराइड, सल्फाइड, कार्बोनेट, रेडियोऐक्टिव अपशिष्ट, हानिकारक धातुएं मिल जाती हैं। यह जल सीधे प्राकृतिक जलाशयों में प्रवाहित कर दिया जाता है। इसके अलावा कृषि रसायन, अपमार्जक, खनिज तेल, शवों का जल में प्रवाह भी जल प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।

2. जल प्रदूषण के प्रभाव- प्रदूषित जल का सेवन करने से मनुष्य तथा अन्य जीवधारियों को असाध्य रोगों का सामना करना पड़ता है। प्रदूषित जल के सेवन से मनुष्य कई प्रकार की संक्रामक बीमारियों जैसे-हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी ज्वर, पेचिस आदि से पीड़ित हो जाता है। पारा युक्त जल पीने से मिनीमाता रोग हो जाता है। पेयजल में नाइट्रेट की अधिकता से ब्लू बेबी सिण्ड्रोम, कैडमियम की अधिकता से इटाई-इटाई रोग, आर्सेनिक की अधिकता से ब्लैक फुट नामक बीमारी हो जाती है। असबेस्टस के रेशों से युक्त जल के सेवन से असबेस्टोसिस नामक जानलेवा रोग हो जाता है।

3. जल प्रदूषण रोकने के उपाय- जल प्रदूषण नियन्त्रण के लिए लोगों को जागरूक किया जाना चाहिए। घरेलू कार्यों से प्रदूषित हुए जल का निकास वैज्ञानिक परिष्कृत साधनों द्वारा किया जाना चाहिए। कृषि, खेतों व बगीचों में कीटनाशक, जीवनाशक एवं अन्य रासायनिक पदार्थों, उर्वरकों को कम से कम उपयोग करने के लिए उत्साहित करना चाहिए, जिससे कि ये पदार्थ जल स्रोतों में न मिल सके।

3. मृदा प्रदूषण

प्राकृतिक स्रोतों या मानव जनित स्रोतों अथवा दोनों स्रोतों से मृदा की गुणवत्ता में ह्रास को "मृदा प्रदूषण" कहते हैं। मृदा की गुणवत्ता कई कारणों से ह्रास हो रही है। जिससे मृदा प्रदूषण प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इन कारणों में कुछ मुख्य कारण जैसे-तीव्र गति से मृदा अपरदन, मृदा में रहने वाले सूक्ष्म जीवों की कमी, तापमान में अत्यधिक उतार-चढ़ाव, मृदा में ह्यूमस की मात्रा में कमी एवं विभिन्न प्रकार के मृदा प्रदूषकों का अत्यधिक सांद्रण आदि हैं।

1. मृदा प्रदूषण के प्रभाव- मृदा प्रदूषण प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मानव, जीव-जन्तु एवं वनस्पतियों को प्रभावित करता है। मृदा अपरदन का प्रभाव स्थलाकृतियों पर पड़ता है। मृदा प्रदूषण से मिट्टी के मौलिक गुणों में ह्रास होता है। इसकी उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। जिससे फसलों एवं वनस्पतियों का विकास कम होता है। रासायनिक प्रदूषक मिट्टी में मिलकर फसलों को प्रभावित करते हैं। इसका प्रभाव जन्तुओं की आहार श्रृंखला पर भी पड़ता है।

2. मृदा प्रदूषण को रोकने के उपाय- मृदा प्रदूषण पर नियंत्रण करना नितान्त आवश्यक है। इसके लिए कीटनाशक, जीवनाशक, विषैली दवाओं आदि के प्रयोग पर प्रतिबन्ध,कृत्रिम उर्वरकों के प्रयोग को कम, वनों के विनाश पर प्रतिबन्ध, भू-क्षरण रोकने के उपाय, प्रदूषित जल को वृहद भूमि पर विस्तारित होने से रोकने के उपाय करने चाहिए।

4. ध्वनि प्रदूषण

मानव के आधुनिक जीवन ने एक नये प्रकार के प्रदूषण को उत्पन्न किया है। जिसे ध्वनि प्रदूषण कहते हैं। आवश्यकता से अधिक उच्च तीव्रता वाली ध्वनि के कारण मानव वर्ग में उत्पन्न अशान्ति एवं बेचैनी की दशा को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं। यह पर्यावरण प्रदूषण का एक सशक्त कारक है। उच्च ध्वनि तीव्रता का विस्तार बढ़ते नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के फलस्वरूप निरन्तर बढ़ रहा है।

1. ध्वनि प्रदूषण के स्रोत - ध्वनि प्रदूषण की वृद्धि में प्राकृतिक तथा मानव जनित दोनों कारण सम्मिलित हैं। प्राकृतिक कारणों में बादलों की गड़गड़ाहट, तूफानी हवाओं की आवाज, बिजली की कड़क, ज्वालामुखी फटने की आवाज आदि आते हैं। मानव जनित कारणों में उद्योग कारखानों से निकलने वाली ध्वनियाँ, वाहनों से निकलने वाली ध्वनियाँ, हवाई जहाज की ध्वनियां आदि शामिल हैं।

2. ध्वनि प्रदूषण रोकने के उपाय- ध्वनि प्रदूषण रोकने का सबसे प्रभावशाली तरीका स्रोत बिन्दु पर ही ध्वनि को नियंत्रित करना है। निम्न युक्तियों द्वारा स्रोत बिन्दु पर ही ध्वनि को नियंत्रित किया जा सकता है। जैसे-मशीनों में ध्वनिशामक व्यवस्था, मशीनों के प्रमुख कल-पुर्जों में अच्छी तरह ग्रीस लगाकर उन्हें चिकना बनाये रखना, लाउड स्पीकर तथा रेकार्ड प्लेयरों की आवाज को नियंत्रित रखना आदि।

5. रेडियोएक्टिव प्रदूषण-

रेडियोएक्टिव पदार्थों के विकिरण से जनित प्रदूषण को रेडियोएक्टिव अथवा रेडियोधर्मी प्रदूषण कहते हैं। इन पदार्थों से स्वतः रेडियोधर्मी विकिरण निकलता रहता है। जैसे-थोरियम, प्लूटोनियम, यूरेनियम आदि। रेडियोधर्मी प्रदूषण की मापन की इकाई "रोन्टजन" है। इसे रैम भी कहा जाता है। 20 ml रैम (रोन्टजन) तक का विकिरण जीवधारियों को कोई क्षति नहीं पहुँचता है। किन्तु इससे अधिक विकिरण जीवधारियों के लिए घातक होता है।

1. रेडियोएक्टिव प्रदूषण के स्रोत- प्राकृतिक तथा मानव जनित दोनों प्रकार से रेडियोएक्टिव प्रदूषण उत्पन्न होता है। मानव जनित स्रोतों से रेडियोधर्मी प्रदूषण मुख्यतः परमाणु रिएक्टरों से होने वाले रिसाव, नाभिकीय प्रयोग, औषधि विज्ञान, रेडियोधर्मी पदार्थों के उत्खनन, रेडियोएक्टिव पदार्थों के निस्तारण व परमाणु बमों के विस्फोट आदि से फैलता है। इसके अलावा मानव जनित स्रोतों में विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आइसोटोप जैसे-कार्बन-14, कोबाल्ट-60, स्ट्रांशियम-90 ट्राइटियम आदि के प्रयोग भी रेडियोएक्टिव प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं। प्रकृति जनित रेडियोधर्मी प्रदूषण जीवों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डालता है क्योंकि इसकी तीव्रता बहुत कम होती है। यह पृथ्वी के गर्भ में दबे रेडियोएक्टिव पदार्थों तथा सूर्य की किरणों से फैलता है।

2. रेडियोएक्टिव पदार्थों का खाद्य श्रृंखला में प्रवेश- उपर्युक्त स्रोतों से उत्पन्न हुए रेडियोएक्टिव पदार्थ वायुमण्डल की बाह्म परतों में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ संघनन द्वारा ठोस रूप में परिवर्तित होकर धूल के कणों के साथ मिल जाते हैं। वर्षा जल के साथ ये पुनः भूमि पर आते हैं तथा मृदा में मिल जाते हैं। मृदा से ये पदार्थ पौधों में जाते हैं। पौधों से शाकाहारी जन्तुओं और में मनुष्य में पहुँच जाते हैं।

3. रेडियोएक्टिव पदार्थों का जीवों पर प्रभाव- रेडियोधर्मी पदार्थों के परमाणु केन्द्रकों से अल्फा, बीटा और गामा कण किरणों के रूप में निकलते हैं। ये किरणें जीवित ऊतकों के जटिल अणुओं को विघटित कर कोशिकाओं को नष्ट कर देती हैं। इन मृत कोशिकाओं के कारण चर्म रोग व कैन्सर जैसी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण जीन्स और गुणसूत्रों में हानिकारक उत्परिवर्तन हो जाता है। जिससे बच्चों की गर्भाशय में ही मृत्यु हो जाती है। कभी कभी बच्चों के अंग असाधारण प्रकार के हो जाते हैं।

रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण मनुष्यों में असाध्य रोग हो जाते हैं। जैसे-रक्त कैंसर, अस्थि कैंसर और अस्थि टी. बी.। रेडियोधर्मी विकिरण का प्रभाव कई हजार वर्षों तक रहता है। रेडियोधर्मी प्रदूषण सबसे अधिक घातक होता है। क्योंकि इसके प्रभाव से जल, वायु एवं मृदा तीनों प्रदूषित होते हैं।

4. रेडियोधर्मी प्रदूषण रोकने के उपाय- इस प्रदूषण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए।
  1. नाभिकीय रियक्टरों से विकिरण के विसरण को रोका जाना चाहिए।
  2. रेडियोएक्टिव अपशिष्ट को तर्कसंगत व सही ढंग से निवृत किया जाना चाहिए।
  3. मानव प्रयोग के उपकरणों को रेडियोधर्मिता से मुक्त किया जाना चाहिए।
  4. परमाणु अस्त्रों का उत्पादन एवं प्रयोग प्रतिबन्धित होना चाहिए।
  5. पराबैंगनी किरणें गैर-आयनीकृत विकिरण स्रोत हैं।
  6. रेडियोधर्मी तत्व आयनीकृत विकिरण स्रोत हैं।
  7. पोटैशियम आयोडाइड को नाभिकीय विकिरण का रक्षक कहा जाता है। Nuclear Radioactive Fallout से बचने के लिए पोटैशियम आयोडाइड की गोलियों के सेवन की सलाह दी जाती है।

6. ठोस अपशिष्ट प्रदूषण

उपयोग के बाद बेकार तथा निरर्थक पदार्थों को ठोस अपशिष्ट कहा जाता है। दिन पर दिन हो रही जनसंख्या वृद्धि के कारण ठोस अपशिष्ट की मात्रा में निरन्तर वृद्धि हो रही है। फलस्वरूप इससे उत्पन्न प्रदूषण की समस्या निरन्तर जटिल होती जा रही है। आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं औद्योगिक स्तर पर विकसित पश्चिमी देशों की 'प्रयोग करो और फेंको' की नीति ने अपशिष्ट प्रदूषण की विकट समस्या उत्पन्न कर दी है।

1. ठोस अपशिष्ट के स्रोत- ठोस अपशिष्ट के कई स्रोत हैं। इनको निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है।
  1. धात्विक ठोस अपशिष्ट- डिब्बे, बोतल, क्राकरी, कुर्सी, लोहा आदि।
  2. अधात्विक ठोस अपशिष्ट- पैकिंग का अपशिष्ट, कपड़ा, रबर, काष्ठ, चर्म, भोज्य पदार्थ आदि।
  3. भारी ठोस अपशिष्ट- मशीनों के पार्ट, फर्नीचर के टुकड़े, टायर आदि।
  4. मकानों के अवशेष- मिट्टी, पत्थर, काष्ठ एवं धातु आदि के सामान।
  5. उद्योग जन्य अपशिष्ट- नाभिकीय कचरा, कोयला राख, रासायनिक एवं इलेक्ट्रिक कचरा।
2. ठोस अपशिष्ट प्रदूषण के प्रभाव- शहरों में ठोस अपशिष्ट की मात्रा में निरन्तर वृद्धि हो रही है। जिसके कारण भयंकर पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। जैसे-भूमिगत जल में रिसाव, आहार श्रृंखला में हानिकारक तत्वों का प्रवेश, दम घोटने वाली वाष्पों में वृद्धि, लाभदायक सूक्ष्म जीवों का विनास, मच्छरों, कीटों एवं चूहों की वृद्धि, डायरिया, डिसेंट्री, हैजा, प्लेग हैपेटाइटिस जैसे रोगों की वृद्धि। सागरीय तटीय भागों में ठोस कचरा के कारण कई प्रकार की पारिस्थितिकीय समस्याएं उत्पन्न हो गयी हैं। सागरों में जमा हो रहे ठोस अपशिष्ट के कारण मछलियों सहित अन्य जीवों की मृत्यु हो रही है। कोरल द्वीपों की जैव विविधता नष्ट हो रही है।

3. ठोस अपशिष्ट प्रदूषण रोकने के उपाय- ठोस अपशिष्ट पदार्थों को नियंत्रित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं।
  1. पुनर्चक्रण- इस विधि द्वारा अपशिष्टों को पुनः प्रयोग में लाया जाता है। जैसे-प्लास्टिक व धातुओं को गलाकर पुनः प्रयोग में लाना, अखबार व पुराने कागजों को गलाकर पुनः निर्माण करना आदि।
  2. अपशिष्टों को नष्ट करना- जो ठोस अपशिष्ट विभाजित या पुनर्चक्रित नहीं हो सकते उन्हें नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में निम्नलिखित विधियों का उपयोग किया जाता है।
  3. कम्पोस्टिंग- इस विधि में जैविक कचरे को खाद में बदल दिया जाता है।
  4. दबाना- इस प्रक्रिया के तहत जमीन में गहरा गड्ढा खोदकर उसमें ठोस अवशेष को दबा देते हैं।
  5. दहन- इस विधि में ज्वलनशील ठोस अपशिष्टों को दहन यन्त्र डालकर जला देते हैं। भारत में दहन संयंत्र नागपुर में स्थित है।

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