सगुण भक्ति धारा क्या है सगुण भक्तिधारा की कितनी शाखाएँ है ?

सगुण भक्ति-धारा में ईश्वर के साकार सगुण रूप की उपासना राम और कृष्ण रूप में भगवान् विष्णु के अवतारों की कल्पना करके सख्य और सेवक भाव से भक्ति-कर ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताया गया।

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल (1375-1700 वि.) में भक्ति की दो धाराएं सगुण तथा निर्गुण प्रवाहित हुईं। सगुण धारा के अन्तर्गत राम-कृष्ण भक्ति की शाखाएं आती हैं, निर्गुण के अंतर्गत सन्त तथा सूफियों का काव्य आता है। आचार्य शुक्ल ने नामदेव एवं कबीर द्वारा परिवर्तित भक्ति-धारा को ‘निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा’ की संज्ञा से अभिहित किया है। 

डाॅ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘निर्गुण भक्ति साहित्य’ तथा डाॅ. राम कुमार वर्मा ने इसे ‘सन्त-काव्य-परम्परा’ का नाम दिया है। ज्ञानाश्रयी शब्द से यह भ्रांति उत्पन्न होती है कि इस धारा के कवियों ने ज्ञान तत्त्व को सर्वाधिक महत्व दिया होगा, जबकि वास्तव में इन्होंने प्रेम के सम्मुख समस्त ज्ञानराशि को तुच्छ माना है। 

भक्ति का आलम्बन सगुण आश्रय ही उपयुक्त है, अतः निर्गुण भक्ति साहित्य का नाम असमीचीन प्रतीत होता है। इस धारा के कवियों का विशेष दृष्टिकोण सन्त शब्द से भली-भांति व्यक्त होता है, अतः इस धारा को सन्त काव्य की संज्ञा देना अपेक्षाकृत संगत प्रतीत होता है।

यह काव्यधारा उन भक्तों के अन्तःस्थल से प्रवाहित हुई जो अपने इष्ट देवों की पूजा और उपासना में मग्न थे। वे देश और जाति का कल्याण भगवद् भजन में ही देखते थे। राजदरबारों के ऐश्वर्य में उनको कोई आकर्षण नजर नहीं आता था। कृष्ण-भक्त कवि वुफंभनदास ने सम्राट् अकबर के राजदरबार में निमन्त्रण को ठुकराते हुए कह दिया था ‘संतन को कहा सीकरी सों काम’। सगुण भक्त कवि मुसलमानों के विरोधी तो न थे किन्तु उनसे मिलने की भी इच्छा नहीं रखते थे। मुसलमान शासक धड़ाधड़ हिन्दुओं को इस्लाम धर्म स्वीकार करने पर विवश कर रहे थे, अतः सगुण भक्त कवियों ने अपने काव्य द्वारा धर्म और जाति की रक्षा करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। 

अकेले तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ ने न केवल हिन्दुओं को एक किया बल्कि उनकी रक्षा भी की। आज तक घर-घर में उसका पाठ किया जाता है। यह इस ग्रन्थ की महत्ता को दर्शाता है।

सगुण भक्ति धारा की शाखाएँ


सगुण भक्ति-धारा दो शाखाओं में प्रवाहित हुई।
  1. कृष्ण भक्ति-शाखा
  2. राम भक्ति-शाखा

1. कृष्ण भक्ति शाखा

श्री चैतन्य महाप्रभु और वल्लभाचार्य ने भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को भक्ति का आधार बनाया। उनकी भक्ति ‘भागवत पुराण’ पर आधारित थी। इस भक्ति में ज्ञान की अपेक्षा प्रेम को अधिक महत्व दिया गया। आत्म चिन्तन की अपेक्षा आत्म समर्पण पर अध्कि बल दिया गया। वल्लभाचार्य ने श्री कृष्ण को ‘परब्रह्म’ और ‘दिव्य गुण सम्पन्न’ माना। उनके लोक को वैकुंठ माना जिसके अन्तर्गत वृन्दावन, यमुना, गोवर्धन, सभी वे स्थल आते हैं जहां श्री कृष्ण ने अलक्ष भाव से गो चारण और रासलीला की थी। कृष्ण भक्त-कवियों ने आत्मा और परमात्मा में सखी-सखा भाव माना।

हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्ति-काव्य की रचना आदिकाल में विद्यापति पदावली से आरम्भ हुई। उनकी भक्ति पर श्रंगार का भी गहरा रंग था। अतः भक्तिकाल में सूरदास को ही कृष्ण भक्ति-काव्य का प्रवर्तक मानना चाहिए। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘सूर सागर’ श्रीमद भागवत पर ही आधारित है। सूरदास के अतिरिक्त कृष्ण भक्ति-शाखा के अन्य कवि अष्टछाप के आठ कवि आते हैं। इनमें से केवल नन्ददास ही अधिक प्रसिद्ध हुए। इनकी रचना ‘भँवर गीत’ में ज्ञान पर प्रेम की विजय दिखा कर कृष्ण भक्ति के सिद्धतों का प्रभावी ढंग से चित्रण हुआ है।

कृष्ण भक्ति शाखा में भगवान श्री कृष्ण को भक्ति का आधार मान कर उनके प्रेम को महत्व दिया गया है।

कृष्ण भक्ति की विशेषताएँ

1. श्रीकृष्ण को पूर्ण ब्रह्म माननाः सभी कृष्ण भक्त कवि श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का सोलह कला सम्पूर्ण अवतार मानते हैं। उनके श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म है जो इस सारी सृष्टि के निर्माता हैं तथा संसार की प्रत्येक वस्तु उन्हीं का अभिन्न अंग है। कृष्ण भक्त कवियों ने श्रीकृष्ण के माधुर्य रूप को ही अपनाया। 

2. श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णनः श्रीकृष्ण के बाल या युवा रूप का सुन्दर चित्राण किया है, इन लीलाओं में बालगोपाल की वात्सल्यपूर्ण लीलाओं तथा माधुर्य भावपूर्ण लीलाओं की प्रधानता रही। इन कवियों में प्रेम वर्णन कुछ चुने हुए प्रसंगों  तक सीमित रहा। 

3. संगीतात्मकताः श्रीकृष्ण की लीलाओं के वर्णन में संगीतात्मकता की अधिकता पाई जाती है। इससे रीति काव्य का सुन्दर विकास हुआ। इसी में अनेक राग रागनियां पाई जाती हैं। हरिदास, सूरदास तथा मीरा के पदों में संगीतात्मकता की सुन्दर छाप मिलती है और आज भी संगीत के क्षेत्र में इन पदों का बहुत महत्व है। वास्तव में  श्रीकृष्ण का चरित्र ही कुछ इतना विचित्र है कि इसके वर्णन में साधरणतया संगीतात्मकता का तत्त्व आ गया है। 

4. श्रृंगार रस की प्रधनताः कृष्ण भक्त-कवियों ने माधुर्य भक्ति के कारण अपने काव्य में श्रृंगार रस का वर्णन प्रमुख रूप से किया है। गोपियों के संयोग और वियोग का बड़ा ही सुन्दर और स्वाभाविक वर्णन कृष्ण भक्त कवियों ने किया है। संयोग में श्रीकृष्ण राध का सौन्दर्य, गोपी प्रेम, चीर हरण, दानलीला, रास लीला आदि का वर्णन है। यह वर्णन स्वाभाविक और वासना रहित है। इसमें अलौकिकता पाई जाती है। 

वियोग वर्णन का सुन्दर उदाहरण सूर के ‘भ्रमर गीत’ और नन्ददास के ‘भँवर गीत’ में देखा जा सकता है। मीरा का वियोग वर्णन भी उच्चकोटि का बन पड़ा है।

5. विषय-वस्तु की मौलिकताः भक्तिकालीन कृष्ण भक्त कवियों ने ‘भागवत् पुराण’ को ही आधार माना किन्तु इससें वातावरण के अनुकूल वुफछ मौलिकता दिखाने का भी प्रयत्न किया। उदाहरण के लिए ‘भागवत्’ में भी श्रीकृष्ण आरम्भ से लेकर अन्त तक अलौकिकता लिए पाए जाते है। जबकि कृष्ण भक्त कवियों ने उनका नाम भी स्पष्टः ‘राध’ लिख दिया है। अतः हम कह सकते हैं कि हिन्दी कृष्ण भक्त कवियों ने विद्यापति और जयदेव को आधर मानते हुए अपनी कल्पना शक्ति का पूर्ण प्रयोग किया है और अपने समय के वातावरण के अनुसार नये प्रसंगों को भी जोड़ दिया है।

6. प्रकृति चित्रण: कृष्ण काव्य भाव प्रधान है इसी कारण इसमें प्रकृति चित्रण स्वतन्त्र रूप से नहीं हुआ। प्रकृति के जो सुन्दर चित्र देखने को मिलते हैं वे केवल पृष्ठभूमि अथवा उद्दीपन के रूप में चित्रित हुए हैं। पात्र के भावों को बढ़ाने (उद्दीप्त करने) के लिए प्रकृति का उसी प्रकार का रूप दिखाया गया है। अर्थात् प्रकृति चित्र भावानुकूल ही हुआ है। प्रकृति के कोमल-कठोर, मनोहर-भयानक दोनों रूपों का चित्रण कृष्ण काव्य में देखने को मिलता है।

7. सामाजिक पक्षः कृष्ण भक्त-कवियों ने श्रीकृष्ण की लीलाओं के वर्णन के साथ ही उस समय के सामाजिक पक्ष को भी नहीं छोड़ा। कृष्ण भक्त-कवियों ने उस समय की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दशा का भी अपने काव्य में समावेश किया है। यथा ‘भ्रमर गीत’ और ‘भँवर गीत’ के उ(व गोपी संवाद में अलखवादी, घमण्डी, शरीर को बेकार कष्ट देकर साधना करने वालों का गोपियों ने परिहास उड़ाया है। वर्णाश्रम का पतन धर्मिक विडम्बनाओं और सामाजिक कुरीतियों का चित्रण भी कृष्ण काव्य में देखने को मिलता है।

2. राम भक्ति शाखा

भक्ति की धारा उत्तर भारत में आने से पूर्व दक्षिण भारत में पूरी तरह से फैल चुकी थी। वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड को न मानने वालों ने वैष्णव धर्म की स्थापना की और भगवान की भक्ति का सहारा लिया गया। ईसा के 500 वर्ष पूर्व श्रीराम और श्रीकृष्ण को ईश्वरावतार के रूप में माना जाने लगा था।

राम भक्ति को महानता के शिखर पर लाने का श्रेय स्वामी रामानुजाचार्य को है। इनके सम्प्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना की जाती है। उन्ही के सम्प्रदाय में राध्वानन्द हुए जिनके शिष्य रामानन्द ने सारे देश का भ्रमण कर अपने सम्प्रदाय को बढ़ाने का प्रयास किया। उन्होंने वैकुन्ठ में स्थित विष्णु भगवान के स्थान पर इस संसार में अवतरित उनके रूप ‘श्रीराम’ को अपना आराध्य देव माना।

राम भक्ति का वास्तविक उत्थान गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं, विशेषकर फ्रामचरितमानसय् में देखने को मिलता है। तुलसी ने श्रीराम को मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम के रूप में चित्रित किया, जो शील, शक्ति और सौन्दर्य के प्रतीक थे। डाॅú राम कुमार वर्मा ने स्पष्ट शब्दों में कहा है - फ्राजनीति की जटिल परिस्थितियों में ध्र्म की भावना किस प्रकार अपना उत्थान कर सकती है, यह राम काव्य ने स्पष्ट कर दिया।

राम भक्ति की विशेषताएँ

1. राम का स्वरूपः रामभक्त कवियों के उपास्यदेव राम विष्णु के अवतार हैं और परम ब्रह्म स्वरूप हैं। वे पाप विनाश और ध्र्मोत्तर के लिए युग-युग में अवतार लेते हैं। कृष्ण कवियों के कृष्ण ब्रह्म के प्रतीक हैं। गोपियाँ जीवात्मा हैं और स्वयं कृष्ण-भक्त अपने आप पर गोपी का आरोप करके अपने-आपको कृष्ण की सेवा में अर्पित करता है। राम विष्णु का अवतार हैं और भक्त कवि मानव रूप में उनका साधक है।

इनके राम में शील, शक्ति, सौन्दर्य का समन्वय है। सौन्दर्य में वे त्रिभुवन को लजावन हारे हैं। शक्ति से वे दुष्टों का दलन करते हैं और भक्तों को संकट से मुक्त करते हैं वे अपने शील-गुण से लोक को आचार की शिक्षा देते हैं। राम-भक्ति परम्परा में रसिकता का उदय हुआ और उसमें सखी ‘संप्रदाय’ आदि चल निकले पर यह सब कृष्ण भक्ति साहित्य के अनुकरण पर ही हुआ।

2. समन्वयात्मकताः राम काव्य का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक है। इसमें समन्वय की भावना है।  इसमें न केवल राम की उपासना है बल्कि कृष्ण, शिव, गणेश आदि देवताओं की भी स्तुति की गई है। तुलसी ने सेतुबन्ध् के अवसर पर राम द्वारा शिव की पूजा करवाई है। यद्यपि रामभक्ति काव्य में रामभक्ति को श्रेष्ठ माना है तो भी उसकी भक्ति भावना अत्यंत उदार है। रामभक्तों का आराध्य सगुण भी है और निर्गुण भी तो भी भगवान् का सगुण रूप भक्तिसुलभ है।

3. लोक संग्रह की भावनाः लोक-कल्याण भावना की दृष्टि से भी यह साहित्य अत्यंत उपादेय है। इस साहित्य में जीवन की अनेक उच्चारण अनुभूतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। इन्होंने गृहस्थ जीवन की उपेक्षा नहीं की बल्कि लोक-सेवा और आदर्श गृहस्थ राम-सीता को उपस्थित करके जीवन-स्तर को ऊंचा उठाने का स्तुत्य प्रयत्न किया है। राम काव्य का आदर्श पक्ष अत्यंत उच्च है। इस काव्य में जीवन का मूल्यांकन आचार की कसौटी पर किया गया है। 

4. भक्ति का स्वरूपः राम का चरित्र त्रिलोकातिशायी है। राम-भक्त कवि राम के शील, शक्ति और सौन्दर्य पर मुग्ध् हैं। यही कारण है कि राम-भक्त कवि ने अपने और राम के बीच सेवक-सेव्य भाव को स्वीकार किया है। तुलसीदास का कहना है- राम भक्त कवियों का भक्ति संबंधी दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अधिक उदार है। निःसन्देह राम-भक्ति को यहां सर्वश्रेष्ठ बताया गया है, किन्तु अन्य देवी-देवताओं की पूजा की भी यहां अस्वीकृति नहीं है जैसे कि सूर को छोड़कर अन्य पुष्टिमार्गी कवियों में। राम-भक्त कवि ज्ञान और कर्म की अलग-अलग महत्ता स्वीकार करते हुए भक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं।

5. रसः रामकथा अत्यंत व्यापक है। उसमें जीवन की विविध्ताओं का सहज सन्निवेश है। राम काव्य में सभी रसों का समावेश है किन्तु सेवक-सेव्य भाव की भक्ति होने के कारण निर्वेदजन्य शांत रस की प्रधनता है। राम मर्यादा पुरूषोत्तम हैं और भक्त-कवि भी मर्यादावादी है, कदाचित यही कारण है कि इस साहित्य में श्रृंगार रस के संयोग और वियोग पक्षों का सम्यक् परिपाक नहीं हो सका। यह बात अधिकतर तुलसी के साहित्य पर चरितार्थ होती है। आगे चलकर राम-भक्ति साहित्य परम्परा में सखी संप्रदाय में नख-शिख, अष्टयाम आदि रति-उत्तेजक विषयों का वर्णन होने लगा। राम-भक्ति के रसिक संप्रदाय में श्रंृगार रस का यथेष्ट परिपाक हुआ है। 

तुलसी के साहित्य में, विशेषकर ‘रामचरितमानस’ में, सभी रसों का समावेश है। युद्ध-वर्णन में वीर और रौद्र रस हैं। राम के ब्रह्मत्व के प्रतिपादन प्रकरणों में अद्भुत और भक्ति रस की अच्छी छटा है।

6. राम भक्ति में मधुर रस का समावेशः तुलसी के पूर्व और उनके समय में भी राम-साहित्य में मधुर रस का समावेश हो चुका था किन्तु तुलसी के समय में वह अपने पूर्ण रूप में उभर नहीं सका। तुलसी ने मर्यादा पुरूषोत्तम राम के जिस दुष्ट दमनकारी रूप की कल्पना की थी वह कुछ समय के बाद धीमी पड़ गई। 16वीं शताब्दी के बाद के 

साहित्य में कृष्ण भक्ति काव्य की प्रेम-लीलाओं के समान राम-साहित्य छबीले राम की रसिकतापूर्ण लीलाओं से भर गया। इसमें राम और जानकी के प्रणय, विलास, हास, वन और जल विहारों तथा काम-केलियों का निःशंक भाव से चित्रण किया जाने लगा। तुलसी जितनी दृढ़ता के साथ मर्यादावाद का पालन करते रहे उसके परवर्ती साहित्यकारों ने प्रतिक्रियात्मक रूप में मर्यादा की उनकी अवहेलना कर राम-भक्ति साहित्य में रसिकता का समावेश किया।

7. काव्य शैलीः सगुण परम्परा के कवि या तो स्वयं विद्वान थे अथवा विद्वानों की सत्संगति में साहित्य के ध्र्माें के संबंध् में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। अलंकार-शास्त्र की अवहेलना इनमें दृष्टिगोचर नहीं होती है। इनका अनेक काव्य शैलियों पर अध्किार था। राम-काव्य में सब शैलियों की रचनाएं मिलती हैं। ‘रामचरितमानस’ और ‘अष्टयास’ में वीरगाथाओं की प्रबंध् प(ति है। मंगल काव्य का उल्लेख मिलता है।

8. छन्दः रचनाभेद, भाषाभेद, विचारभेद, अलंकारभेद के साथ राम काव्य में छन्दभेद भी पाया जाता है। वीरगाथाओ के छप्पय, सन्त काव्य के दोहे, प्रेम काव्य के दोहे, चैपाई और इनके अतिरिक्त कुण्डलिया, सोरठा, सवैया, घनाक्षरी, तोमर, त्रिभंगी आदि छन्द प्रयुक्त हुए हैं। दोहा, चैपाई का

मुख्य प्रयोग हुआ है। तुलसी ने इनका प्रयोग अधिकारपूर्वक किया है। केशव ने अनेक छन्दों में
कला का प्रदर्शन किया है, परन्तु उनमें भावानुकूलता नहीं है।

9. अलंकारः राम भक्त-कवि पंडित हैं। इनमें अलंकारशास्त्र के प्रति अवहेलना नहीं है। जहां इन्होंने विविध् छन्दों का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया है केशव को छोड़कार इनमें से किसी ने भी शब्दालंकारों का आदर नहीं किया। वैसे तो तुलसी-काव्य में प्रायः सभी अलंकार मिल जाते हैं, परन्तु वे उपमा और रूपक के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं।

10. भाषाः राम काव्य की भाषा प्रधानतः अवधी है। केशव की राम-चन्द्रिका में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। बाद के राम-भक्ति के रसिक संप्रदाय के कवियों ने प्रायः ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। तुलसी ने अवध्ी तथा ब्रज दोनों भाषाओं का सफल प्रयोग किया है। राम-काव्य में भोजपुरी, राजस्थानी, संस्कृत और फारसी भाषाओं के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। तुलसी ने भाषा का परिष्कृत रूप प्रस्तुत किया है। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्तिकालीन रामकाव्य मात्रा और परिणाम की दृष्टि से कृष्ण काव्य से न्यून है और संभव है कि सन्त काव्य और प्रेम-काव्य से भी न्यून हो, जब तक इस धारा के रसिक संप्रदाय के कवियों का साहित्य प्रकाश में न आ जाये, पर यह साहित्य काव्य रूपों, शैली और भाषा की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध है।

भाषा की दृष्टि से तो यह साहित्य महान ही है।

सगुण भक्ति धारा के कवि 

सगुण भक्ति धारा के कवि



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