सुन्नी-शिया सम्प्रदाय इस्लाम में सबसे बड़ा और एक सबसे शुरू का विभाजन ‘शिया’ मत के प्रकट होने का परिणाम था। अरबी शब्द
‘शिया’ का अर्थ है-दल, सम्प्रदाय अथवा संघ-भेद। बहुत से विद्वानों का मानना है कि शिया आन्दोलन विजेता अरबों
के विरुद्ध ईरानियों के असन्तोष तथा संघर्ष की अभिव्यक्ति था। यह आंशिकतः सही भी है मगर शिया मत ऐसा
तुरन्त नहीं, बल्कि बाद में जाकर बना। आरम्भ में स्वयं अरबों के बीच, हजरत मुहम्मद के उत्तराधिकारियों के बीच
सत्ता के लिए संघर्ष से हुआ था।
मुहम्मद साहब के कोई पुत्र नहीं था, केवल एक बेटी थी जिसका नाम फातिमा
था। फातिमा बीबी का विवाह हजरत अली से हुआ था। हजरत मुहम्मद साहब के बाद खिलाफत (धर्म -राज्य) पद
पर हजरत अली की जगह अबूबक्र को चुन लिया गया। यहीं से विवाद शुरू हुआ।
हजरत अली के दल (शिया)
का तर्क था कि उत्तराधिकार हजरत मुहम्मद के चचेरे भाई एवं दामाद अली को मिलना चाहिए। वे लोग पूर्ववर्ती
खलीफाओं को मुहम्मद साहब का वैध उत्तराधिकारी नहीं मानते थे क्योंकि वे पैगम्बर साहब के वंश के न होकर
धार्मिक समुदाय द्वारा ‘चुने हुए’ थे।
अर्थात् उन्होंने सीधे-सीधे सत्ता पर अनाध्किार कब्जा किया था। शिया मत की
मुख्य विशेषता इस बात में विश्वास है कि पैगम्बर साहब के वैध उत्तराधिकारी-इमाम-केवल उनके गोत्र के ही लोग
हो सकते हैं। इस कारण शिया मतावलम्बी सुन्नी को नहीं मानते हैं, जिसकी रचना पहले खलीफाओं (अबूबक्र, उमर
और उस्मान) के शासनकाल में पैगम्बर विषयक अनुश्रुतियों से हुई थी।
हजरत अली चौथे खलीफा हुए। परन्तु शिया
लोग खलीफाओं की गणना यहीं से प्रारम्भ करते हैं। ‘सुन्नी’ को मानने वाले तथा अबूबक्र से खलीफाओं की गणना
करने वाले सुन्नी कहलाये। इस्लामी समाज में सुन्नियों का बहुमत है। ईरान और इराक में शियाओं का बहुमत है।
शिया अनुश्रुतियों के अनुसार हजरत अली और उनको दो पुत्र-हसन और हुसैन दीन की खातिर शहीद हुए थे। उनकी
शहादत की याद में शिया लोग हर वर्ष मुहर्रम के महीने में शोक मनाते हैं।
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