व्यक्तित्व और उसके निर्धारक क्या है ?

प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेष गुण या विशेषताएं होती है जो दूसरे व्यक्ति में नहीं होतीं। इन्हीं गुणों एवं विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है। व्यक्ति के इन गुणों का संगठन ही व्यक्ति का व्यक्तित्व कहलाता है।

व्यक्तित्व परिभाषाएं

मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों ने व्यक्ति के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए परिभाषाएं दी हैं।

1. कैम्फ के अनुसार ‘‘व्यक्तित्व उन प्राभ्यास संस्थाओं का या उन अभ्यास के रूपों का समन्वय है जो वातावरण में व्यक्ति के विशेष सन्तुलन को प्रस्तुत करता है।’’ 

2. वारेन तथा कारमाइकल के अनुसार ‘‘व्यक्ति के विकास की किसी अवस्था पर उसके सम्पूर्ण संगठन को व्यक्तित्व कहते है।’’ 

3. मेकर्डी की परिभाषा को डा.जायसवाल इस प्रकार प्रस्तुत किया है ‘‘व्यक्तित्व रूचियों का वह समाकलन है जो जीवन के व्यवहार में एक विशेष प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है।’’

4. बोरिंग के अनुसार ‘‘व्यक्तित्व व्यक्ति का उसके वातावरण के साथ अपूर्व व स्थायी समायोजन है।

5. जायसवााल के अनुसार आलपोर्ट ने व्यक्तित्व को इस प्रकार परिभाषित किया है ‘‘व्यक्तित्व व्यक्ति की उन मनोशारीरिक पद्धतियों का वह आन्तरिक गत्यात्मक संगठन है जो कि पर्यावरण में उसके अनन्य समायोजनों को निर्धारित करता है।’’ 

व्यक्तित्व के निर्धारक 

व्यक्तित्व को प्रभावित करने में कुछ विशेष तत्वों का हाथ रहता है उन्हें हम व्यक्तित्व के निर्धारक कहते है। इन्हीं तत्वों के प्रभाव से इन्हीं तत्वों के अनुरूप व्यक्तित्व का विकास होता है। कुछ विद्वानों ने व्यक्तित्व के निर्धारण में जैविक आधार को प्रमुख माना है तो कुछ ने पर्यावरण संबंधी आधार को प्रधानता दी है, परन्तु व्यक्तित्व के विकास में इन दोनों निर्धारकों का प्रभाव रहता है। अत: इन दोनों निर्धारकों - 1. जैविक 2. पर्यावरण का अध्ययन आवश्यक है।

1. जैविक निर्धारक -

 मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व प्रभावित करने वाले चार जैविक निर्धारकों को प्रमुख माना है -

1. आनुवांशिकता - व्यक्तित्व में कुछ गुण पैतृक या आनुवांशिक होते है। शरीर का रंग, रूप, शरीर की बनावट गुणों से युक्त हो सकते है। इसका कारण बालक को प्राप्त हुए अपने माता-पिता के पितृय सूत्र क्रोमोसोम्स है। बालक की आनुवंशिकता में केवल उसके माता-पिता की देन ही नहीं होती। बालक की आनुवांशिकता का आधा भाग माता-पिता से, एक चौथाई भाग दादा-दादी से, नाना-नानी से व आठवां भाग परदादा-दादी और अन्य पुरखों से प्राप्त होता है। अत: बालक के व्यक्तित्व पर पैतृक गुणों का प्रभाव पड़ता है। उसका रंग-रूप या शारीरिक गठन के गुण उसके माता या पिता से या उसके दादा या दादी के गुणों के अनुरूप हो सकते है। इसी तरह उसमें बुद्धि एवं मानसिक क्षमताओं के गुण अपने पूर्वजों के अनुरूप हो सकते है। 

कई अध्ययनों में यह देखा गया है कि पूर्वजों की मानसिक व्याधियों के गुण उनकी पीढ़ी के किसी भी व्यक्ति में प्रकट हो सकते है। इस तरह हम देखते है कि पैतृक गुणों का व्यक्ति के व्यक्तित्व गठन पर कम या ज्यादा प्रभाव पड़ता है।

2. शारीरिक गठन और स्वास्थ्य - 
शारीरिक गठन के अन्तर्गत व्यक्ति की लम्बाई, बनावट, वर्ण, बाल, आंखें व नाक नक्शा आदि अंगों की गणना होती है। ये शारीरिक विशेषताएं इतनी स्पष्ट होती है कि बहुत से लोग इन्हीं से व्यक्ति का बोध करते है। शरीर से हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर व्यक्ति को देखकर लोग प्रभावित होते है। वे उसके शरीर के गठन की प्रशंसा करते है। इससे उस व्यक्ति के मानसिक पहलू पर प्रशंसा का प्रभाव ऐसा पड़ता है कि दूसरों की अपेक्षा वह अपने को श्रेष्ठ समझने लगता है और उसमें आत्मविश्वास और स्वावलम्बन के भाव पैदा हो जाते है। शारीरिक गठन ठीक न होने और शारीरिक अंगहीनता रहने पर व्यक्ति में हीन भावना पैदा हो जाती है। वह अपने आपको गया बीता व हीन समझता है और उसमें आत्मविश्वास की कमी हो सकती है, वह अपने कार्य की सफलता में सदा आशंकित रहता है और अभाव की पूर्ति के लिए वह असामाजिक व्यवहार को अपना सकता है। व्यक्तित्व विकास पर स्वास्थ्य का भी असर पड़ता है। जो व्यक्ति शारीरिक रूप से स्वस्थ रहता है वह अच्छा सामाजिक जीवन व्यतीत करता है और उसमें सामाजिकता विकसित होती है। 

स्वस्थ्य व्यक्ति अपने कार्य को सफलता से समय पर पूरा करके अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर लेता है। इसके ठीक विपरीत अस्वस्थ्य व्यक्ति का व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है। अस्वस्थता के कारण अपने कार्यों को समय पर पूरा नहीं कर पाता जिससे वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति समय पर नहीं कर पाता। उसमें कार्य करने की रुचि भी कम रहती है। अस्वस्थ व्यक्ति दूसरों को प्रभावित भी नहीं कर सकता। इस तरह, व्यक्तित्व पर शारीरिक गठन और स्वास्थ्य का काफी प्रभाव पड़ता है।

3. अंत:स्रावी ग्रंथियां एवं व्यक्तित्व - व्यक्तितव के विकास में अन्त:स्रावी ग्रंथियों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। ये प्रत्येक मनुष्य के शरीर में पायी जाती है। इन ग्रंथियों को नलिका विहीन ग्रंथियां भी कहते है। ये बिना नलिकाओं के शरीर में स्राव भेजती हैं। इनके स्राव न्यासर या हार्मोन्स कहलाते है। विभिन्न ग्रंथियां एक या एक से अधिक हार्मोन्स का स्राव करती है। मुख्य रूप से ये ग्रंथियां 8 होती है। ये है-इन ग्रंथियों के स्राव का व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है, इसका संक्षेप में वर्णन आगे किया जा रहा है।
  1. पियूष ग्रंथि- इस ग्रंथि को मास्टर ग्लेण्ड भी कहते है। इससे पिट्यूटिराइन नामक हार्मोन्स उत्पन्न होते है। ये हार्मोन्स शरीर के अन्य ग्रंथियों के हार्मोन्स पर नियंत्रण करते है। इन हार्मोन्स के मुख्य हार्मोन सोमेटोट्रोपिक है। शारीरिक विकास पर इस हार्मोन का बहुत प्रभाव पड़ता है। विकास काल में इस ग्रंथि की क्रिया तीव्र होने पर व्यक्ति की अस्थियां, मांसपेशियां और लम्बाई तेजी से बढ़ती है। सामान्य से अधिक मात्रा में इस हार्मोन का स्राव हो तो व्यक्ति की लम्बाई असामान्य या दानवाकार हो जाती है। उसकी लम्बाई 7 से 9 फीट तक बढ़ जाती है। व्यक्ति के विकास काल में स्राव सामान्य से कम मात्रा में होने से व्यक्ति बौना रह जाता है यद्यपि उसकी बुद्धि सामान्य स्तर की रहती है, परन्तु शारीरिक गठन आकर्षक नहीं होता है। पियूष ग्रंथि के दो भाग होते है-अग्र एवं पश्च भाग। पश्च भाग रक्त चाप, वृक्क-कार्य एवं वसा चयापचय को नियंत्रित करता है। जबकि अग्र भाग उपरोक्त शारीरिक विकास को नियंत्रित करता है। 
  2. पीनियल ग्रंथि - यह ग्रंथि मस्तिष्क में स्थित होती है। यह रहस्यमयी ग्रंथि है। पूर्व में इसको आत्मा व शरीर का सेतु माना जाता था। इसके कार्य व स्राव अभी भी रहस्यमयी है फिर भी यह अनुमान लगाया जाता है कि ये शारीरिक वृद्धि और युवावस्था को बनाये रखने में सहायक है। 
  3. गल ग्रंथि - यह ग्रंथि कण्ठ में स्थित होती है। इस ग्रंथि से थायरोक्सिन नामक हार्मोन स्रावित होता है जो शरीर में आयोडीन की मात्रा को नियंत्रित करता है। यदि बाल्यावस्था में आयोडीन की मात्रा की कमी हो तो शरीर व मस्तिष्क का उचित विकास नहीं होता है फलस्वरूप व्यक्ति मन्द बुद्धि और छोटे कद का होता है। उसके शरीर में दुर्बलता होती है। जब यह ग्रंथि अधिक सक्रिय हो जाती है तब व्यक्ति को भूख ज्यादा लगती है। हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। थायरोक्सिन का प्रभाव व्यक्ति के भावों व संवेगों पर भी पड़ता है। इसमें स्रावित होने वाली आयोडीन की कमी से गलगण्ड नामक रोग हो जाता है। 
  4. उपगल ग्रंथि -ये ग्रंथियां गल ग्रंथि के पास ही स्थित होती है। ग्रंथियों के स्राव शरीर को शक्तिमान बनाये रखती है। यदि उपगल ग्रंथियों को अलग कर दिया जाए या ग्रंथियों कि अस्वस्थता हो तो इनके स्राव के अभाव के कारण सम्पूर्ण शरीर का अनुपात नष्ट हो जाता है और शरीर में ऐंठन तथा मरोड़ पैदा हो जाती है जिससे मनुष्य की मृत्यु तक हो जाती है। 
  5. थाइमस ग्रंथि - यह ग्रंथि सीने के अग्र भाग की गुहा में स्थित होती है। इसके कार्य तथा स्रावों के बारे में निश्चित जानकारी नहीं है फिर भी ऐसा माना जाता है कि युवावस्था में यह यौन ग्रंथियों पर नियंत्रण रखती है तत्पश्चात यह ग्रंथि सिकुड़कर छोटी हो जाती है और अपना कार्य बन्द कर देती है।
  6. अधिवृक्क ग्रंथि  -इस ग्रंथि से अधिवृक्कीय नामक हार्मोन स्रावित होता है। जिसका व्यक्तित्व पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। सामान्य मात्रा में यह पुरुषों और स्त्रियों में उनके सामान्य गुणों को बनाये रखता है। अधिक मात्रा में स्रावित होने पर स्त्रियों में पुरुषोचित गुणों को बढ़ा देता है। स्त्रियों में अधिवृक्की हार्मोन की मात्रा बढ़ जाने से स्त्रियों के अंगों की गोलाई खत्म हो जाती है और आवाज भारी हो जाती है। यह आपत्ति के समय जीव की शक्तियों का संगठन करता है। इसकी अधिकता से दिल की धड़कनें तेज हो जाती है। रक्तचाप बढ़ जाता है, पसीना आता है तथा आंखों की पुतलियां फैल जाती है। अधिवृक्क के अभाव में एडिसन नामक बिमारी हो जाती है जिससे शरीर में निर्बलता और शिथिलता बढ़ जाती है, चयापचय (डमजंइवसपेउ) की क्रिया मंद पड़ जाती है, सर्दी-गर्मी सहन करने की क्षमता भी कम हो जाती है और चिड़चिड़ापन बढ जाता है। 
  7. अग्न्याशय ग्रंथि -यह ग्रंथि अग्न्याशय रस स्रावित करती है जिसमें इन्सुलीन नामक हार्मोन होता है। यह हार्मोन रक्त में शर्करा को पचाता है जिससे शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है। इसकी कमी या अभाव में शर्करा का पाचन नहीं हो पाता जिससे मधुमेह नामक रोग हो जाता है। इससे व्यक्ति को चक्कर आते है, कार्य करने की क्षमता कम हो जाती है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और भय की भावना बढ़ जाती है। 
  8. जनन ग्रंथि - जनन ग्रंथियों के स्राव का भी व्यक्ति पर विशेष: प्रभाव पड़ता है। यौन सम्बन्धित रुचि के विकास में यह ग्रंथि सहायक होती है। किशोर अवस्था में ये ग्रंथियां विशेष रूप से सक्रिय होती है अत: इस आयु में स्त्रियों और पुरुषों में यौन चिन्ह प्रकट होने लगते है। पुरुषों में पुरुषोचित यौन लक्षण दाड़ी, मूंछ, भारी आवाज आदि का विकास होता है। ये परिवर्तन टेस्टोस्टेरोन हार्मोन स्रावित होने के कारण होते है। इसी तरह स्त्रियों में स्त्री सुलभ लक्षण जैसे दुग्ध ग्रंथियों आदि का विकास एस्ट्रोजन हार्मोन के स्राव के कारण होता है। 
    4. शारीरिक रसायन- प्राचीन काल से मनुष्य के स्वभाव का कारण उसके शरीर के रसायन के तत्वों को भी माना गया है। ईसा से लगभग 400 वर्ष पूर्व यूनान के प्रसिद्ध चिकित्सक व विचारक हिपोक्रेटीज ने शरीर में पाये जाने वाले रसायनों के आधार पर व्यक्ति के स्वभाव का निरूपण किया है। लगभग इस प्रकार का वर्णन आयुर्वेद में भी किया है। ये शारीरिक रसायन चार प्रकार के होते है।
    1. रक्त, 
    2. पित्त, 
    3. कफ और 
    4. तित्लीद्रव्य। 
      1. रक्त की अधिकता से व्यक्ति आदतन आशावादी और उत्साही (fenguine) होता है। 
      पित्त की अधिकता वाले व्यक्ति चिड़चिड़े या कोपशील (Choleric) प्रकृति के होते है। जिस व्यक्ति में कफ अथवा श्लेष्मा की प्रधानता होती है वे शान्त व आलसी होते है। ऐसे व्यक्ति को श्लेष्मिक (Phelgmatic) प्रकृति का कहते है। जिस व्यक्ति में तिल्ली द्रव्य या श्याम पित्त की प्रधानता होती है। ऐसे व्यक्ति उदास (Melancholi) रहने वाले होते है इन्हीं के आधार पर हिप्पोक्रेटीज ने व्यक्तित्व के प्रकारों का वर्णन किया है। 

      उपरोक्त जैविक कारकों के अतिरिक्त कुछ अन्य जैविक कारक भी है जो व्यक्तित्व को प्रभावित करते है, ये कारक है-बुद्धि, रंगरूप, लिंग ।

        2. पर्यावरण सम्बन्धी निर्धारक

        इसमें निम्न तीन निर्धारक आते हैं-

        1. प्राकृतिक निर्धारक-मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण में रहता है अत: उसके जीवन तथा व्यक्तित्व पर भौगोलिक परिस्थितियों एवं जलवायु का प्रभाव पड़ता है। भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायु का उसके स्वास्थ्य, शरीर की बनावट तथा मानसिक स्थितियों पर प्रभाव पड़ता है। जैसे ठण्डी जलवायु में रहने वाले व्यक्तियों का रंग गोरा होता है जबकि गर्म जलवायु में रहने वाले व्यक्ति सांवले रंग के होते है। भौगोलिक परिस्थितियों का भी शारीरिक गठन पर प्रभाव पड़ता है जैसे पहाड़ी लोगों का शारीरिक गठन। जिन जगहों पर भूकम्प या प्राकृतिक आपदाएं ज्यादा होती है वहां के लोगों में सुरक्षा की भावना कम होती है। यदि व्यक्ति की भौगोलिक परिस्थितियों या जलवायु बदल दी जाये तब उनके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आ जाता है। जैसे ऊष्ण प्रदेश में रहने वाले लोगों को शीत प्रदेश में रखा जाए तो उनके कार्य करने की क्षमताएं घट सकती है और स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है। इसी तरह ठण्डे प्रदेश में रहने वाले व्यक्तियों को यदि ऊष्ण प्रदेश में रखा जाए तो ऐसा ही प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है।

        2. सामाजिक निर्धारक-व्यक्ति सामाजिक जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वह समाज में रहता है। अत: समाज का, समाज की संरचना का और समाज के लोगों का उस पर बहुत प्रभाव पड़ता है। 

        (A) परिवार या घर का प्रभाव

        (iमाता-पिता का प्रभाव (Effect of Parents)- सभी मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि व्यक्तित्व के विकास में घर के परिवेश का बड़ा प्रभाव पड़ता है। परिवार के सदस्यों का भी बालक के व्यक्तित्व के विकास पर प्रभाव पड़ता है। जन्मकाल से ही मनुष्य का व्यक्तित्व का विकास प्रारम्भ हो जाता है। जन्म के समय उसकी माता तक ही उसका परिवार सीमित रहता है। उसे अपने सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी माता पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: माता के विवेकशील और व्यवहार कुशल रहने पर तथा बालक को सही ढंग से देखभाल करने से सन्तान या बालक का व्यक्तित्व विकास उचित ढंग से होता है। 

        माता-पिता के प्रेम के अभाव का सभी बालकों पर एक सा प्रभाव पड़ता है क्योंकि इसमें बालक के जन्मजात स्वभाव और प्रवृत्तियों का बड़ा महत्व है। माता-पिता के प्रेम की अवहेलना और ताड़ना से एक बालक दब्बू बन सकता है परन्तु दूसरा बालक दबंग और उद्दंड बन सकता है। 

        (ii) घर के अन्य सदस्यों का प्रभाव (Effeect of other members of family)- बालक के व्यक्तित्व पर घर के अन्य सदस्यों का काफी प्रभाव पड़ता है। घर में रहने वाले दादा-दादी या नाना-नानी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, मामा-मामी, बड़े भाई-बहन या अन्य कोई रिश्तेदार जो उसके परिवार में रहते है, का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व के विकास पर पड़ता है। बालक इनके व्यवहारों को देखता है और सीखता है। कालान्तर में ये व्यवहार उसके व्यक्तित्व का एक भाग बन जाता है। परिवार में बड़े लोग बालक के सामने आदर्श के समान होते है बालक उन जैसा बनना चाहता है और वह तादाम्य क्रिया अपनाता है। 

        (iii) जन्म क्रम का प्रभाव (Effect of birth order)- प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एल्फ्रैड एडलर के अनुसार परिवार में बालक के जन्मक्रम का उसके व्यक्तित्व पर बड़ा प्रभाव पड़ता है, उसकी शारीरिक स्थिति तथा उसके कार्यशैली पर भी प्रभाव पड़ता है। सबसे छोटा बालक सभी से लाड़-प्यार पाता है अत: वह दूसरों पर अत्यधिक निर्भर बन जाता है। सबसे बड़ा बालक स्वावलम्बी व निर्दयी बन जाता है, क्योंकि कुछ दिन तक इकलौते रहने के कारण न तो कोई उसकी चीजों में हिस्सा बांटता है और न कोई उसका अधिकार छीनने वाला होता है परन्तु दूसरे बालक के जन्म से पहले बालक के मन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है क्योंकि इससे उसका एकाधिकार छिन जाता है और कभी-कभी तो उसकी अवहेलना होने लगती है। अत: वह छोटे बालक के प्रति ईर्ष्या करने लगता है और अपना अधिकार बनाये रखने की कोशिश करता है। 

        (B) विद्यालय का प्रभाव ( Effect of School ) 

        बालक के व्यक्तित्व विकास पर विद्यालय, विद्यालय में होने वाले अध्ययन, विद्यालय के शिक्षक, बालक के सहपाठी तथा विद्यालय की भौगोलिक स्थिति का बहुत प्रभाव पड़ता है। आगे इन कारकों का संक्षिप्त में वर्णन किया जा रहा है।

        (i) शिक्षा का प्रभाव (Effect of education) - विद्यालय में शिक्षा किस प्रकार की दी जाती है इसका प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है। कई विद्यालयों में धार्मिकता, कट्टर धार्मिकता की शिक्षा दी जाती है इससे बालक के व्यक्तित्व का विकास संकीर्णन और एक निश्चित धर्म की तरफ होता है। इससे बालक दूसरे धर्मों के प्रति ईर्ष्या और द्वेष करने वाला बन जाता है। 

        (ii) शिक्षकों का प्रभाव (Effect of educators) -यदि शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली हो तो बालक के व्यक्तित्व विकास पर उसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है। कई बार बालक शिक्षकों के नकारात्मक गुणों को सीख जाता है। शिक्षकों द्वारा बालकों से बीड़ी, सिगरेट मंगवाना और उनकी उपस्थिति में उनका प्रयोग करना घातक है क्योंकि इसका तादाम्य कर बालक बीड़ी, सिगरेट पीना सीख जाता है। यदि शिक्षकों में अच्छे गुण है तो बालक भी उन गुणों का तादात्म्य कर लेता है, फलस्वरूप बालक के व्यक्तित्व विकास में वे गुण जुड़ जाते है। 

        (C) समाज का प्रभाव-(Effect of society) - समाज की परम्पराओं रीति-रिवाजों, सामाजिक नियमों का व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति समाज के लोगों के आचरण तथा प्रतिमानों को अपनाता है। जाति, वर्ण तथा व्यवसाय के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की समाज में स्थिति अलग-अलग होती है। परिवार की सामाजिक स्थिति से बालकों के व्यक्तित्व पर भी प्रभाव पड़ता है। वर्णभेद जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा जातिभेद अर्थात् विभिन्न जातियों की सामाजिक स्थितियां भिन्न-भिन्न है। कुछ लोग जाति-प्रथा, पर्दा-प्रथा, बाल विवाह के पक्षधर होते है तो कुछ घोर विरोधी। कुछ लोग समाज के प्रत्येक नियम को तोड़ने को तत्पर दिखाई देते है जबकि कुछ लोग उनका कठोरता से पालन करते दिखाई पड़ते है। ऊंची जाति के बालकों में बड़प्पन की भावना और नीची जातियों में हीनता की भावना देखी जा सकती है। ऊंचे घरानों के बालकों का व्यक्तित्व संयमित दिखाई पड़ता है परन्तु इसके लिए कोई ठोस मनोवैज्ञानिक प्रमाण नहीं है।

        बालक के व्यक्तित्व के विकास पर समाज सुधारकों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं तथा समाज विरोधी व्यक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है। समाज सुधारक, समाज सेवी तथा सामाजिक कार्यकर्त्ता समाज के कल्याण तथा समाज के उत्थान के लिए कार्य करते है और इनका प्रभाव बालकों के व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है। इसी तरह समाज विरोधी कार्य करने वाले और सामाजिक कंटकों का भी प्रभाव व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है। 

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