व्यावहारिक शोध क्या है ?

जब उपयोगितावादी दृष्टिकोण को लेकर उद्योग या प्रशासन के लिए तथ्यों का संकलन किया जाता है एवं नीति-निर्माताओं को इसकी आवश्यकता होती है तो इसे व्यावहारिक शोध के नाम से जाना जाता है। होर्टन तथा हंट ने बताया है कि जब किसी ऐसे ज्ञान की खोज के लिए वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है जिसकी व्यावहारिक समस्याओं को हल करने में उपयोगिता है, तो इसे व्यावहारिक शोध कहा जाता है। 

ज्ञान के व्यावहारिक पक्ष पर जोर देते हुए श्रीमती पी.वी. यंग ने लिखा है, ज्ञान की खोज का लोगों की आवश्यकताओं एवं कल्याण के साथ एक निश्चित संबंध पाया जाता है। वैज्ञानिक यह मानकर चलता है कि समस्त ज्ञान मूलतः उपयोगी है, चाहे उसका उपयोग निष्कर्ष निकालने में या किसी क्रिया अथवा व्यवहार को कार्यान्वित करने में, एक सिद्धांत के निर्माण में या एक कला को व्यवहार में लाने में किया जाए। सिद्धांत तथा व्यवहार अक्सर आगे चलकर एक-दूसरे में मिल जाते हैं। श्रीमती यंग के इस कथन से व्यावहारिक शोध की महत्ता स्पष्ट हो जाती है।

व्यावहारिक शोध का संबंध सामाजिक जीवन के व्यावहारिक पक्ष से है। इसका प्रयोग केवल सामाजिक समस्याओं को यथार्थ रूप में समझने के लिए ही नहीं किया जाता बल्कि सामाजिक नियोजन, समाज-कल्याण, स्वास्थ्य-रक्षा, समाज-सुधार, धर्म, शिक्षा, सामाजिक अधिनियम, मनोरंजन आदि के संबंध में यथार्थ जानकारी प्राप्त करने के लिए भी किया जाता है। वर्तमान में तो उद्योग, व्यापार, प्रशासन, सांप्रदायिक, प्रजातीय एवं अंतर्राष्ट्रीय तनाव तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की समस्या आदि क्षेत्रों में व्यावहारिक शोध को उपयोगी माना जाता है। व्यावहारिक शोध में इन सबके संबंध में अध्ययन किया जाता है और तथ्यों की कारण सहित विवेचना की जाती है। इससे ज्ञान में वृद्धि होती है, सामाजिक समस्याओं एवं व्याधिकीय व्यवहार को समझने में मदद मिलती है। लेकिन यहाँ हमें यह ध्यान में रखना है कि व्यावहारिक-शोध के अंतर्गत समाज-सुधार, नीति-निर्धारण, सामाजिक नियोजन, सामाजिक समस्याओं का समाधान आदि नहीं आते हैं। ये सब तो समाज-सुधारकों, नेताओं, प्रशासकों, अधिकारियों आदि के क्षेत्र में आते हैं। 

व्यावहारिक शोधकर्ता तो सामाजिक समस्याओं, व्याधिकीय परिस्थितियों तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों का यथार्थ चित्रण कर तर्कयुक्त ज्ञान के रूप में इनके कार्य में योग देता है।

व्यावहारिक शोध में भी उन्हीं प्रविधियों एवं उपकरणों का प्रयोग किया जाता है जिनका प्रयोग विशुद्ध शोध में किया जाता है। अतः व्यावहारिक शोध द्वारा प्राप्त ज्ञान व्यावहारिक जीवन से संबंधित समस्याओं को हल करने में और सामाजिक घटनाओं को नियंत्रित करने में काफी योग देता है। शोध-कर्ता अपने अध्ययन के निष्कर्षों या परिणामों के रूप में वुफछ ऐसे सुझाव प्रस्तुत करता है जो समस्याओं के समाधान में काफी सहायक सिद्ध हो सकते हैं। 

व्यावहारिक शोध की उपयोगिता एवं महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्टाउफर ने लिखा है कि यदि समाज-विज्ञानों को अपना महत्व बढ़ाना है तो उन्हें अपने व्यावहारिक पक्ष को सफल बनाना होगा। स्टाउफर ने अन्यत्र लिखा है कि व्यावहारिक शोध सामाजिक विज्ञानों को तीन रूपों में महत्त्वपूर्ण योग देता हैः (i) कौन-से सामाजिक तथ्य किस प्रकार समाज के लिए उपयोगी हैं-इस बारे में विश्वसनीय प्रमाणों को प्रस्तुत करके, (ii) ऐसी प्रविधियों का उपयोग एवं विकास करके जो कि विशुद्ध शोध के लिए भी उपयोगी प्रमाणित हों तथा (iii) ऐसे तथ्यों व विचारों को प्रस्तुत करके जो सामान्यीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ायें। जहाँ विशुद्ध शोध सिद्धांत एवं नियमों को ज्ञात करता है, वहाँ व्यावहारिक शोध वास्तविक जीवन के संबंध में ज्ञान संकलित करता है। सिद्धांत एवं नियम विभिन्न समस्याओं को समझने और उनके हल खोजने में मदद करते हैं जबकि उन सिद्धांतों व नियमों की विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता का पता व्यावहारिक शोध द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर ही होता है।

विशुद्ध शोध का व्यावहारिक शोध को दिया जाने वाला योगदान भी किसी भी रूप में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। विशुद्ध शोध के आधार पर प्रतिपादित सिद्धांत अनेक व्यावहारिक समस्याओं को हल करने में योग देते हैं। इससे समस्याओं की गहराई तक पहुँचने एवं समस्या के वास्तविक कारणों का पता लगाने में सहायता मिलती है। साथ ही विशुद्ध शोध किसी समस्या के हल के वैकल्पिक तरीके ढूँढ़ निकालने में भी योग देता है। आज सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं मंे विशुद्ध शोध के महत्त्व को स्वीकारा गया है और इसी के परिणामस्वरूप वहाँ शोध-विभाग देखने को मिलते हैं।

अंत में हम यही कह सकते हैं कि विशुद्ध एवं व्यावहारिक दोनों ही प्रकार के शोध एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे के विकास में सहायक हैं। दोनों में निरंतर अंतः क्रिया होती रहनी चाहिए।

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