मिल के स्वतंत्रता संबंधी विचार । Mill's view on Liberty । J S Mill

जाॅन स्टुअर्ट मिल का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक चिन्तन ‘आन लिबर्टी’ (1859) नामक ग्रन्थ में निहित है। राजनीति दर्शन को यह ग्रन्थ उसकी अनुपम देन है। मिल का स्वतंत्रता संबंधी ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में स्वतंत्रता के समर्थन में लिखा गया, सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य माना जाता है। इसकी तुलना में मिल्टन के ऐरियोपेजिटिका ग्रन्थ को ही रखा जा सकता है। 

मैक्सी के शब्दों में, मिल के विचारों तथा वाद-विवादों की स्वतंत्रता के विषय में निबन्ध राजनीतिक साहित्य में बहुत उच्च कोटि का अध्याय है। यह अध्याय मिल की गणना मिल्टन, स्पिनोजा, वाल्टेयर, रूसो, पेन, जेफर्सन तथा स्वतंत्रता के अन्य महारथियों में करता है।

स्वतंत्रता संबंधी इस निबन्ध के कारण मिल की गणना स्वतंत्रता के महानतम पुजारियों में की जाती है। स्वतंत्रता की अवधारणा को पूरी तरह समर्पित अपनी तरह की यह पहली रचना है। इसमें स्वतंत्रता का प्रतिपादन-विश्लेषण एवं चित्रण धारा-प्रवाह भाषा में और तार्किक शैली में किया गया। इसके बारे में कहा जाता है कि यह सभी तरह के निरंकुशतावाद के विरुद्ध एक घोषणा पत्र है। यह पुस्तक सामाजिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता पर सर्वाधिक तार्किक एवं मुखर रचना है, इसीलिए मिल की ‘लिबर्टी’ को विश्व के राजनीतिक साहित्य सर्वश्रेष्ठ कृतियों में माना जाता है।

मिल ने स्वयं कहा है कि उसके पिता की पीढ़ी के उपोगितावादी उदारवादी शासन को इसलिए पसन्द नहीं करते थे कि उससे स्वतंत्रता प्राप्त होगी, बल्कि इसलिए पसन्द करते थे कि वह एक सक्षम शासन होगा। जब बेन्थम ने प्रबुद्ध निरंकुशता को छोड़कर उदारवाद को अपनाया तब उसने विवरण की कुछ बातों को छोड़कर और कुछ नहीं बदला था। मिल के विचार और अनुसन्धान की स्वतंत्रता, विवेचन की स्वतंत्रता और स्वनियन्त्रित नैतिक निर्णय तथा कार्य की स्वतंत्रता अपने आप में ही अच्छी चीजें थीं। इन आदर्शों ने उसके हृदय में ऐसा उत्साह तथा चैतन्य जागृत किया जो उसकी अन्य रचनाओं में नहीं दिखायी देता। इन गुणों के कारण ही मिल का स्वतंत्रता संबंधी ग्रन्थ स्वतंत्रता पर लिखा गया सर्वाधिक लोकप्रिय एवं चर्चित ग्रन्थ माना गया। एक सौ चालीस वर्ष उसने जिस तार्किक एवं सशक्त शैली में विचार एवं अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतिपादन किया, उसकी अनुगूंज आज उन देशों में भी सुनाई देने लगी है, जो जाने-अनजाने में मिल का अपमान एवं तिरस्कार करने में मजा लेते थे।

‘आन लिबर्टी’ पुस्तक ने उपयोगिता के साहित्य में एक नये स्वर को जन्म दिया।

स्वतंत्रता क्यों आवश्यक?

जाॅन स्टुअर्ट मिल के युग में राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों में काफी परिवर्तन आ गया था। राज्य की शक्तियां और कार्यक्षेत्रा निरन्तर बढ़ता जा रहा था। बेन्थम के विचारों से प्रभावित राज्य जीवन के विविध क्षेत्रों में अधिकाधिक विधियों का निर्माण करने लगे थे। जनहित के नाम पर शासन जीवन के विभिÂ क्षेत्रों के नियमन हेतु विधि निर्माण करने लग गये थे। ब्रिटिश पालियामेण्ट ने बाल श्रम संबंधी विधियों की रचना की थी जिनसे बालकों की अपनी आजीविका कमाने की स्वतंत्रता और माता-पिता की उन्हें काम पर भेजने की स्वतंत्रता सीमित हो गयी थी। 

बेन्थमवाद के परिणामस्वरूप राज्य का कार्य क्षेत्र बढ़ा, सरकारी सेवाओं के विस्तार सरकार के आकार में वृद्धि हुई और विधियों की बढ़ती हुई संख्या से व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर कई प्रतिबन्ध लगने लगे। इंग्लैण्ड में एक बहस चल पड़ी-व्यक्ति या राज्य। कौन साध्य है, कौन साधन? पिफर विधि निर्माण के क्षेत्र में संसद सर्वोच्च थी, बहुमत की इच्छाओं के योग का प्रतिनिधित्व करने वाले उसके कार्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकते थे। 

मिल को डर था कि स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा सरकार की और से नहीं आता बल्कि ऐसे बहुमत की ओर से आता है जो नये विचारों के प्रति असहिष्णु होता है, जो विरोधी अल्पसंख्यकों को सन्देह की दृष्टि से देखता है और जो अपने बहुमत के जोर से उनको दबा देना चाहता है। यह एक ऐसी सम्भावना थी जिसके बारे में पुरानी पीढ़ी के उदारवादियों ने कभी विचार नहीं किया था। उनकी मुख्य समस्या यह रही थी कि सत्तारूढ़ अल्पसंख्यक वर्ग के हाथों से शासन सूत्रा अपने हाथ में ले लेने से सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। 

जेम्स मिल का विचार था कि प्रतिनिधित्व के सुधार, मताधिकार के विस्तार और थोड़ी-सी सार्वजनिक शिक्षा के द्वारा राजनीतिक स्वतंत्रता की समस्त गम्भीर समस्याएँ सुलझ जायेंगी। 1859 तक यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि इन समस्त सुधारों के हो जाने के बाद भी वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुआ। राजनीतिक संगठन के चक्रव्यूह मे स्वतंत्रता के अभिमन्यु की रक्षा करना बहुत बड़ी समस्या बना हुआ था। पुराने उदारवादी इस बात को नहीं समझ सके थे, लेकिन जे. एस. मिल ने बात को पूरी तरह से समझ लिया था कि उदारवादी शासन के पीछे उदारवादी समाज भी होना चाहिए।

संक्षेप में, राज्य एवं शासन के बढ़ते हुए कार्यों, प्रजातन्त्रा के नाम पर बहुमत द्वारा अल्पमत पर मनचाहे प्रतिबन्ध लगाने की प्रवृत्ति अथवा जनमत के नाम पर अनावश्यक कानूनों को थोपने की प्रवृत्ति के विरुद्ध मिल ने व्यक्ति स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए उपयोगिता सिद्धांत को नकारते हुए स्वतंत्रता के व्यक्तिवादी प्रतिमान का समर्थन किया। 

स्वतंत्रता के दार्शनिक आधार

मिल ने स्वतंत्रता की अवधारणा का समर्थन दो प्रकार के दार्शनिक आधारों पर किया है-पहला, व्यक्ति की दृष्टि से और दूसरा, समाज की दृष्टि से। मिल के अनुसार व्यक्ति का मूल उद्देश्य अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है और यह विकास स्वतंत्रता के उन्मुक्त वातावरण में ही निर्बाध गति से हो सकता है। समाज के विकास की दृष्टि से भी मिल स्वतंत्रता के पर्यावरण को अपरिहार्य मानता है। उसकी दृष्टि में समाज का विकास कुछ विशेष प्रकार के व्यक्तियों से होता है। ये व्यक्ति कला, विज्ञान, साहित्य और अन्य क्षेत्रों में नवाचार लाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, परन्तु समाज का ढांचा रूढि़वादी होता है और अधिकांश नासमझ व्यक्ति रूढि़वादियों के छलावे में आकर सामाजिक परिवर्तन लाने वाले महान् व्यक्तियों के मार्ग में बाधा उत्पनन करते हैं। इससे समाज की सहज उननति का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। अतः समाज के उननयन एवं विकास हेतु यह आवश्यक है कि उसके समस्त घटकों को स्वतंत्रता प्रदान की जाये।

संक्षेप में, मिल ने जोरदार शब्दों में घोषणा की है कि स्वतंत्रता व्यक्ति और समाज दोनों के विकास के लिए अपरिहार्य है।

स्वतंत्रता के लक्षण

मिल ने स्वतंत्रता के दो लक्षण बतलाये हैं-पहला, व्यक्ति स्वयं अपना स्वामी है अर्थात् व्यक्ति अपने ऊपर सर्वोच्च सत्ता रखता है। मिल के अनुसार व्यक्ति अपने शरीर तथा मस्तिष्क का स्वामी है और इसलिए उसे अपने से सम्बन्धित प्रत्येक कार्य में पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए। इस क्षेत्र में समाज को व्यक्ति के आचरण पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहिए। उसे ‘स्व’ से सम्बन्धित समस्त कार्य करने की तब तक पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए जब तक वह दूसरों को हानि नहीं पहुंचाता। व्यक्ति को उस सीमा तक अपनी छड़ी घुमाने की स्वतंत्रता है, जिस सीमा तक वह दूसरे व्यक्ति की नाक से या सिर से न टकराये। 

स्वतंत्रता का दूसरा लक्षण है-अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता और ऐसी स्वतंत्रता को नियंत्रित किया जा सकता है। मिल कहता है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसे पुल से गुजर रहा है जिसके टूट जाने का भय है तो उसे ऐसे पुल पर जाने से रोका जा सकता है, क्योंकि नदी में गिरने की किसी व्यक्ति की इच्छा नहीं हो सकती। उसकी इच्छा पुल पार करने की है, किन्तु इसका नियन्त्रण करना इसलिए उचित है कि उसकी इससे भी बड़ी-जीवित रहने की इच्छा को संरक्षण मिलता है।

स्वतंत्रता के प्रकार

मिल ने स्वतंत्रता को दो भागों में बांटा है- 1. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, तथा 2. कार्य करने की स्वतन्त्रात। 

1. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता - मिल के अनुसार मानव समाज की उननति और प्रगति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। मिल का विश्वास है कि बौद्धिक अथवा वैचारिक स्वतंत्रता न केवल उस समाज के लिए ही हितकर है जो उसकी स्वीकृति देता है, बल्कि उस व्यक्ति के लिए भी हितकर है जो उसका उपभोग करता है। समाज और राज्य को कोई ऐसा अधिकार नहीं है कि वह व्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाये। मिल के मत में यदि सम्पूर्ण समाज एक ओर हो और यदि एक व्यक्ति अकेला दूसरी ओर हो तो भी उस व्यक्ति को विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए। 

मिल के शब्दों में, यदि एक व्यक्ति को छोड़कर सम्पूर्ण मानव जाति का मत एक हो तो भी मानव जाति को उस एक व्यक्ति को बलपूर्वक चुप कराने का कोई अधिकार नहीं है। जैसा कि यदि उस एक व्यक्ति के पास शक्ति होती, तो उसे मानव जाति को चुप कराने का अधिकार नहीं होता।

मिल ने निम्नलिखित तर्कों के आधार पर विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन किया है- 

(i). सत्य के दमन का भय-मिल के अनुसार विचारों पर प्रतिबन्ध लगाने का अर्थ सत्य पर प्रतिबन्ध लगाना है और सत्य पर प्रतिबन्ध का अर्थ समाज की उपयोगिता का दमन करना है। वस्तुतः प्रत्येक विचार या मत में सत्य का अंश विद्यमान रहता है।

(ii). सत्य के विभिन्न पहलू होते हैं-सत्य का विराट रूप है और उसके विविध पक्ष हैं। सत्य की खोज में मनुष्य की स्थिति अंधों जैसी है। हम सच्चाई के समग्र रूप का दर्शन नहीं कर पाते, किन्तु अपने अनुभव के आधार पर आंशिक सत्य को ही पूर्ण समझने का आग्रह करते हैं। सत्य के पूर्ण एवं वास्तविक रूप को समझने के लिए उसे विविध दृष्टिकोणों से समझना आवश्यक है और इसके लिए व्यक्ति को विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।

(iii). वादे-वादे जायते तत्व बोध-वाद-विवाद एवं विचार-विमर्श द्वारा सत्य की खोज की जा सकती है। विचार-विमर्श, तर्क -वितर्क एवं वाद-विवाद से विचारों का स्पष्टीकरण होता है, विश्वास सुदृढ़ होता है, बुद्धि अनुप्राणित होती है एवं सत्य की झलक मिलती है।

(iv). समाज के उत्थान के लिए-मिल के अनुसार सामान्यतः समाज परम्परावादी एवं रूढि़वादी होता है। वह नये विचार सुनना पसन्द ही नहीं करता, जबकि समाज सुधारक समाज में प्रचलित रूढि़वादी विचारों, रीति-रिवाजों और परम्पराओं को बदल देना चाहते हैं। यह परिवर्तन मात्रा विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ही आ सकता है।

(v). उच्च स्तर के नैतिक चरित्र का विकास-विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से उच्च स्तर के नैतिक चरित्र का जन्म एवं विकास होता है। सार्वजनिक प्रश्नों पर उन्मुक्त चर्चा होने से एवं राजनीतिक निर्णयों में जनसमुदाय का हाथ होने से लोगों में उनके प्रति नैतिक विश्वास की भावना जागृत होती है।

(vi). इतिहास द्वारा समर्थन-मिल का कहना है कि इतिहास भी स्वतंत्रता के पक्ष में अपना समर्थन प्रदान करता है। मिल सुकरात, ईसा मसीह और मार्टिन लूथर का उदाहरण देकर अपने तर्क की पुष्टि करता है। 

मिल के शब्दों में, मानव जाति को बार-बार यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि किसी जमाने में यूनान में सुकरात नाम का एक व्यक्ति हुआ था, जिसके विचार समाज में अधिकांश व्यक्तियों के विचारों से भिन्न थे और समाज के ठेकेदारों ने सुकरात को उसके भिन्न विचारों के कारण विषपान का दण्ड दिया था, जबकि सच्चाई यह है कि उन व्यक्तियों के विचार गलत और सुकरात के विचार सही थे।’ मिल ने धाराप्रवाह भाषा में इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहा, मानव जाति को बार-बार यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि येरूशलम में जीसस क्राइस्ट को समाज ने सूली पर चढ़ा दिया था, क्योंकि वह समाज द्वारा मान्य विचारों के विरुद्ध विचार व्यक्त करता था, परन्तु इतिहास साक्षी है कि उस व्यक्ति (जीसस) के विचार उसे सूली पर चढ़ाने वाले लोगों के विचारों से अच्छे थे।

इसीलिए मिल ने आग्रह किया-विचार अभिव्यक्ति को रोकने का एक विलक्षण दोष यह है कि ऐसा करना मानव जाति की आने वाली तथा वर्तमान नस्लों को लूटना है। कई बार समाज कुछ नवीन एवं विलक्षण विचार रखने वाले मनुष्यों को झक्की या सनकी समझता है, उनके विचारों एवं व्यक्तित्व का तिरस्कार एवं अपमान करता है। जबकि सत्य यह है कि हर मौलिक चिन्तक, समाज सुधारक पहले जो नई बात कहता है उसे सुकनर समाज चौंकता ही है। हर चिन्तक एवं समाज सुधारक को पहले सनकी एवं खब्ती समझा जाता है, परन्तु सत्य यह है कि इन्हीं सनकियों एवं खब्तियों ने मानव जाति के विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसलिए मिल कहता है कि इन तथाकथित सनकियों को भी उनके विचार व्यक्त करने दो। मिल के शब्दों में, कोई भी समाज जिसमें सनकीपन, मजाक एवं तिरस्कार का विषय न हो, पूर्ण समाज नहीं हो सकता।

विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मिल किसी प्रकार का अंकुश लगाने के पक्ष में नहीं है। उसकी स्पष्ट मान्यता है कि विचारों को खिलने दो, उन्हें अभिव्यक्त होने दो, उन्हें जंजीरों में मत बांधो। विचार मानव समाज के विकास, उसके उत्थान के आवश्यक प्रेरणा स्रोत हैं।

मिल ने समाज को एक प्रयोगशाला के रूप में कल्पित कर प्रत्येक प्रकार के विचारों एवं दृष्टिकोणों की अभिव्यक्ति का जोरदार समर्थन किया। बौद्धिक उत्कर्ष को इससे उत्तेजना मिलती है और नैतिक व्यक्तिवाद पुष्ट होता है।

2. कार्य करने की स्वतंत्रता - मिल के अनुसार स्वतंत्रता का दूसरा पक्ष ‘कार्यों की स्वतंत्रता’ है। मिल के शब्दों में फ्विचारों की स्वतंत्रता अपूर्ण है यदि उन विचारों को क्रियान्वित करने की स्वतंत्रता न हो। स्वतन्त्रा कार्य के अभाव में स्वतन्त्रा चिन्तन वैसा ही है कि पक्षी उड़ना तो चाहता है पर पंख नहीं। पर विचारणीय मुद्दा यह है कि जिस तरह विचारों की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश नहीं होना चाहिए, उसी तरह क्या कार्यों की स्वतंत्रता पर भी कोई बन्धन नहीं होना चाहिए? क्या व्यक्ति के कार्यों पर शासन और समाज का कोई बन्धन नहीं होना चाहिए?

इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की दृष्टि से मिल ने कार्यगत स्वतंत्रता के दो रूप बताये-पहला, ऐसे कार्य जिनका सम्बन्ध व्यक्ति ‘स्व’ के साथ होता है, इन्हें वह ‘स्व संबंधी कार्य’ कहता है तथा दूसरा, वे कार्य जिनका प्रभाव अन्य लोगों पर पड़ता है, इन्हें वह पर-संबंधी कार्य कहता है। 

मिल के अनुसार ‘स्व संबंधी कार्य’ व्यक्ति के वे कार्य हैं जिनसे अन्य व्यक्ति प्रभावित नहीं होते। इन कार्यों का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के नितान्त वैयक्तिक कार्यों से होता है, जैसे-सिगरेट पीना, पान खाना, कपड़े पहनना, शराब पीना, जुआ खेलना, आदि। वह सिगरेट पीये या पान खाये, शाकाहारी हो या मांसाहारी, आलू खाये या प्याज इससे समाज को कोई फरक नहीं पड़ता। स्व संबंधी ऐसे नितान्त निजी कार्यों को व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए, इनमें राज्य को कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहिए। 

मिल की मान्यता है कि जब तक कोई व्यक्ति ऐसा कोई करता है जिसका प्रभाव केवल उसी पर पड़ता है, दूसरों पर नहीं, तब तक राज्य को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ऐसा होने से ही व्यक्ति अपनी नैसर्गिक क्षमता का सर्वोच्च विकास कर सकता है, अपने सुख और कल्याण की अभिवृद्धि कर सकता है।

मिल के अनुसार ‘पर-संबंधी कार्य’ व्यक्ति के वे कार्य हैं जिनसे समाज तथा अन्य व्यक्ति प्रभावित होते हैं और ऐसे कार्यों में राज्य द्वारा हस्तक्षेप किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, शान्ति भंग करना, चोरी करना, सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करना, आदि हमारे ऐसे कार्य हैं जिनका प्रभाव समाज के दूसरे व्यक्तियों पर पड़ता है। अतः दूसरों पर प्रभाव डालने वाले कार्यों के सम्बन्ध में व्यक्ति को स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। ‘निश्चय ही व्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक है, किन्तु दूसरों की स्वतंत्रता का बलिदान करके नहीं।’ एक व्यक्ति को अपने घर में मदिरापान की स्वतंत्रता है, किन्तु यदि वह मदिरापान करके सड़क पर हुड़दंग मचाता है और पड़ोसियों की नींद हराम करता है तो उसे इस कार्य के लिए खुली छूट नहीं दी जा सकती।

स्वतंत्रता की सीमाएँ

व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप की परिस्थितियां-मिल व्यक्ति की स्वतंत्रता का महानतम् पुजारी था, परन्तु कुछ परिस्थितियों में वह स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने में भी नहीं हिचका। जिन परिस्थितियों का उसने उल्लेख किया है, वे इस प्रकार हैं-

1. यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग से दूसरे व्यक्तियों की स्वतंत्रता के खतरे में पड़ने की सम्भावना हो। इस सन्दर्भ में मिल ने गाड़ी चलाने के लाइसेन्स का उदाहरण दिया है। वह एक अनाड़ी चालक की स्वतंत्रता द्वारा सड़क पर चलने वालों को मृत्यु का ग्रास नहीं बनाना चाहता। इसी प्रकार चोर-डकैतों को भी स्वतंत्रता से वंचित करना चाहिए, क्योंकि उनके कार्य समाज के अन्य नागरिकों की स्वतंत्रता में बाधक होते हैं। 

2. मिल के अनुसार जब समाज अथवा राज्य की सुरक्षा संकट में हो तो व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, राज्य पर बाह्य आक्रमण के समय सभी नागरिकों से अनिवार्य सैनिक सेवा की आशा की जा सकती है।

3. तीसरी परिस्थिति वह है जब किसी व्यक्ति द्वारा अपनी स्वतंत्रता का ऐसा दुरुपयोग हो जिससे उसके सामाजिक कर्तव्य के पालन में रुकावट आने की सम्भावना हो। उदाहरणार्थ, मिल यूं तो मदिरापान को स्व संबंधी कार्य मानता है, किन्तु पुलिस के सिपाही को ड्यूटी पर शराब पीने की स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता क्योंकि उसको यह आशंका है कि शराब पीया हुआ सिपाही शान्ति स्थापित करने के बजाय शान्ति भंग करने वफा कार्य करेगा।

4. चतुर्थ, वे व्यक्तिगतकार्य जिनके द्वारा व्यक्ति अपना पूर्ण अहित करता है, राज्य के द्वारा रोके जा सकते हैं जैसे आत्महत्या करना। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति नदी पार करने के लिए एक ऐसे पुल से होकर जाना चाहता है जो टूटने की स्थिति में है तो ऐसी स्थिति में उसे पुल से होकर जाने से रोका जा सकता है क्योंकि व्यक्ति नदी पार तो करना चाहता है, परन्तु नदी में गिरना नहीं चाहता। अतः उसकी पहली इच्छा (नदी पार करने की) की अपेक्षा दूसरी इच्छा द्धनदी में न गिरने की) गुरुतर है। अतः उस गुरुतर इच्छा की पू£त के निमित्त सकारात्मक हस्तक्षेप किया जा सकता है।

मिल के स्वतंत्रता संबंधी विचारों की आलोचना

मिल की स्वतंत्रता की अवधारणा निस्सन्देह काफी सशक्त अवधारणा थी। स्वतंत्रता मिल के लिए सिर्पफ राजनीतिशास्त्र का एक सिद्धांत नहीं है, अपितु सभ्यता का आधार स्तम्भ है। स्वतन्त्रा, उदारचेतना परिष्कृत बुद्धि सम्पन्न मानवों से ही सभ्यता का विकास होता है। यूरोप के उत्थान का मूल रहस्य, मिल के अनुसार, विभिन्न विचारों (दृष्टिकोणों) के पारस्परिक संघर्ष के अवसर में ही है। यदि विरोधी विचारधाराओं में संघर्ष नहीं होता तब यूरोप भी दूसरा चीन हो जाता और गतिहीन होकर सिर्फ अनुसरणवादी रह जाता।

जोड ने मिल की स्वतंत्रता की अवधारणा को 19वीं शताब्दी के व्यक्तिवाद का आधार स्तम्भ माना। जोड के अभिमत में मिल ने उन विधिशास्त्रिायों, हीगलवादियों और विज्ञानवादियों के विरुद्ध अपना सिद्धांत प्रतिपादित किया जिन्होंने राज्य को सार्वभौमिक सर्वोपरि तत्व मानकर व्यक्ति को केवल साधन बना दिया। जोड के शब्दों में मिल का स्वतंत्रता पर लिखा गया निबन्ध विचारों की उन्मुक्ति का शायद सबसे सुन्दर दिग्दर्शन है और उन विचारों की सहिष्णुता का जिन्हें हम समझ नहीं पाते, समूचे साहित्य में सबसे शक्तिशाली तर्क है। 

सेबाइन के अनुसार राजनीति दर्शन को दी गई स्वतंत्रता की भेंट अद्वितीय है। डिनग के अनुसार मिल के स्वतंत्रता संबंधी निबन्ध ने व्यक्तिवाद का मार्ग प्रशस्त किया। गैटेल के अनुसार मिल की स्वतंत्रता की पुकार मानव व्यक्तित्व की रक्षा के लिए एक अमोघ अस्त्र प्रतीत होती है।

राजनीति दर्शन में स्वतंत्रता संबंधी मिल का सिद्धांत अमूल्य देन होने के बावजूद अनेक दृष्टियों से त्राुटिपूर्ण एवं असंगत माना जाता है। तार्किक दृष्टि से विश्लेषण करने पर इसमें निम्नलिखित त्राुटियां (दोष) दिखलायी देते हैं- 

1. खोखली और नकारात्मक स्वतंत्रता-प्रो. बारकर के अनुसार, मिल एक खोखली स्वाधीनता तथा काल्पनिक व्यक्ति का प्रतिपादन करने वाला पैगम्बर था। उसके पास अधिकारों के सम्बन्ध में कोई दर्शन नहीं था, इन्हीं अधिकारों से स्वतंत्रता के विचार को एक ठोस अर्थ प्राप्त होता है। चूंकि मिल बन्धनों के अभाव को स्वतंत्रता की संज्ञा देता है, अतः स्वतंत्रता की यह परिभाषा पूर्णतः नकारात्मक है। औद्योगिक सभ्यता को, जो कानूनों पर आधारित होती है, निषेधात्मक स्वतंत्रता की नहीं, सकारात्मक स्वतंत्रता की आवश्यकता है।

2. समानता की उपेक्षा-मिल स्वतंत्रता पर तो जोर देता है, किन्तु समानता को उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। वह स्वतंत्रता को अपने आप में पूर्ण मानता है, किन्तु स्वतंत्रता की सार्थकता के लिए समानता भी आवश्यक है। स्वतंत्रता समानता से अधिक उपयोगी हो सकती है, परन्तु समानता के अभाव में स्वयं स्वतंत्रता भी अधिक दिनों तक टिक नहीं सकती।

3. सनकी और झक्कियों को स्वतंत्रता देना हास्यास्पद-मिल सनकी और झक्की व्यक्तियों को भी विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है। उसको ऐसा लगता है कि इन सनकियों में से ही कोई सुकरात निकल आये जो समाज में क्रान्ति का सूत्रपात करके परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर दे, परन्तु डेविडसन का कथन है कि सनकीपन चरित्र की निर्बलता का द्योतक है न कि उसकी उत्कृष्टता का। इसको प्रोत्साहन देने के बजाय हतोत्साहित करना आवश्यक है।

4. कार्य स्वतंत्रता का भ्रांतिपूर्ण विभाजन-मिल द्वारा कार्य करने की स्वतंत्रता को दो वर्गों-स्व संबंधी और पर-संबंधी में बांटना भ्रांतिपूर्ण है। वास्तव में व्यक्ति के कार्यों में ऐसा भेद नहीं किया जा सकता। मिल के अनुसार शराब पीना स्व संबंधी कार्य है, यह तभी सामाजिक (पर संबंधी) रूप धारण करता है जब शराब पीकर कोई व्यक्ति सड़ पर हुड़दंग मचाये, किन्तु ऐसे व्यक्ति का अपने घर में शराब पीना भी नितान्तस्व संबंधी कार्य नहीं है, इसका उसकी पत्नी और बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। शराबी के बच्चे उसकी देखा-देखी उस दुव्र्यसन में फस सकते हैं और इससे समाज को हानि होगी। वस्तुतः व्यक्ति का कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जिसका समाज पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव न पड़ता हो। यहां तक कि आत्महत्या को भी व्यक्तिगत कार्य नहीं माना जा सकता।

5. व्यक्ति और समाज के बीच का सम्बन्ध गलत ढंग से प्रस्तुत करना- लिनडसे के अनुसार मिल के स्वतंत्रता संबंधी विचारों से दो तथ्य उभरते हैं-एक तो यह कि मिल अपनी इस पूर्व धारणा से कभी मुक्त नहीं हो पाये कि राज्य व्यक्ति के हितों का सहायक न होकर एक बाधा है और उसका हस्तक्षेप वांछित कम है और अवांछित अधिक है। दूसरे वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य की कमी स्वीकार नहीं कर सके कि समाज व्यक्तियों के एक स्वाभाविक और ऐच्छिक विकास का परिणाम है जब लोग केवल एक-दूसरे के साथ संघर्ष करने के लिए नहीं वरन् एक-दूसरे पर निर्भरता के लिए ही अधिक बसते हैं। मिल का राज्य एक ऐसा कृत्रिम राज्य है, जहां लिनडसे के शब्दों में मानो व्यक्ति एक-दूसरे से बिलकुल अलग रहकर सूनेपन का जीवन व्यतीत करते रहे हों और सर्वप्रथम ही राज्य में एकत्रित हुए हों।

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