मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत और उसकी आलोचना

एँगेल्स के शब्दों में, इतिहास की भौतिकवादी धारणा और अतिरिक्त मूल्य द्वारा पूंजीवादी उत्पादन के रहस्य का उद्घाटन-इन दो महान् आविष्कारों के लिए हम मार्क्स के आभारी हैं। इन आविष्कारों के साथ समाजवाद एक विज्ञान बन गया। लेनिन ने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत को मार्क्स की अर्थशास्त्राीय शिक्षा की आधारशिला कहा है।

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का गहन विश्लेषण करके मार्क्स ने यह सिद्ध किया कि यह व्यवस्था शोषण पर आधारित है। मार्क्स का ‘अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत’ ही वह सिद्धांत है जिसके द्वारा वह यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता है कि पूंजीपति श्रमिकों का शोषण करते हैं। इस सिद्धांत का प्रतिपादन मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दास वैफपीटल’ में किया है। ‘अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत’ मूल्य के श्रम सिद्धांत’ पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुसार फ्अन्त में किसी वस्तु का विनिमय मूल्य ;मगबींदहम अंसनमद्ध उसके उत्पादन में लगाए गए सामाजिक दृष्टि से लाभदायक श्रम की मात्रा पर निर्भर करता है।

मार्क्स अपने अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए प्रत्येक वस्तु के दो तरह के मूल्य बतलाता है- 

1. उपयोग मूल्य तथा 2. विनिमय मूल्य उपयोगिता मूल्य-मार्क्स ने उपयोगिता मूल्य और विनिमय मूल्य के मध्य अन्तर किया है। उपयोगिता का अर्थ है मनुष्य की इच्छा पूरी करना। जो वस्तुएँ मनुष्य की इच्छा पूरी करती हैं, वे उसके लिए उपयोगी हैं, अतः वे मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं। जो वस्तुएँ उसकी इच्छा को पूरी नहीं करतीं, वे उसके लिए उपयोगी न होने से कोई मूल्य नहीं रखतीं। उदाहरणार्थ, रेगिस्तान में बालू बहुत अधिक होती है और पानी की कमी पायी जाती है, अतः पानी अधिक उपयोगी है और बालू की कोई उपयोगिता नहीं है। पानी मनुष्यों की प्यास बुझाने के काम आता है, अतः बालू की तुलना में पानी अधिक मूल्यवान है।

विनिमय मूल्य-मूल्य का दूसरा आधार विनिमय है, इसे विनिमय मूल्य कहते हैं। विनिमय मूल्य इस बात में है कि उस वस्तु के बदले में क्या प्राप्त होता है। विनिमय मूल्य वह अनुपात है जिसके द्वारा वस्तुओं के बदले में विनिमय हो सके। उपयोगिता की वस्तु हुए बिना किसी वस्तु का मूल्य नहीं हो सकता, लेकिन हर उपयोगी वस्तु का विनिमय मूल्य होना आवश्यक नहीं है। खाने की वस्तु होने के कारण रोटी का उपयोग मूल्य है, लेकिन जब रोटी को बेचा जाता है, उस समय उसका दूसरा मूल्य है जिसे हम विनिमय मूल्य के नाम से पुकारते हैं। 

मार्क्स के अनुसार किसी वस्तु का विनिमय मूल्य उस वस्तु के उत्पादन पर खर्च किए गए सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम की मात्रा पर निर्भर करता है। यही मूल्य का मानदण्ड है। यदि पांच मन गेहूँ का विनिमय दस गज कपड़ा है तो इसका यह कारण है कि पांच मन गेहूँ पैदा करने में उतना ही श्रम लगता है जितना दस गज कपड़ा उत्पन्न करने में। अर्थात् किसी वस्तु का मूल्य उसमें लगाए गए श्रम के आधार पर निश्चित होता है। 

मार्क्स के अनुसार प्रत्येक वस्तु का वास्तविक मूल्य वह श्रम है जो उसे मानव उपयोगी बनाने के लिए उस पर व्यय किया जाता है, क्योंकि वही उसमें ‘विनिमय मूल्य’ पैदा करता है। मार्क्स स्पष्टतया यह प्रतिपादित करता है कि वस्तुओं का विनिमय मूल्य उनकी उपयोगिता अर्थात् उपयोग मूल्य पर निर्भर नहीं करता, बल्कि उनके उत्पादन में लगाए गए श्रम की मात्रा पर निर्भर करता है। 

मार्क्स के शब्दों में, श्रम ही एक वस्तु के मूल्य निर्धारण का एकमात्र उचित मापदण्ड है, क्योंकि यही एक ऐसा तत्व है जो सभी वस्तुओं में समान रूप से विद्यमान है। अतः यही सम्पत्ति के उत्पादन का एकमात्र वास्तविक उत्पादक तत्व है। मार्क्स रिकार्डो के इस सिद्धांत को पूर्णतया स्वीकार करता है कि ‘श्रम ही मूल्य का स्रोत है।’ वस्तुतः श्रम ही विनिमय मूल्य का आधार है। किसी वस्तु का विनिमय मूल्य इसलिए अधिक होता है कि उसके उत्पादन में मानव श्रम की मात्रा किसी अन्य वस्तु के उत्पादन से अधिक लगी होती है।

अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत की आलोचना

मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य की अग्रलिखित तर्कों के आधार पर आलोचना की जाती है।

1. श्रम उत्पादन और मूल्य का एक मात्रा स्त्रोत नहीं है-मार्क्स के ‘अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत’ का निष्कर्ष यह है कि वस्तु के मूल्य के निर्धारण का एकमात्रा तत्व इसके उत्पादन में लगने वाला मजदूर का श्रम है, अतः उसका सारा मूल्य मजदूर को ही मिलना चाहिए। वस्तुतः यह विचार सत्य नहीं है क्योंकि मूल्य का निर्धारण केवल श्रम से ही नहीं होता। इस पर प्रभाव डालने वाले अन्य तत्व पूंजी, मशीनें, कच्चा माल, तकनीकी ज्ञान, प्रबन्ध कौशल, आदि भी होते हैं। एक वस्तु का मूल्य निर्धारित करने में श्रम के अतिरिक्त अन्य तत्व जैसे वस्तु की उपयोगिता उपलब्धि और मांग, आदि भी प्रभावपूर्ण होते हैं। लोहे और सोने को खान से निकालने में एक समान ही श्रम व्यय होता है, लेकिन जहां तक उनके मूल्य का प्रश्न है, उसमें भारी अन्तर है और इस अन्तर का मुख्य कारण उनकी उपयोगिता, उपलब्धि की मात्रा और मांग, आदि है।

2. सम्पूर्ण अतिरिक्त मूल्य लाभ नहीं है-मार्क्स अतिरिक्त मूल्य को पूंजीपति का लाभ मानता है जबकि पूंजीपति को वस्तुओं के उत्पादन में श्रमिक के अतिरिक्त अन्य बहुत सी बातों के लिए धनराशि व्यय करनी पड़ती है। उसे पूंजी का ब्याज, मशीनों की घिसावट,श्रमिकों की बीमारी, बेकारी के बीमों के लिए काफी धनराशि व्यय करनी पड़ती है। अतः इन खर्चों को निकालने के बाद अतिरिक्त मूल्य में से प्राप्त होने वाला लाभांश बहुत कम रह जाता है। मार्क्स ने इस बात का ध्यान नहीं रखा और सम्पूर्ण अतिरिक्त मूल्य को लाभांश घोषित कर दिया जो वास्तविक स्थिति के अनुकूल नहीं है।

3. मानसिक श्रम की उपेक्षा-मार्क्स के इस सिद्धांत से ऐसा प्रतीत होता है कि उसने शारीरिक श्रम को ही श्रम माना है और मानसिक श्रम की उपेक्षा की है। वस्तुतः तकनीकी ज्ञान, प्रबन्ध पटुता और व्यवसाय कुशलता वस्तुओं के निर्माण और तैयार वस्तुओं के लिए उपयुक्त ढूंढने में महत्वपूर्ण योग देते हैं। उद्योग में प्राप्त होने वाला लाभांश बहुत वुफछ सीमा तक इन पर निर्भर करता है।

4. विरोधाभासी सिद्धांत-मार्क्स के इस सिद्धांत में अनेक विरोधाभास एवं असंगतियां दिखलायी देती हैं। एक ओर तो वह कहता है कि पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य बढ़ाने के लिए अधिकाधिक नई मशीनें लगाता है और दूसरी तरफ वह यह भी मानता है कि स्थायी पूंजी-मशीनों, कच्चे माल, आदि से कोई अतिरिक्त मूल्य नहीं मिलता है। 

5. यह सिद्धांत आर्थिक कम और प्रचारात्मक अधिक है-मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत अर्थशास्त्र की दृष्टि से भी गलत है। अधिक से अधिक इसे ‘श्रमिकों के शोषण का सिद्धांत’ कहा जा सकता है। मार्क्स का उद्देश्य राजनीतिक प्रचार था न कि अर्थशास्त्राीय। मैक्स बीयर के अनुसार, इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करना असम्भव है कि मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत एक आर्थिक सत्य होने के बजाय एक राजनीतिक और सामाजिक नारा है।

6. मार्क्स का सिद्धांत मौलिक नहीं-कतिपय विद्वानों का मत है कि यह मार्क्स का सिद्धांत मौलिक नहीं है। कोकर का कहना है कि यह वास्तव में एक अंग्रेजी सिद्धांत था, जिसका प्रतिपादन 19वीं शताब्दी में सर विलियम पेटी ने किया। इसके बाद रिकार्डो एवं एडम स्मिथ जैसे शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों ने इसमें संशोधन कर नया रूप दिया। 

सेबाइन के अनुसार ‘अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत शास्त्राीय अर्थशास्त्रिायों के श्रम सिद्धांत का विस्तार मात्रा है। वेपर के अनुसार मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत रिकार्डो के सिद्धांत का ही व्यापक रूप है। अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत का महत्व-अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत द्वारा मार्क्स ने पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली तथा उत्पादन व्यवस्था में छिपे शोषण, जुल्म तथा अत्याचार को वैज्ञानिक आधार पर स्पष्ट किया तथा समाजवादी अर्थव्यवस्था का समर्थन किया।

चाहे मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत पूर्णतया सत्य न हो, परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पूंजीपतियों ने श्रमिकों की मेहनत पर अपनी विलासिता के महल खड़े किए हैं। चाहे उनको प्राप्त होने वाला सारा लाभ अतिरिक्त मूल्य न हो, परन्तु उनके लाभ का एक बहुत बड़ा भाग ऐसा होता है।’ जिसके लिए वे किसी भी प्रकार योग्य नहीं हैं। श्रमिकों और दलितों की दयनीय अवस्था देखते हुए कहा जा सकता है कि उनकी इस अवस्था का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व पूंजीपतियों पर है।

अतः मूल्य के सिद्धांत के रूप में मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत अमान्य हो गया है, लेकिन एक शोषण के सिद्धांत के रूप में यह आज भी उतना ही सही है जितना की मार्क्स के समय में था। लेनिन के शब्दों में, फ्मार्क्स से पहले क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्रा की उत्पत्ति इंग्लैण्ड में हुई थी, जो पूंजीवादी देशों में सबसे उन्नत देश था। एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो ने आर्थिक व्यवस्था के विषय में अपनी गवेषणाओं द्वारा ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ की नींव डाली। मार्क्स ने उनके काम को और आगे बढ़ाया। उन्होंने इस सिद्धांत को प्रमाणित किया और उसे सुसंगत रूप से विकसित किया। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि हर माल का मूल्य इस बात से निर्धारित होता है कि उसके उत्पादन में सामाजिक दृष्टि से कितना आवश्यक श्रम-काल लगाया गया है। 

पाॅपर ने ठीक ही लिखा है, मेरे विचार में यद्यपि मार्क्स का विश्लेषण दूषित था’, लेकिन शोषण के सिद्धांत का निरूपण करने वाले प्रयास की दृष्टि से आज भी वह आदरणीय है। सेबाइन के अनुसार, अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत एक ऐसा मूल तत्व है जो पूंजीवाद की हृदय हिला देने वाली विभीषिकाओं को उद्घाटित करता है। यह सिद्धांत इतना तर्कपूर्ण और ठोस है कि इसे चुनौती नहीं दी जा सकती और स्वीकार कर लेने पर पूंजीवाद की हम किसी भी आधार पर रक्षा नहीं कर सकते।

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