मातृभाषा का अर्थ और परिभाषा

मातृभाषा का सामान्य अर्थ है 'माता की भाषा' । बालक अपनी माँ से जो भाषा सिखता है, वह उसकी ‘मातृभाषा’ मानी जाती है। माँ का संबंध किसी वर्ग या समुदाय से होता है । अत: उस समुदाय में बोली जाने वाली भाषा उस समुदाय के सभी लोगों की 'मातृभाषा' कहीं जाती है। मातृभाषा सामाजिक दृष्टि से निर्धारित व्यक्ति की वह आत्मीय भाषा है, जो व्यक्ति की अस्मिता को किसी भाषाई समुदाय की सामाजिक परंपरा और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सम्बद्ध करती है । इस भाषा के माध्यम से व्यक्ति का व्यक्तित्व विकसित होता है । व्यक्ति ऐसी ही भाषा के माध्यम से परिवार और समाज में अपना एक अलग स्थान निर्माण करता है । 

मातृभाषा सहज अभिव्यक्ति तथा सहज-बोध का साधन है । विश्व के अनेक शिक्षा शास्त्रियों ने बच्चे को मातृभाषा में ही शिक्षा देने पर अधिक बल दिया है ।

मातृभाषा की  परिभाषा

कुछ पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार मातृभाषा का स्वरूप इस प्रकार है -

1. कालरिज (Coleridge) - मातृभाषा मनुष्य के शरीर में धडकते हृदय की भाषा है। इसे हिंडोले की भाषा (Language of the Cardle) भी कहा जाता है ।

2. पी. बी. बैलर्ड (P. B. Bellard) - मातृभाषा बच्चे की वह भाषा है, जिसके द्वारा वह सोचता और सपने बुनता है। (The tongue in which a child thinks and dreams)

कुछ विद्वानों का कहना है कि, जनम के पश्चात् बालक जिस भाषाई परिवेश में रहकर प्रारंभिक भाव का आदान-प्रदान करता है, उसे उसकी भाषा की संज्ञा देनी चाहिए । अगर एक बालक अवधी क्षेत्र में रहकर बड़ा होता है, तो उसकी प्रारंभिक अभिव्यक्ति की भाषा अवधी होगी । अवधी खड़ीबोली हिंदी की एक महत्त्वपूर्ण बोली है । इस दृष्टि से उस बालक की मातृभाषा अवधी नहीं, हिंदी है । यह प्रक्रिया भाषा और बोली के सहज संबंधों के कारण होती है।
इस तरह जिस भाषा में मनुष्य अपने जीवन में गतिशील रहने के लिए, जिस मूल या प्रारंभिक भाषा को अपनाता है, वह उसकी मातृभाषा कहलाती है । 

मातृभाषा में भावाभिव्यक्ति सरल और अधिक प्रभावी होती है। इसीलिए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी को मातृभाषा के रुप में याद करते हुए इसे “निजभाषा” कहकर उसकी उन्नति की बात की है ।

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