निर्गुण भक्ति धारा की शाखाएँ || निर्गुण भक्तिधारा की विशेषताएं

निर्गुण भक्ति धारा के अन्तर्गत ईश्वर के निराकार रूप की उपासना तथा ज्ञान और प्रेम द्वारा ईश्वर पा्रप्ति की बात कही गयी। तो सगुण भक्ति-धारा में ईश्वर के साकार सगुण रूप की उपासना राम और कृष्ण रूप में भगवान विष्णु के अवतारों की कल्पना करके सख्य और सेवक भाव से भक्ति कर ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताया गया।

निर्गुण भक्ति धारा की शाखाएँ 

निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा और प्रेममार्गी शाखा का विवरण इस प्रकार है- 

1. ज्ञानमार्गी शाखाः यह भक्ति-धारा हिन्दुओं की ओर से हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित करने की इच्छा का फल थी। इस धारा के प्रवर्तक कबीर थे जो उच्च्कोटि के समाज सुधारक एवं कवि थे। 

2. प्रेममार्गी शाखाः निर्गुण काव्यधारा की दूसरी शाखा प्रेममार्गी भक्ति शाखा है। यह भक्ति शाखा मुसलमान सूफियों और संतों की सद्भावना का फल थी। सूफी सम्प्रदाय हिन्दू धर्म के निकट पहुँच जाते हैं। सूफी लोग ईश्वर को अपने प्रेम पात्र के रूप में देखना चाहते हैं, जबकि साधारण शरीयत को मानने वाला मुसलमान ईश्वर के साथ मालिक और बन्दे का सम्बन्ध मानता है। सूफी संतों ने आत्मा को पति और परमात्मा को पत्नी माना। सूफी संत आत्मा और परमात्मा के मिलन में शैतान को बाधक मानते हैं। यह बाध सच्चे गुरू की कृपा से ही दूर की जा सकती है।

प्रेम मार्गी शाखा के सूफी संत ईश्वर को एक मानते हैं जिसका नाम वे ‘हक’ मानते हैं। वे आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा परमात्मा के सामने अपने आप को बन्दे के रूप में पेश करती है और बन्दा प्रेम के द्वारा परमात्मा तक पहुँचने का यत्न करता है। 

परमात्मा तक पहुँचने के लिए बन्दे को चार दशाओं - शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारपफत - को पार करना पड़ता है। मारपफत में रूह जीवन प्राप्त करने के लिए फना हो जाती है और परमात्मा में विलीन हो जाती है। तब सूपफी लोग ‘अन्-अल्-हक’ कह उठते हैं। इस्लाम ने इस नारे को सहन नहीं किया। मंसूर जैसे सूफी संत ‘अनलहक्’ कहने पर सूली पर चढ़ा दिये गये। तब सूफी लोग भारत में आकर बस गये। यहाँ आकर उन्हें अपने अनुकूल वातावरण मिला तथा यहाँ सूफी संतों ने हिन्दुओं के समान अनेक सम्प्रदाय भी खड़े कर लिये थे। ‘आइने अकबरी’ में सूफियों के 14 सम्प्रदायों का उल्लेख है, जिनमें प्रसिद्ध सम्प्रदाय हैंः

1. चिश्ती सम्प्रदायः जिसके प्रवत्र्तक ख्वाजा मुईन-उद्दीन चिश्ती थे। इनका प्रचार केन्द्र अजमेर रहा। वहीं इनकी मजार है। लोग आज भी इन्हें अजमेर वाले ख्वाजा के नाम से जानते हैं। 

2. सुहरावर्दी सम्प्रदायः जिस की स्थापना सैयद जलालुद्दीन सुर्खपोश ने की। इस सम्प्रदाय का प्रचार प्रभाव सिंध्, गुजरात, बिहार और बंगाल में अधिक रहा। 

3. कादरी सम्प्रदायः इस सम्प्रदाय की स्थापना सन् 1482 में सैयद बंदगी मुहम्मद गौस ने उच्च शरीफ में की। अपने चमत्कारों के कारण इस सम्प्रदाय ने विशेष प्रसिद्धि पाई। कश्मीर उनका प्रचार क्षेत्र रहा। 

4. नक्शबंदी सम्प्रदायः भारत में इसे मुहम्मद बाकी गिल्लाह लाये। इसके सिद्धांत अधिक बुद्धिलभ्य होने के कारण जनता को स्वीकार्य न हुआ। दूसरे यह सम्प्रदाय बहुत बाद में आया। अतः भारतीय जनता ने यथोचित स्थान न दिया। सूपफी प्रेममार्गी शाखा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हुए। इनके अतिरिक्त अन्य सूफी संत कवियों में कुतबुन, मंझन, उस्मान तथा शेख नवी प्रसिद्ध हैं। जायसी ने हिन्दी साहित्य का प्रथम प्रामाणिक महाकाव्य, ‘पद्मावत’ लिखा तथा दोहा-चौपाई शैली में काव्य रचकर तुलसी जैसे कवियों को प्रेरणा दी।

निर्गुण भक्ति धारा की विशेषताएँ

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में दो प्रकार की काव्यधाराएँ प्रवाहित हुईं- निर्गुण भक्ति धारा और सगुण भक्ति धारा। निर्गुण भक्ति धारा में ईश्वर के निर्गुण रूप की भक्ति और सगुण भक्ति धारा को ईश्वर के सगुण रूप, विशेषकर भगवान् विष्णु के दो मुख्य अवतारों श्री राम और श्री कृष्ण की भक्ति को लेकर काव्य की रचना हुई।

निर्गुण भक्ति धारा के अन्तर्गत ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी नामक दो उपधाराएँ या शाखाएँ अस्तित्त्व में आईं। डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी इस शाखा को ‘निर्गुण भक्ति-साहित्य’ कहते हैं। बाल विवाह और पर्दा प्रथा इसी दिशा के दो महत्त्वपूर्ण कदम थे। ऐसी स्थिति में ज्ञानमार्गी संत कवियों ने परिस्थितियों की नजाकत समझते हुए सांप्रदायिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया। इसी आधर पर हम निर्गुण काव्य की ज्ञानमार्गी शाखा के काव्य में निम्नलिखित विशेषताएँ देखते हैंः

1. निर्गुण ब्रह्म में विश्वासः ज्ञानमार्गी संत कवि निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल देते हैं। निर्गुण ब्रह्म को इन संतों ने वर्णनातीत माना तथा इसे अनुभवजन्य कहा। क्योंकि निराकार ईश्वर प्रत्येक कंठ में विद्यमान है अतः उसे बाहर ढूँढना मूर्खता है। केवल ज्ञानमार्ग द्वारा ही हम अपने हृदय के भीतर उसका साक्षात्कार कर सकते हैं।

निर्गुण ईश्वर का वर्णन नहीं किया जा सकताः इस विषय में कबीर जी कहते हैं- पार ब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान
कहिबे हूँ सोभा नहीं देख्या ही परवान निर्गुण संत कवियों के राम दरशन दशरथ के पुत्रा श्रीराम न होकर निराकार ईश्वर ही हैं जो संसार के कण-कण में विद्यमान हैं। उसे मंदिरों, मस्जिदों में या जंगलों में धूनी रमा कर नहीं खोजा जा सकता। वह मनुष्य के अपने ही हृदय में बसा है।

2. एकेश्वरवाद का समर्थन एवं बहुदेववाद का विरोध्ः निर्गुणवादी संत कवियों ने हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से एकेश्वरवाद का समर्थन किया तथा बहुदेववाद का विरोध्।

3. रूढि़वाद एवं मिथ्याडम्बर का विरोध्ः उन्होंने पण्डितों और मुसलमानों द्वारा धर्म की आड़ में किये जाने वाले जनसाधारण के शोषण का पर्दाफाश किया। दिन भर माला फेरने वाले हिन्दुओं और मुसलमानों पर व्यंग्य करते हुए  कबीर कहते हैं-
माला फेर क्या भया जो भगति न आई हाथि।
दाढ़ी मूंछ मुड़ाइकै चला दुनि कै साथि।

मुसलमानों को उन्होंने कहा-
दिन भर रोजा रहत है राति हनत है गाय
यह तो खून वह बन्दगी, कैसे खुखी खुदाय।

हिन्दुओं को उन्होंने कहा-
पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।
ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार।।
गुरूनानक वाणी में भी पाखण्ड का खण्डन करते हुए लोगों को मन की शुद्धि को अपनाने का उपदेश दिया गया है। कबीर जी कहते हैं-
माला फेरत जग भया, मिटा न मन का फेर
कर का मनका डाॅरिकै, मनका मनका फेर
4. जाति-पाति तथा भेदभाव का विरोध्ः ज्ञानमार्गी शाखा के कवि जाति-पाति में विश्वास नहीं रखते थे। उनका विश्वास था कि जाति-पाति, ऊँच-नीच की ये दीवारें मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए खड़ी की हैं। जबकि ईश्वर तो सबका एक है। कबीर जी ने लिखा है-
जाति पाति पूछे नहीं कोय।
हरि को भजे सो हरि का होय।।
5. सतगुरू का महत्त्वः ज्ञानमार्गी संत कवियों ने गुरू की महत्ता पर अधिक बल दिया है। उन्होंने गुरू को ईश्वर से भी बड़ा माना है। कबीर जी लिखते हैं-
गुरू गोबिंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरू आपने, हरि को दिया बताय।।
संत कवियों का विश्वास है भगवद्कृपा पाने के लिए गुरू कृपा अनिवार्य है। गुरू ही मनुष्य के मानसिक एवं शारीरिक विकारों को दूर कर सकता है।

गुरू कुम्हार शिष कुंभ है गढि़ गढि़ काढ़ै खोट अन्तर हाथ सहार दै बाहर वाहै चोट उनका मानना था कि गुरू ही मनुष्य के हृदय में ज्ञान चक्षु खोलकर मन के अंधकार को मिटा सकता है।
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपगाए।
लोचन अनंत उघाडि़या, अनंत दिखावन हार।।
6. भाषा शैलीः संत कवियों की भाषा संवतन्त और आडम्बर रहित थी। इन्होंने सरल और आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग किया। संत कवि, कवि होने के साथ-साथ समाज सुधरक थे। जिस कारण वह चारों ओर विचरण करते थे। गुरू नानक देवजी तो मक्का और चीन तक जा पहुँचे थे। इसी कारण उनकी भाषा में विभिन्न प्रांतों एवं बोलियों का समावेश देखने को मिलता है। संत कवियों ने काव्य शास्त्र या छन्द शास्त्र के नियमों की चिंता नहीं की।

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