परीक्षणात्मक अनुसंधान कितने प्रकार के होते हैं?

इसे प्रयोगात्मक अनुसंधान या व्याख्यात्मक अनुसंधान के नाम से पुकारते हैं। चेपिन ने लिखा है, समाजशास्त्रीय अनुसंधान में परीक्षणात्मक प्ररचना की अवधारणा नियंत्रण की दशाओं के अंतर्गत अवलोकन द्वारा मानवीय संबंधों के अध्ययन की ओर संकेत करती है। स्पष्ट है कि जिस प्रकार भौतिक विज्ञानों में विषय को नियंत्रित अवस्थाओं में रखकर उसका अध्ययन किया जाता है, उसी प्रकार नियंत्रित अवस्थाओं में अवलोकन-परीक्षण के द्वारा सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करने को ही परीक्षणात्मक अनुसंधान कहते हैं। इस प्रकार के अनुसंधान में सामाजिक घटनाओं के कुछ पक्षों या चरों को नियंत्रित कर लिया जाता है और शेष चरों पर नवीन परिस्थितियों के प्रभाव का पता लगाया जाता है। इस प्रकार के अनुसंधान द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि किसी समूह, समुदाय, सामाजिक तथ्य, सामाजिक घटना आदि पर किसी नवीन परिस्थिति का कैसा और कितना प्रभाव पड़ा है। यहाँ नियंत्रित दशा में प्रयोग किया जाता है।

चेपिन ने बताया है, प्रयोग नियंत्रित दशाओं में किया जाने वाला अवलोकन मात्रा है। जब केवल अवलोकन किसी समस्या को प्रभावित करने वाले कारकों का पता लगाने में असफल रहता है, तब वैज्ञानिक के लिए प्रयोग का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है।

इसी बात को श्री विमल शाह ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है, प्रयोग शब्द अनुसंधान के उस भाग की ओर निर्देश करता है जिसमें कुछ चरों को नियंत्रित कर लिया जाता है जबकि अन्य में परिवर्तन लाया जाता और उनके प्रभावों को नियंत्रित चरों पर देखा जाता है। स्पष्ट है कि प्रयोगात्मक या परीक्षणात्मक अनुसंधान का सामाजिक विज्ञानों में वही महत्व है जो भौतिक विज्ञानों में प्रयोगशाला-पद्धति का है।

परीक्षणात्मक अनुसंधान के प्रकार

परीक्षणात्मक अनुसंधान तीन प्रकार के होते हैं: प्रथम, पश्चात परीक्षण द्वितीय, पूर्व-पश्चात परीक्षण तथा तृतीय, कार्यान्तर (ऐतिहासिक)-तथ्य परीक्षण।

1. पश्चात परीक्षण -इसमें सर्वप्रथम समान विशेषताओं एवं प्रकृति वाले दो समूहों को चुन लिया जाता है। इनमें से एक समूह नियंत्रित समूह और दूसरा समूह परीक्षणात्मक के नाम से जाना जाता है। नियंत्रित समूह में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन लाने का प्रयत्न नहीं किया जाता है, उसे किसी चर, कारक या नवीन परिस्थिति द्वारा बदलने का प्रयास नहीं किया जाता। परीक्षणात्मक समूह में किसी नवीन परिस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ने दिया जाता। कुछ समय पश्चात् परीक्षणात्मक-समूह पर नवीन कारक या परिस्थिति के प्रभाव को मापा जाता है। यदि नियंत्रित और परीक्षणात्मक दोनों ही समूहों में समान परिवर्तन आते हैं तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि नवीन कारक या परिस्थिति का परीक्षणात्मक-समूह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यदि नियंत्रित-समूह की तुलना में परीक्षणात्मक-समूह में परिवर्तन अधिक होते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि नवीन परिस्थिति या कारक का प्रभाव पड़ा है। 

यहाँ उदाहरण के रूप में दो समान समूह या गाँवों को लिया जा सकता है जिनमें बाल-विवाह का काफी प्रचलन है। इनमें से एक समूह में जिसे परीक्षणात्मक समूह मान लिया गया है, बाल-विवाह के विरुद्ध काफी प्रचार-प्रसार किया जाता है। कुछ समय के बाद इस समूह की तुलना नियंत्रित समूह से की जाती है जिसमें ऐसा कोई प्रचार-प्रसार नहीं किया गया। यदि बाल-विवाह के प्रचलन की दृष्टि से इन दोनों में अंतर देखने को मिले और परीक्षणात्मक समूह में बाल-विवाहो की मात्रा काफी कम हो जाये, तो इसे नवीन कारक अर्थात् बाल-विवाह विरोधी प्रचार-प्रसार का प्रभाव माना जायेगा।

2. पूर्व-पश्चात परीक्षण - इस विधि के अंतर्गत दो समूहों का चुनाव नहीं करके केवल एक ही समूह का चुनाव किया जाता है। यहाँ इस समूह का अध्ययन दो विभिन्न अवधियों में किया जाता है और पूर्व तथा पश्चात् के अंतर को ज्ञात किया जाता है। पूर्व और पश्चात किये गये अध्ययन के आधार पर यह मापा जाता है कि पूर्व की अवस्था और बाद की अवस्था में क्या अंतर आया। यह अंतर ही नवीन परिस्थिति या कारक का प्रभाव (परिणाम) है। उदाहरण के रूप में, अध्ययन के लिए एक गाँव को चुन लिया जाता है जहाँ परिवार-कल्याण कार्यक्रम के प्रभावों को मापा जाता है। एक अनुसूची की सहायता से यह पता लगा लिया जाता है कि गाँव वालों ने इस कार्यक्रम को कहाँ तक स्वीकार किया है। यह पूर्व की स्थिति है जिसे अध्ययन की दृष्टि से हम प्रथम स्तर कह सकते हैं। फिर इस गाँव में रेडियो, दूरदर्शन, ग्राम-सेवक, स्कूल-अध्यापक, डाॅक्टर, नर्स आदि की सहायता से लोगों को परिवार कल्याण कार्यक्रम की अच्छाइयों से भली-भाँति परिचित कराया जाता है। इस काल को उपचार-काल या द्वितीय स्तर के नाम से जाना जा सकता है। एक निर्धारित अवधि के पश्चात् इस गाँव का पूर्व में निर्मित अनुसूची की सहायता से पुनः अध्ययन किया जाता है। यह पश्चात् की स्थिति है जिसे तृतीय स्तर माना जा सकता है। अब पूर्व की स्थिति और पश्चात् की स्थिति में अंतर ज्ञात हो जायेगा। पूर्व की बजाय अब यदि गाँव वाले परिवार-कल्याण कार्यक्रम को अधिक मात्रा में अपनाते हैं, स्वयं आगे जाकर इस कार्यक्रम का लाभ उठाते हैं तो इसे उपचार-काल ;द्वितीय स्तरद्ध में किये गये प्रयत्न का परिणाम माना जायेगा।

3. कार्यान्तर (ऐतिहासिक) तथ्य परीक्षण - अतीत से संबंधित तथ्यों या किसी ऐतिहासिक घटना का अध्ययन करने के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है। अतीत की घटनाओं को दोहराया नहीं जा सकता, उनकी पुनरावृत्ति अनुसंधान-कर्ता के लिए संभव नहीं है। उन्हें न तो नियंत्रित किया जा सकता और न ही उनमें कोई परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में इस अनुसंधान-विधि को काम में लेते हुए प्राचीन अभिलेखों के भिन्न-भिन्न पक्षों का तुलनात्मक अध्ययन करके महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों तक पहुँचा जा सकता है, उपयोगी परिणाम निकाले जा सकते हैं। अभिलेखों की तुलना से महत्त्वपूर्ण परिणामों को मापना संभव हो पाता है। 

इस विधि द्वारा अध्ययन हेतु सामान्यतः दो ऐसे समूहों का चुनाव किया जाता है जिनमें से एक समूह में जिसका कि उसे अध्ययन करना है, कोई ऐतिहासिक घटना घटित हो चुकी होती है एवं दूसरा ऐसा समूह जिसमें वैसी कोई घटना घटित नहीं हुई है। इन दोनों समूहों की पुरानी परिस्थितियों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि एक समूह विशेष में उस घटना के घटित होने के क्या कारण हैं, कौन सी परिस्थितियों ने उस घटना के घटित होने में योग दिया है।

इस विधि द्वारा अध्ययन का एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत करना भी यहाँ उचित होगा। मान लिया कि हमें अनुसूचित जनजातियों पर विभिन्न कल्याण-कार्यक्रमों के प्रभाव का अध्ययन करना है। इसके लिए हमें ऐतिहासिक तथ्यों को चुनना पड़ेगा। यह पता लगाना पड़ेगा कि इन कल्याण-कार्यक्रमों की जानकारी किन-किन लोगों को है या इन कार्यक्रमों का लाभ किन्हें मिला है। फिर यह पता लगाना होगा कि जो लोग इन कार्यक्रमों से लाभान्वित हुए हैं, उनकी आयु क्या है, उनका शैक्षणिक स्तर क्या है, वे किस-किस जनजाति के सदस्य हैं, उनकी आजीविका का ड्डोत क्या है, वे किस क्षेत्रा के रहने वाले हैं। 

ऐसे अध्ययन का लाभ यह होगा कि तुलना के आधार पर यह पता लगाया जा सकेगा कि कल्याण-कार्यक्रमों का लाभ उठाने में कौन सी जनजातियाँ और विशेषतः किन क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियाँ आगे हैं। जिन जनजातीय लोगों ने इन योजनाओं का लाभ उठाया है, वे शिक्षित हैं या अशिक्षित तथा वे प्रमुखतः किस आयु-समूह में आते हैं। साथ ही यह भी ज्ञात हो सकेगा कि कार्यक्रम का लाभ उठाने वाले लोगों मंे प्रमुख कौन हैं, क्या वे कृषक हैं, कृषि श्रमिक हैं, दस्तकारी का काम करने वाले हैं या वन-संपदा को एकत्रित कर अपनी आजीविका चलाने वाले हैं या कारखानों में काम करने वाले मजदूर हैं।

कुछ समय के पश्चात् इन्हीं कारकों को ध्यान में रखते हुए उन्हीं लोगों का पुनः अध्ययन किया जायेगा और तत्पश्चात् तुलना के आधार पर महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकेगे।

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