पूर्व पाषाण युग की विशेषताएं

सामान्यतः पचास हजार ई. पू. से दस हजार ई. पू. तक के काल को पूर्व-पाषाण युग माना जाता है। खुदाई में प्राप्त सामग्री से पता चलता है कि इस काल में नीयंडरथल, पिल्ट डाउन, त्रिनिल, रोडेशियन, काकेशस, पिथकैथ्रोपस, हिडलवर्ग आदि मानव रहते थे। पूर्व-पाषाण युग के अवशेष जर्मनी,फ्रांस, इंग्लैंड आदि यूरोपीय देशों के अतिरिक्त भारत, जावा आदि में भी मिले हैं। अनुमानतः मानव का अधिकांश जीवन इसी युग में बीता है।

पूर्व-पाषाण युग में आजीविका एवं आवश्यकताएँ

पूर्व-पाषाण युग का मनुष्य पूर्णतः बर्बर एवं जंगली था। उसका जीवन पशुओं के समान था। उस समय जीवन अत्यन्त ही संघर्षमय रहा होगा। हिंसक पशुओं तथा प्राकृतिक प्रकोपों के कारण उसका जीवन सदा खतरे में रहता था।

सदा से मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं में भोजन, वस्त्र एवं आवास का महत्व सर्वाधिक रहा है आदि मानव की भी यही तीन आवश्यकताएँ थीं।

1. भोजन-प्राणरक्षा के लिए भोजन अत्यन्त आवश्यक होता है। उन दिनों मनुष्य की आजीविका का कोई स्थिर आधार नहीं था। कृषि अथवा पशुपालन की उन्हें जानकारी नहीं थी। अतः, लोग कन्द-मूल खाकर अथवा जंगली जानवरों के मांस से अपना पेट भरते थे। मांस को लोग कच्चा अथवा पकाकर खाते थे।

2. वस्त्र-भोजन की पूर्ति के बाद शरीर-रक्षा की आवश्यकता पड़ती थी। प्रारम्भ में मनुष्य नंगा ही रहता होगा। झाडि़यों, खाडि़यों और गुफाओं में लुक-छिपकर वह प्रतिकूल मौसम से अपनी रक्षा करता था। अपनी शरीर-रक्षा के उद्देश्य तथा लज्जा की भावना से उत्प्रेरित होकर आदि-मानव ने वृक्षों की छालों, पेड़ों की पत्तियों तथा जानवरों की खालों से अपने शरीर को ढंकना प्रारम्भ किया।

3. आवास-आदि-मानव को रहने की काफी असुविधा थी। आज की तरह भवनों अथवा झोपडि़यों के निर्माण की कला का उन्हें ज्ञान नहीं था। अतः, वह कन्दराओं, झाडि़यों और खाइयों में लुक-छिपकर प्रकृति के प्रकोपों और प्रतिकूल मौसमों से किसी तरह अपने शरीर की रक्षा करता था।

4. अस्त्र-शस्त्र तथा औजार-पूर्व-पाषाण युग के मानव ने आवश्यकतानुसार अनेक प्रकार के औजारों तथा हथियारों का आविष्कार किया। आदिमानव के प्रारम्भिक हथियार उसके हाथ-पाँव ही थे। बाद में उसने लकड़ी और पत्थरों के हथियार बनाये। लकड़ी के उपकरण टिकाऊ नहीं होते थे। अतः पत्थरों का प्रयोग बढ़ा। पाषाण खण्डों को घिस-घिस कर नुकीले और सीधे चुभने वाले हथियार बनाये जाने लगे। इस प्रकार पत्थरों से बर्छे, भाले, कटार, कुल्हाड़ी, मूसल, हथौड़ा आदि औजार बनाये जाने लगे और बाद में हड्डियाँ, सींग तथा हाथी दाँत के हथियार बनाये जाने लगे। आगे चलकर बढ़ईगीरी की कला विकसित हुई। रस्सी तथा टोकरियाँ बनाने के प्रमाण भी मिलते हैं। इस युग में मनुष्य तीर-धनुष का प्रयोग भी करने लगा था।

इसी काल में मनुष्य ने अग्नि का आविष्कार और प्रयोग किया। यह इस युग का सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार था। अग्नि के प्रयोग से मनुष्य की अनेक समस्याओं का निवारण हुआ। घनी झाडि़याँ जलाई जाने लगीं। अग्नि से भयानक जंगली जानवर भाग खड़े हुए। अग्नि का ज्ञान होने पर मनुष्य अपना शिकार भूनकर खाने लगा। साथ ही इसके द्वारा कड़ी ठंड से वह अपनी रक्षा भी करने लगा।

पूर्व पाषाण काल के औजार

हाइडलबर्ग मानव के हथियार और औजार पहले के मानव के औजारों से कहीं अधिक विशाल थे। इस मानव के समय का एक विचित्र औजार मिला है यह है एक हाथी की छेददार हड्डी जिसको घिसकर बल्ले के समान बनाया गया है।

इंग्लैंड में पिल्टडाउन में जिस मानव की खोपड़ी तथा जबड़े की हड्डी मिली थी उसके हथियार पहले के हथियारों से अच्छे, भली प्रकार घिसे हुए और चिकने हैं। इस मानव के अवशेषों के साथ गेंडे के दाँत, हिप्पों की अस्थियाँ और हिरन की टाँगों की हड्डियाँ भी मिलीं जिनसे इस ‘उषा मानव’ के जीवन की झाँकी दिखलाई पड़ती है।

इस उषा मानव के पश्चात का कोई और मानव-अवशेष हमें सहड्डों वर्ष तक नहीं प्राप्त होता, परन्तु हथियारों-औजारों के अवशेष प्राप्त होते हैं जिनमें क्रमशः होती हुई उन्नति स्पष्ट है। ये सब अवशेष पाषाण ही के हैं। इन औजारों में पत्थर के चाकू, छेद करने व खुरचने के औजार, फेंककर मारने के पत्थर आदि स्पष्ट और सुघड़ दिखाई पड़ने लगते हैं।

इस प्रकार अब हम 50,000 या 60,000 वर्ष पहले मानव के हथियारों और अवशेषों तक आ पहुंचते हैं। यह काल नेअण्डर्थल मानव का काल है। इस समय मानव गुफाओं में निवास करने लगा था जहाँ इसके और इसकी वस्तुओं के अनेक अवशेष मिले हैं। इस काल के मानव को अग्नि जलाना और उसकी रक्षा करना आता था।

केवल नेअण्डर्थल मानव ही गुफाओं में रहने वाला प्राणी नहीं था। उस काल के शेर, रीछ, बाघ आदि भी गुफाओं में घुस कर विश्राम करना चाहते थे। परन्तु मानव के पास सबसे बड़ा शस्त्र था आग। इस आग से डराकर वह इन पशुओं को सरलता से गुफाओं से निकाल बाहर कर सकता था तथा फिर उन्हें बाहर ही रहने पर बाध्य कर सकता था। गुफाओं के भीतर प्रकाश करने के लिए मशालें थीं। उस काल का मनुष्य गुफा के द्वारों पर लकड़ी आदि से रोक लगा लेता था जिससे भयानक पशु बाहर ही रहें। गुफा के द्वार पर भी आग जला देता था ताकि जंगली पशु गुफा में न घुसें। गुफा में वह अपने काम के औजार, ईंधन और भोजन एकत्रित रखता था। इन औजारों में लकड़ी के भाले, मुग्दर और पाषाण के नुकीले टुकड़े थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वह पत्थर की कुल्हाडि़यों का भी प्रयोग करता था।

नेअण्डर्थल मानव के लगभग साथ ही साथ सपिअन मानव का विकास हो रहा था। सपिअन मानव के शस्त्रास्त्र और औजार आदि अधिक सुघड़ थे। वे पाषाण के बने हुए, परन्तु बड़े चिकने थे। हड्डिओं की बनी सुइयाँ, पिन, भाले, हारपून, पेंफकने के दंड, बूमरेंग जैसे प्रारम्भिक अस्त्रा आदि अद्भुत कारीगरी से युक्त थे। इन औजारों तथा गुफाओं की दीवारों पर चित्रकला का समारम्भ दिखाई पड़ता है।

सपिअन मानव के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसने धनुष-बाण भी बना लिए थे। अनुमान है कि पूर्व पाषाण काल के लगभग अन्त में धनुष-बाण का प्रयोग आरम्भ हुआ होगा। कुल्हाड़ी का प्रयोग होता था, इस बात के प्रमाण हैं। इस समय मानव को पत्थरों व हड्डियों में छेद करने की विधि का भी ज्ञान हो चुका था। कोमाग्नान मानव तो औजार बनाने की कला में काफी दक्ष हो गया था। उसने कुछ ऐसे औजार बना लिए थे जिनकी मदद से वह पत्थरों को घिस कर उन्हें चिकना और पैना बना लेता था या पत्थरों में छेद कर लेता था।

औजारों के विकास के दूसरे चरण में बड़े नुकीले, कई-कई नोक वाले, लम्बे, बड़े और तेज धार वाले औजार बनने लगे। भाले, बर्छी आदि ऐसे ही औजार थे। इन औजारों से जहाँ मानव को अपनी रक्षा करने में अधिक सामर्थ्य प्राप्त हो गया वहीं उसे शिकार में भी अधिक सुविधा प्राप्त हो गई।

पूर्व पाषाण काल के मानव की दिनचर्या

विद्वानों ने तत्कालीन मानव के अनेक अवशेषों और शस्त्रास्त्रों-औजारों को देखकर उसके जीवन के विषय में अनुमान लगाकर उसका सजीव वर्णन किया है। इस वर्णन से हमें मानव-जीवन के आरम्भिक रूप का पता चलता है और हम यह समझ सकते हैं मानव के सामने उन्नति का कितना लम्बा मार्ग था, जो उसे तय करना था।

तत्कालीन मानव घड़े या मिट्टी के अन्य बर्तन बना नहीं सकता था। अतः वह पानी भर कर नहीं रख सकता था। इसलिए पानी पीने के लिए उसे नदी या झरने पर जाना पड़ता था। ऐसी स्थिति में उसने नदी या झरने के आस-पास ही अपने रहने या उठने-बैठने के स्थान बनाये थे। वह घर बनाना भी नहीं जानता था। अतः गुफाओं में रहता था। बैठने या रहने के स्थान के बीच अग्नि जला देता था क्योंकि उन दिनों ठंडी हवा चलती रहती थी और रात को पाला पड़ता था। अग्नि ही उसे भयानक जीवों से बचा सकती थी। मानव-झुण्ड के सब सदस्य-बच्चे, स्त्रियाँ और झुण्ड का पुरुष नेता-पत्तों और बारीक टहनियों के बने फर्श पर अग्नि के समीप बैठकर काम करते थे। स्त्रियाँ खालों से मांस साफ करती थीं, पुरुष पाषाण के टुकड़ों को नुकीला बनाते थे। स्त्रियाँ और बच्चे मिलकर ईंधन इकट्ठा करते थे।

झुण्ड का नेता केवल पुरुष होता था, शेष स्त्रिायाँ, कन्याएँ और बालक होते थे। जैसे ही कोई बालक बड़ा हो जाता था, पुरुष नेता उसे मार डालता था या झुण्ड से निकाल देता था। ऐसे निकाले हुए पुरुषों के साथ कभी-कभी कन्याएँ भी चली जाती थीं। जब पुरुष नेता चालीस वर्ष या उससे अधिक अवस्था तक पहुंच कर दुर्बल हो जाता था तो झुंड का कोई नवयुवक उसको मारकर स्वयं झुंड का नेता बन जाता था।

भोजन-आदिम काल का मानव पहले शाकाहारी था। अनेक प्रकार के वृक्षों के फल-पूफल और कंद आदि खाकर वह गुजारा करता था। कुछ पौधों की जड़ें नरम तथा स्वादिष्ट होती थीं। अतः इनके प्रति उसका विशेष अनुराग था। वह शहद की मक्खियों के छत्ते तोड़ कर उनमें से शहद खा जाता था। शहद उसका सुस्वाद भोजन था। इस प्रकार वह पूर्णतः शाकाहारी था। किन्तु आगे चलकर वह पक्षियों के अंडे, घोंघे, मेंढक, केकड़े और मछलियों को पकड़ कर खाने लगा। ये चीजें उसे थोड़ा परिश्रम करने के बाद मिल जाया करती थीं।

शिकार-धीरे-धीरे मनुष्य पत्थर के औजार बनाने तथा उनका इस्तेमाल करने लगा। इन औजारों का इस्तेमाल वह अपनी रक्षा के अलावा शिकार के लिए भी करता था। अपने पत्थर के औजारों से वह छोटे-बड़े पक्षियों और जानवरों को मार कर खा लेता था। बड़े पक्षियों के शिकार में कई मनुष्यों की जरूरत पड़ती थी। ऐसे अवसर पर वे एक साथ मिलकर शिकार करते व बाद में उसे बाँटकर अपना पेट भरते थे। अब मनुष्य शिकारी जीवन व्यतीत करने लगा। शिकार के काम में रुचि बढ़ने पर मनुष्य ने अच्छे, बड़े, तेज धार वाले और अधिकाधिक सुधरे औजार बनाने आरंभ कर दिये। प्रायः ऐसा होता था कि दिन भर तलाश करने के बाद कोई शिकार हाथ न आता था, या जो शिकार मिलता था, उससे पेट न भरता था, ऐसी स्थिति में मनुष्य मरे हुए पशुओं के सड़े-गले शव भी खा जाता था। कभी-कभी भूख में वह हड्डियों को भी चबा जाता था।

अभी तक मनुष्य अपना भोजन एकत्र करके नहीं रखता था क्योंकि वह बर्तन वगैरह नहीं बना पाया था। रोज शिकार करना और पेट भर लेना उसका नियम था।

आग का ज्ञान-आरम्भ में आदिम मानव को आग का ज्ञान नहीं था। ज्वालामुखी पर्वतों से निकलते हुए लावे को देखकर डर जाता था। जंगल में आग लग जाने पर वह भौचक्का हो जाता था। वह समझ नहीं पाता था कि यह सब क्या है। किन्तु कालान्तर में वह आग के उपयोग को समझ गया। आग के उपयोग ने उसके जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया, किन्तु सबसे पहले आग की उपयोगिता का ज्ञान उसे कैसे हुआ? हो सकता है कि कभी अनायास ही उसने दो पत्थरों को आपस में रगड़ दिया हो और उसमें से निकली चिंगारी ने उसे आग पैदा करने की कला सिखा दी हो। या ऐसा भी हो सकता है कि जंगल में लगी आग में जले हुए किसी पक्षी या जीव को मनुष्य ने खाया हो और वह उसे बहुत स्वादिष्ट लगा हो। अतः वह जंगल की आग में से कुछ जलता भाग उठाकर अपने रहने की गुफा में ले आया हो।

आग मनुष्य के जीवन में बड़ी उपयोगी थी। मनुष्य अपनी गुफा में और गुफा के बाहर भी आग जलाये रहता था। गुफा के भीतर आग से उसे प्रकाश मिलता था और गर्मी मिलती थी, जो उसे ठंड से बचाती थी। गुफा के बाहर आग होने से वहाँ जंगली जानवर नहीं आते थे। इस प्रकार मनुष्य की जंगली जानवरों से भी रक्षा हो जाती थी। इसके अतिरिक्त आग का ज्ञान हो जाने के कुछ समय बाद मनुष्य ने अपना भोजन आग में पकाकर खाना शुरू कर दिया। आग का ज्ञान मनुष्य के विकास में अत्यन्त उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण चरण था।

निवास स्थान-पूर्व पाषाण काल का मनुष्य मकान नहीं बना सकता था। उसे प्रकृति की शक्तियों से भय लगता था। जंगली जानवरों से उसे अपनी जान का खतरा था। शीत की मार उसे बहुत तकलीफ देती थी। अतः आरम्भ में मनुष्य ने गुफाओं में रहना उपयुक्त समझा। गुफाओं में भी वह बहुत अन्दर की ओर नहीं जाता था क्योंकि वहाँ घना अंधेरा रहता था। गुफा में भी उसे जंगली जानवरों का खतरा रहता था क्योंकि सर्दी से बचने के लिए जंगली जानवर भी गुफा में चले जाते थे। अतः मनुष्य गुफा के द्वार पर लकड़ी के टुकड़े या बड़ी-बड़ी डालें लगा देता था ताकि जंगली जानवर अन्दर न घुस सके। फिर भी उसे हमेशा भय ही रहता था।

आग का ज्ञान होने के बाद उसे बड़ी सुविधा हो गई। अब उसकी गुफा में प्रकाश हो गया। जंगली जानवर भी आग के डर के मारे गुफा के पास नहीं जाते थे। मनुष्य को शीत से बचने का उपाय भी मालूम हो गया। अब मनुष्य गुपफा से बाहर भी रहने लगा। प्रायः किसी पानी वाले स्थान के पास भी वे खुले में आग जलाकर रहने लगते थे। यहाँ भी आग उन्हें सर्दी और जंगली जानवरों से बचाती थी।

वस्त्र-उस समय मनुष्य को कपड़े का ज्ञान होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। मनुष्य एकदम नंगा रहता था। आगे चलकर उसने पेड़ों की पत्तियों और छाल से अपने शरीर को ढकना शुरू किया। अभी उसकी शीत की समस्या हल नहीं हुई थी। तभी मनुष्य ने पशुओं की खाल को अपने शरीर पर लपेटना शुरू किया। कुछ समय बाद उसने खाल को सीने के लिए सुई जैसा एक औजार भी बनाया। इस प्रकार वह खाल के कपड़े पहनने लगा।

आदिम मानव की चित्रकारी-पूर्व पाषाण काल का मानव कला के प्रति भी रुचि रखता था। उसकी कला के दो उद्देश्य हो सकते हैं। कुछ विद्वानों की राय है कि वह प्रायः ऐसे जानवरों के चित्र बनाता था, जिनका वह शिकार करता था। इस काल के मानव का विश्वास था कि चित्र बनाने से उसे अधिकाधिक शिकार मिलने लगेगा। कुछ विद्वानों की राय है कि इन चित्रों के पीछे कोई प्रयोजन नहीं होता था। अपने खाली समय में वह ऐसे पशुओं के चित्र खींच डालता था, जो उसके जाने-पहचाने होते थे। उनके चित्र उस जमाने को देखते हुए बड़े सुन्दर थे।

क्रोमाग्नन मानव द्वारा बनाए गए चित्र गुफाओं में पाये गए हैं। मीरा की गुफाओं में आदिम मानव द्वारा बनाए गए बैल, घोड़े, सुअर आदि के चित्र मिले हैं। इनमें कुछ चित्रों में रंग भी भरे हुए हैं। कुछ चित्र मात्रा हैं और कुछ पूरे हैं। पेड़-पौधों के भी कुछ चित्र हैं। इसके अतिरिक्त इस काल के मनुष्य ने अपने भालों में भी उन पशुओं के चित्र बनाए हैं जिनका वह शिकार करता था। पशुओं की हड्डियों और उनके सींगों पर भी अंकित चित्र मिले हैं। 

जाॅन एस. हालैण्ड नामक इतिहासकार का कहना है कि ‘अनेक चित्र, जो गुफाओं के तीसरे भाग में पाये गए हैं, शायद धार्मिक प्रेरणा से बनाये गए हों, बहुत सुन्दर ढंग से बने हैं। उनमें रंग भरे हुए हैं और बड़े सजीव हैं।’ पूर्व पाषाण युग का मनुष्य शायद यह भी मानता रहा होगा कि जिस औजार पर वह पशुओं के चित्र बनाएगा, उस औजार से वह अधिकाधिक शिकार कर पायेगा।

मूर्तियां-तत्कालीन मानव द्वारा बनाई हुई मिट्टी, पत्थर और हाथी के दाँत की कुछ मूर्तियां भी मिली हैं। इन मूर्तियों या प्रतिमाओं के रूप-नक्श तो साफ नहीं हैं लेकिन अनुमान है कि ये मूर्तियां ही हैं। ये सब बातें तत्कालीन मानव की कलाप्रियता का प्रमाण हैं।

आभूषण-अपने को सजाने और सँवारने की प्रवृत्ति मनुष्य में जन्मजात होती है। आदिम मानव में भी यह प्रवृत्ति थी। अपने साधनों से वह अपने को सजाता-सँवारता था। पत्थर, हड्डियाँ, सीपियाँ, घोंघे, शंख और सींग ही उन दिनों उपलब्ध थे। इन्हीं से वह अपने को सजाता था। अस्त्र-शस्त्र भी एक प्रकार से उसके आभूषण ही थे। सीपियों, घोघों, शंख और सींगों को वह कभी-कभी पिरो कर उनकी माला भी बना लेता था। सुई की शक्ल जैसा उसका एक औजार होता था, जो उसके खाल के कपड़े सीने के साथ ही माला बनाने के काम भी आता रहा होगा।

धर्म और विश्वास-धर्म की भावना का सम्बन्ध ईश्वर से होता है। पूर्व पाषाण काल का मनुष्य ईश्वर के बारे में न कुछ जानता था और न समझता था। किन्तु प्रकृति के कार्यों को देखकर उसे आश्चर्य और विस्मय अवश्य होता था। बिजली की कड़क, आँधी-तूफान, भीषण पशु, वन की आग, प्रकाश और अंधकार उसे भय और आशंका से भर देते थे। वह ईश्वर की बात तो सोच नहीं सकता था, अतः प्रकृति के इन कार्यों को देखकर किसी अज्ञात शक्ति से भयभीत हो उठता था।

आदिम मानव में धर्म और विश्वास जैसी कोई चीज नहीं थी। किन्तु प्रकृति के प्रति जिज्ञासा तथा आतंक की भावना उसमें अवश्य थी। वह जादू-टोने में विश्वास करता था। लोगों का ख्याल है कि वह चित्रा और मूर्तिया भी टोने के रूप में ही बनाता था। आदिम मानव के चित्रों में किसी देवी या देवता के चित्र नहीं मिले हैं। इन चित्रों के संबंध में उसका विश्वास था कि उसे शिकार करने में अधिकाधिक सफलता मिलेगी। शिकार ही उसका एकमात्र आर्थिक कार्य था। अतः उसमें सफलता प्राप्त करने के लिए बनाए गये चित्रों को हम जादू-टोने या अन्धविश्वास वाले चित्र ही कह सकते हैं।

इसी प्रकार का एक अन्य अन्धविश्वास उनमें यह था कि वे मरे हुए व्यक्ति के शरीर पर एक लाल रंग का पाउडर-सा छिड़कते थे। शायद उनका यह विश्वास था कि इस पाउडर के छिड़कने से मृतक फिर से जीवित हो जाएगा। ये अपने मृतक को बड़ी अच्छी तरह से दफनाते थे। मृतक के शव के साथ भोजन की वस्तुएँ और अस्त्र-शस्त्र भी रख देते थे। शव के साथ इन वस्तुओं के रखने के पीछे क्या उद्देश्य था, यह बता सकना कठिन है। किन्तु वे शायद यह विश्वास करते होंगे कि ये वस्तुएँ मृतक के अगले जन्म में काम आयेंगी। वे सम्भवतः पुनर्जन्म में विश्वास करते रहे होंगे।

Post a Comment

Previous Post Next Post