शैक्षिक अनुसंधान का अर्थ, परिभाषा, आवश्यकता एवं क्षेत्र

शैक्षिक अनुसंधान से तात्पर्य उस अनुसंधान से होता है, जो शिक्षा के क्षेत्र में किया जाता है। उसका उद्देश्य शिक्षा के विभिन्न पहलुओं, आयामों, प्रक्रियाओं आदि के विषय में नवीन ज्ञान का सृजन, वर्तमान ज्ञान की सत्यता का परीक्षण, उसका विकास एवं भावी योजनाओं की दिशाओं का निर्धारण करना होता है। 

शैक्षिक अनुसंधान का अर्थ

शिक्षा के अनेक संबंधित क्षेत्र एवं विषय हैं, जैसे- शिक्षा का इतिहास, शिक्षा का समाजशास्त्र, शिक्षा का मनोविज्ञान, शिक्षा-दर्शन, शिक्षण-विधियाँ, शिक्षा-तकनीकी, अध्यापक एवं छात्रा, मूल्यांकन, मार्गदर्शन, शिक्षा के आर्थिक आधार, शिक्षा-प्रबंध, शिक्षा की मूलभूत समस्याएँ आदि। इन सभी क्षेत्रों में बदलते हुए परिवेश एवं परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल वर्तमान ज्ञान के सत्यापन एवं वैधता-परीक्षण की निरंतर आवश्यकता बनी रहती है। यह कार्य शिक्षा-अनुसंधान के द्वारा ही सम्पन्न होता है। इस प्रकार शिक्षा-अनुसंधान शिक्षा के क्षेत्र में वर्तमान एवं पूर्वस्थित ज्ञान का परीक्षण एवं सत्यापन तथा नये ज्ञान का विकास करने की एक विधि, एक प्रक्रिया है। 

शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में अनेक प्रकार की समस्याएँ समय-समय पर सामने आती हैं। उनके समाधान खोजना भी आवश्यक होता है। यह कार्य भी शिक्षा-अनुसंधान के द्वारा ही संभव होता है। इस दृष्टिकोण से शिक्षा-अनुसंधान शिक्षा की समस्याओं के समाधान प्राप्त करने की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। शिक्षा-संबंधी अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने का माध्यम भी शिक्षा अनुसंधान है। 

शैक्षिक अनुसंधान की परिभाषा

शैक्षिक अनुसंधान विशेषज्ञों ने शिक्षा-अनुसंधान की परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं।

भिटनी के अनुसार, शिक्षा-अनुसंधान शिक्षा-क्षेत्र की समस्याओं के समाधान खोजने का प्रयास करता है तथा इस कार्य की पूर्ति हेतु उसमें वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं समालोचनात्मक कल्पना-प्रधान चिंतन-विधियों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार वैज्ञानिक अनुसंधान एवं पद्धतियों को शिक्षा-क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए लागू करना शैक्षिक अनुसंधान कहलाता है।

कौरनेल के अनुसार - विद्यालय के बालकों, विद्यालयों, सामाजिक ढाँचे तथा सीखने वालों के लक्षणों एवं इनके बीच होने वाली अन्तर्क्रिया के विषय में क्रमबद्ध रूप से सूचनाएँ एकत्र करना शिक्षा-अनुसंधान है। 

यूनेस्को के एक प्रकाशन के अनुसार, शिक्षा-अनुसंधान से तात्पर्य है उन सब प्रयासों से जो राज्य अथवा व्यक्ति अथवा संस्थाओं द्वारा किए जाते हैं तथा जिनका उद्देश्य शैक्षिक विधियों एवं शैक्षिक कार्यों में सुधर लाना होता है।

शिक्षा अनुसंधान की आवश्यकता

शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। उसका मूलभूत उद्देश्य व्यक्ति में ऐसे परिवर्तन लाना होता है, जो सामाजिक विकास एवं व्यक्ति के जीवन को उन्नतिशील बनाने के दृष्टिकोण से अनिवार्य होते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति मुख्य रूप से शिक्षा की प्रक्रिया पर निर्भर करती है। यदि शिक्षा की प्रक्रिया सशक्त एवं प्रभावशाली हो तो व्यक्ति में उसके द्वारा उपरोक्त वांछनीय परिवर्तन लाना सरल एवं संभव होगा अन्यथा नहीं। अतः शिक्षा की प्रमुख समस्या है कि उसकी प्रक्रिया को सुदृढ़ प्रभावशाली एवं सशक्त कैसे बनाया जाए। इस समस्या के समाधान हेतु अनुसंधान आवश्यक है। 

शिक्षा की प्रक्रिया एक बहुतत्वीय प्रक्रिया है। उसके अनेक आधारभूत तत्व हैं। सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ, गृह-परिवेश, विद्यालय का वातावरण एवं उसकी अनेक विशेषताएँ, शिक्षण विधियाँ, पाठ्य-सामग्री, शिक्षण की सहायक सामग्री, अध्यापक एवं उसकी अनेक विशेषताएँ, विद्यार्थी एवं उसकी अनेक विशेषताएँ, अधिगम-प्रक्रिया आदि अनेक चर हैं, जो शिक्षा की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। इन सभी की अनेक विशेषताएँ ऐसी हो सकती हैं, जिनके विषय में अभी तक किसी को कोई जानकारी नहीं है। उनकी खोज अनुसंधान के माध्यम से ही संभव है। साथ ही जिन चरों की खोज की जा चुकी है, उनके विषय में यह जानना एवं निश्चित करना आवश्यक है कि शिक्षा की प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने में प्रत्येक कितना महत्त्वपूर्ण है तथा उसका प्रक्रिया में समावेश किस प्रकार किया जाना चाहिए, उसके प्रयोग को किस प्रकार अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से शिक्षा-अनुसंधान का विशेष महत्व है, क्योंकि उसके द्वारा ही उपरोक्त समस्याओं का समाधान संभव हो सकता है।

सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ शिक्षा के प्रसार, उसकी गुणवत्ता, उसके परिणामों एवं उसकी प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं। अतः इनके संदर्भ में शिक्षा की प्रक्रिया एवं उसकी व्यवस्था का अध्ययन किया जाना भी अत्यन्त आवश्यक है। किस प्रकार की परिस्थितियाँ किस प्रकार शिक्षा को प्रभावित करती हैं, यह अनुसंधान द्वारा ही निर्धारित किया जा सकता है। अतः इस दृष्टिकोण से शिक्षा-अनुसंधान का अपना महत्व है।

विद्यार्थियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ भी शिक्षा की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं। अनेक ऐसी विशेषताओं के प्रभाव का अध्ययन किया गया है, परन्तु परिणाम असंदिग्ध् एवं एक से प्राप्त नहीं हुए हैं। कुछ विशेषताओं का अध्ययन तो न के बराबर ही है। अतः इस क्षेत्र में भी अनुसंधान की बहुत आवश्यकता है। इन अध्ययनों को अधिक सुसंगठित एवं वैध विधियों द्वारा सम्पन्न किए जाने की आवश्यकता है।

पिछले कुछ वर्षों में बहुत-सी नई-नई शिक्षण-विधियों का निर्माण किया गया है। इनकी उपयोगिता एवं प्रभाविकता का गहन स्तर पर अध्ययन करने की आवश्यकता है। साथ ही और भी विशिष्ट विधियों की खोज की जानी चाहिए। इस क्षेत्र में अनुसंधान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गत वर्ष में बहुत से शिक्षण-प्रतिमानों का निर्माण किया गया है परन्तु, इनका पर्याप्त परीक्षण नहीं हो पाया है। शिक्षा-अनुसंधान द्वारा इनके परीक्षण की आवश्यकता है। इसी प्रकार अभिक्रमित अधिगम, सूक्ष्म-शिक्षण, सिमुलेटिक शिक्षण की उपयोगिता का अध्ययन भी आवश्यक है। उदाहरण शिक्षक स्वयं शिक्षा की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।

शिक्षक व्यक्तित्व की विशेषताओं, उसके ज्ञान, उसके व्यवहार का विद्यार्थियों के विकास पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, परन्तु ये कौन-सी विशेषताएँ हैं, कैसे अपना प्रभाव डालती हैं, किस प्रकार का प्रभाव डालती हैं आदि ऐसे प्रश्न हैं, जो अभी तक अनुत्तरित हैं। शिक्षा-अनुसंधान द्वारा इनके निश्चित उत्तर प्राप्त करना आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से शिक्षा में अनुसंधान की बहुत आवश्यकता प्रतीत होती है।

प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवेश की परिस्थितियों से प्रभावित होता है। विद्यार्थी निरंतर गृह-परिवेश एवं विद्यालय परिवेश के बीच विचरता है। गृह-परिवेश एवं विद्यालय-परिवेश को कौन-सी परिस्थितियाँ एवं विशेषताएँ, उसके अधिगम एवं विकास को किस प्रकार प्रभावित करती हैं, शिक्षा-अनुसंधान द्वारा इसका निर्धारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में शिक्षा-अनुसंधान की बहुत आवश्यकता है।

शिक्षा की प्रक्रिया के दायरे से हटकर अन्य संदर्भों में भी शिक्षा-अनुसंधान की बहुत अधिक आवश्यकता प्रतीत होती है। शिक्षा-तंत्र आत्मनिर्भर एवं स्वतंत्र नहीं है, उसकी व्यवस्था एवं गतिविधियों पर समाज के कई दूसरे तंत्रों का प्रभाव पड़ता है। राजनीति, सामाजिक-व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, तकनीकी विकास, धर्म, जाति आदि अनेक तत्व शिक्षा को प्रभावित करते हैं। शिक्षा तथा इन सभी के बीच निरंतर अन्तर्क्रिया होती रहती है। अतः यह जानना भी आवश्यक है कि ये सब किस प्रकार किसी देश की शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। शिक्षा भी इन तंत्रों को प्रभावित करती है। अतः यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि शिक्षा इन्हें कहाँ तक और किस प्रकार प्रभावित करती है। इस क्षेत्र में भी शिक्षा-अनुसंधान की आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से भी शिक्षा-अनुसंधान का विशेष महत्व है।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी शिक्षा का अध्ययन किया जाना महत्त्वपूर्ण है। यह मानवीय जिज्ञासा एवं उसकी रुचि का विषय है। विभिन्न कालों में शिक्षा का स्वरूप क्या रहा है, किन परिस्थितियों ने उसे वह रूप दिया है, आज की परिस्थितियों में उसकी क्या प्रासंगिकता है आदि स्वयं में महत्त्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों के उत्तर शिक्षा-संबंधी उपलब्ध ज्ञान की सीमाओं का विस्तार कर सकते हैं तथा मानवीय जिज्ञासा को शांत करते हैं। अतः इस क्षेत्र में भी शिक्षा- अनुसंधान की आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से भी शिक्षा-अनुसंधान का महत्व है।

शैक्षिक नियोजन के दृष्टिकोण से भी शैक्षिक अनुसंधान का बहुत महत्त्व है। संतोषजनक शैक्षिक नियोजन एवं उसके मूलभूत आधार निर्धारित करने के लिए अनुसंधान आवश्यक है।

सावधानी शैक्षिक नियोजन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि संसाधनों एवं दायित्वों की पूरी जानकारी हो। साथ ही समाज के लोगों, उनकी संस्कृति, उनकी पारस्परिक समानताओं-असमानताओं की जानकारी भी आवश्यक है। यह भी आवश्यक है कि समाज के संगठनों, उनके प्रभावी नियंत्रणों, उनकी आवश्यकताओं, आकांक्षाओं एवं समस्याओं की भी अच्छी जानकारी हो। यह जानकारी प्राप्त करने का माध्यम शैक्षिक अनुसंधान ही हो सकता है। अतः उसका इस दृष्टिकोण से भी बहुत महत्व है। इस जानकारी के बिना शैक्षिक नियोजन कभी भी सार्थक एवं यथार्थता से जुड़ा नहीं हो सकता। कई बार ऐसा होता है कि बिना आधारभूत जानकारी के शैक्षिक योजनाएँ बना ली जाती हैं तथा बिना अच्छी तरह विचार किए उन्हें क्रियान्वित कर दिया जाता है और बाद में पता लगता है कि वे समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप न होने के कारण न तो लोगों के हित में हैं और न समाज उन्हें स्वीकार कर पाया है। तब उन पर खर्च किया गया धन एवं जनशक्ति व्यर्थ चले जाते हैं। धन एवं जनशक्ति के दुरुपयोग से बहुत हद तक बचा जा सकता है, यदि शैक्षिक अनुसंधान द्वारा आधारभूत जानकारी प्राप्त करके उसके आधार पर योजनाएँ तैयार की जाए।

शैक्षिक योजनाओं को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने के लिए ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता होती है, जो प्रभावशाली हो। नेतृत्व प्रभावशाली तभी हो सकता है, जब उसे यह जानकारी हो कि किस प्रकार के सुधारों की आवश्यकता है, किस प्रकार की समस्याओं से शिक्षा-जगत के लोग जूझ रहे हैं, शिक्षा की प्रगति में कौन तत्व बाधक हैं, शिक्षा-क्षेत्र के किस कोने में क्या घट रहा है, शिक्षा-जगत के विभिन्न संगठन किस दिशा में जा रहे हैं आदि। शिक्षा-अनुसंधान यह सब जानकारी जुटाकर नेतृत्व को सशक्त एवं प्रभावशाली बना सकता है तथा शिक्षा-जगत की विसंगतियों को दूर करने की सामर्थ्य उसे प्रदान कर सकता है।

प्रायः सभी समाज रूढि़यों, निर्मूल धारणाओं, अनेक प्रकार के पूर्वाग्रहों एवं दकियानूसी विचारों, अंधविश्वासों तथा घिसी-पिटी मान्यताओं से ग्रसित रहते हैं। देश एवं समाज की उन्नति में ये बाधक होते हैं। शैक्षिक अनुसंधान उन्हें प्रकाश में लाने का प्रयास कर सकता है तथा उन कडि़यों को खोजकर समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, जिनसे ये अंधविश्वास जुड़े होते हैं। शिक्षा के माध्यम से इन्हें किस प्रकार दूर किया जा सकता है, ये सुझाव भी शैक्षिक अनुसंधान के द्वारा उपलब्ध हो सकते हैं। कैसे सामाजिक जागरूकता बढे़, लोग अंधकार से प्रकाश में आएँ तथा उनमें सामाजिक जीवन की अच्छी समझ का विकास हो, समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एकजुटता एवं विचार-साम्यता का विकास हो, इन सब लक्ष्यों तक पहुँचने के उपाय, विधियाँ एवं योजनाएँ शैक्षिक अनुसंधान ही सुझा सकता है।

शैक्षिक अनुसंधान का क्षेत्र

शिक्षा के क्षेत्र में किस प्रकार के अनुसंधानों को प्राथमिकता दी जाए, यह प्रश्न भी दो दशकों से बराबर उठाया जा रहा है। समय-समय पर इस संबंध में संस्तुतियाँ भी की जाती रही हैं, परन्तु शोधकर्ताओं ने इसे कभी गम्भीरता से नहीं लिया। इसका एक कारण तो यह रहा है कि प्राथमिकता का आधार क्या हो। इस संबंध में कोई निश्चित मत नहीं बन सका। तृतीय अनुसंधान सर्वेक्षण (1987) के अन्तिम अध्याय में डाॅ. शिव के. मित्र ने सुझाव दिया है कि उन समस्याओं को अनुसंधान हेतु प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जिनकी राष्ट्रीय शिक्षा-नीतियों में उठाई गई समस्याओं के समाधान उपलब्ध कराने हेतु तत्काल आवश्यकता है। 

इससे पूर्व भी 1975 में एन.सी.ई.आर.टी. के एक प्रकाशन एजुकेशन रिसर्च एण्ड इन्नोवेशन्सय् में निम्नलिखित समस्याओं को शिक्षा-अनुसंधान की प्राथमिकता सूची में रखा गया था-
  1. समाज के गरीब वर्ग के बालकों की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन खोजना।
  2. अन्तर्विषयी अनुसंधान।
  3. प्रतिभाओं की खोज एवं उनके विकास से संबंधित समस्याएँ।
  4. चौदह वर्ष तक के बालकों की अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा जिसका भारतीय संविधान की धरा 45 में प्रावधान है, से संबंधित समस्याओं का अध्ययन।
  5. अनुसूचित जातियों एवं जन-जातियों के बालकों की शिक्षा से संबंधित समस्याओं का अध्ययन।
कुछ अन्य शिक्षा-शास्त्रियों ने भी इस संबंध में विचार व्यक्त किए हैं। उन सबको ध्यान में रखते हुए शिक्षा के निम्नलिखित क्षेत्रों में उपरोक्त के अतिरिक्त प्राथमिकता के आधार पर अनुसंधान की आवश्यकता प्रतीत होती है-
  1. छोटे बालकों की देखरेख एवं उनकी शिक्षा,
  2. अनौपचारिक शिक्षा,
  3. शिक्षा का व्यावसायीकरण,
  4. पाठ्यक्रम संशोधन,
  5. जीवन-मूल्यों की शिक्षा,
  6. शिक्षा में क्षेत्रीय असन्तुलन,
  7. शिक्षा एवं सामाजिक परिवर्तन,
  8. शिक्षा-प्रशासन,
  9. शिक्षा में नेतृत्व,
  10. शिक्षा-संस्थाओं के कार्यक्रमों एवं उनकी प्रभाविकता का अध्ययन,
  11. पूर्व-प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियाँ,
  12. शिक्षा संस्थाओं के वातावरण का अध्ययन,
  13. अध्यापक प्रशिक्षण,
  14. तुलनात्मक शिक्षा,
  15. नैतिक शिक्षा,
  16. शैक्षिक अर्थशास्त्र,
  17. शिक्षा एवं विधि शास्त्र,
  18. शिक्षा एवं राजनीति।
उपरोक्त क्षेत्र अति-विस्तृत एवं व्यापक हैं। प्रत्येक क्षेत्र में अनेक समस्याएँ अध्ययन हेतु उपलब्ध हो सकती हैं। इन क्षेत्रों में अध्ययन बहुत कम हुए हैं। इस दृष्टिकोण से ही इनको दर्शाया गया है। विशिष्ट समस्याओं की सूची देना संभव नहीं है।

1 Comments

  1. बहुत सरल भाषा में बहुत सुंदर तरीके से समझाया गया है

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