शोध प्ररचना क्या है शोध प्ररचना का चुनाव तथा नियोजन के कार्य में कुछ आवश्यक बाते

कोई भी सामाजिक शोध बिना किसी लक्ष्य या उद्देश्य के नहीं होता है। इस उद्देश्य या लक्ष्य का विकास और स्पष्टीकरण शोध-कार्य के दौरान नहीं होता, अपितु वास्तविक अध्ययन आरंभ होने से पूर्व ही इसका निर्धारण कर लिया जाता है। शोध के उद्देश्य के आधार पर अध्ययन-विषय के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करने के लिए पहले से ही बनाई गई योजना की रूपरेखा को शोध प्ररचनाएँ कहते हैं। 

श्री ऐकाॅफ ने प्ररचना का अर्थ समझाते हुए लिखा है कि निर्णय क्रियान्वित करने की स्थिति आने से पूर्व ही निर्णय निर्धारित करने की प्रक्रिया को प्ररचना कहते हैं। इस दृष्टिकोण से, उद्देश्य की प्राप्ति के पूर्व ही उद्देश्य का निर्धारण करके शोध कार्य की जो रूपरेखा बना ली जाती है उसे शोध-प्ररचना कहते हैं। जब यह शोध-कार्य किसी सामाजिक घटना से संबद्ध होता है तो वह सामाजिक शोध की प्ररचना कहलाता है। 

अतः यह स्पष्ट है कि सामाजिक शोध-प्ररचना के अनेक प्रकार हैं और शोधकर्ता अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समझकर इनमें से किसी एक प्रकार को चुन लेता है और वह कौन-सा प्रकार है यह मालूम होते ही शोध-कार्य की प्रकृति व लक्ष्य स्पष्ट हो जाते हैं। 

उदाहरणार्थ, यदि हमें यह ज्ञात हो जाए कि कोई शोध-प्ररचना अन्वेषणात्मक है तो स्वतः ही यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी सामाजिक घटना के अंतनिहित कारणों की खोज करना ही उस शोध का उद्देश्य है। इसी प्रकार शोध-कार्य तथ्यों का विवरण मात्रा होगा अथवा नवीन नियमों को प्रतिपादित किया जाएगा अथवा उस शोध-कार्य में परीक्षण व प्रयोग का अधिक महत्व होगा, इन सब बातों को ध्यान में रखकर शोध-कार्य आरंभ करने से पूर्व जो एक रूपरेखा बनाई जाती है उसी को शोध-प्ररचना हम यह कह सकते हैं कि शोध-कार्य के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए उसे एक निश्चित प्रकार के अंतर्गत लाने के लिए तथा शोध-कार्य में उपस्थित होने वाली स्थितियों का सफलतापूर्वक सामना करने के लिए शोध की जो रूपरेखा बनाई जाती है उसी को शोध-प्ररचना कहते हैं।

शोध प्ररचना का चुनाव

शोध प्ररचना में सोच-विचारकर निश्चित योजना बनाकर अत्यंत सतर्कतापूर्वक करने का कार्य होता है। इस योजना की रूपरेखा भी हर संभावित अच्छी-बुरी बातों का ध्यान रखते हुए बनानी होती है। यह रूपरेखा वास्तविक शोध-कार्य में पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है। यदि विषय का चुनाव व नियोजन ठीक हुआ तो शोध की सफलता की संभावना स्वतः ही बढ़ जाती है। अतः प्रत्येक शोधकर्ता को इस चुनाव तथा नियोजन के कार्य में कुछ आवश्यक बातों को सदा ध्यान में रखना होता है जिन्हें कि हम इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं-

1. शोध-विषय के संबंध में आरंभिक ज्ञान - किसी शोध-कार्य में रत होने से पूर्व शोध-विषय के संबंध में आरंभिक ज्ञान होना परमावश्यक है। यह ज्ञान आरंभिक होने पर भी आगे चलकर अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है। यह आरंभिक ज्ञान इस दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है कि इसी के आधार पर हम अंतिम रूप में यह निश्चित कर सकते हैं कि उस विषय को शोध-कार्य के लिए चुनना ठीक होगा अथवा नहीं। इसी आरंभिक ज्ञान से हमें शोध-कार्य के पथ पर आने वाली संभावित एवं व्यावहारिक कठिनाइयों का भी आभास हो सकता है। यही आरंभिक ज्ञान प्राक्कल्पना के निर्माण में भी सहायक सिद्ध होता है। इस आरंभिक ज्ञान की प्राप्ति शोधकर्ता को उस विषय से संबद्ध क्षेत्र में घूमने-फिरने व लोगों से ऐसे ही बातचीत करने तथा उस विषय से संबद्ध अन्य कृतियों को पढ़ने व विशेषज्ञों के विचारों का अध्ययन करने से हो सकती है।

2. विषय के चुनाव में सावधानी -आरंभिक ज्ञान के आधार पर विषय के चुनाव के संबंध में भी अत्यधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है क्योंकि श्री आगबर्न के अनुसार शोधकर्ता द्वारा विषय के चुनाव में अपनाई गई सावधानी की मात्रा उस क्षेत्र में शोधकर्ता के योगदान की संभावनाओं को निर्धारित करती है। अतः श्री आगबर्न ने हमें सचेत किया है कि इस प्रकार के विषय को न चुना जाए जो बहुत ही अस्पष्ट हो या जिसके संबंध में पर्याप्त प्रमाणसिद्ध तथ्य मिलने की संभावना न हो या जो विषय शोध-कार्य की पहुँच के बाहर हो। विषय का चुनाव करते समय इस बात का भी अनुमान लगा लेना चाहिये कि शोध-कार्य में संभवतः कितनी यथार्थता आ सकेगी। 

उदाहरणार्थ, सतीत्व में अंतनिहित मनोवैज्ञानिक कारणों को हम जानते हैं, पर पर्याप्त रूप से नहीं इसी प्रकार प्रजातीय सम्मिश्रण के बारे में भी हमें कुछ पता है, पर वह पर्याप्त नहीं है। ऐसे विषयों को नहीं चुनना चाहिए क्योंकि ज्ञान से सम्बद्ध ‘करीब-करीब ठीक’ तथ्यों का संकलन पर्याप्त नहीं होता। इसी प्रकार ऐसे विषय को भी नहीं चुनना चाहिये जिसके विषय में यह संदेह हो कि उस विषय से सम्बद्ध तथ्यों पर मनोभावों का गहरा रंग चढ़ सकता है, क्योंकि मनोभावों से रंगे हुए तथ्य हमें यथार्थ निष्कर्ष तक नहीं पहुँचा सकते। 

अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध, हड़ताल व तालाबंदी, राष्ट्रवाद, जातिवाद आदि इसी प्रकार के विषय हैं जिन पर मनोभावों का अत्यधिक बोझा लदा होता है और इसीलिये ऐसे विषयों का चुनाव करने से पूर्व विश्वसनीय तथ्यों के संकलन की संभावना व पद्धतियों के विषय में खूब सोच-विचार लेना चाहिए।

3. शोध के क्षेत्र के निर्धारण में सतर्कता - शोध के आरंभिक स्तर पर अत्यधिक सावधानी तथा विवेकशीलता की आवश्यकता है। यदि शोध के क्षेत्र का निर्धारण उचित ढंग से कर लिया गया है तो उत्तम व यथार्थ अध्ययन-पद्धतियों से पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकता है। इसीलिए विद्वानों के अनुसार क्षेत्र के निर्धारण में सतर्कता न केवल आवश्यक है अपितु अनिवार्य भी है। यदि शोध का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है तो शोध-कार्य का जहाज अनुसंधान के महासागर में किसी भी समय भटक सकता है। इसी प्रकार यदि शोध का क्षेत्र अस्पष्ट है तो भी उससे केवल अस्पष्ट निष्कर्षों की ही आशा की जा सकती है। 

उदाहरणार्थ, यदि मैं संपूर्ण ‘जातिप्रथा’ को शोध का क्षेत्र मान लेता हूँ तो मेरा संपूर्ण जीवन जातिप्रथा के संबंध में तथ्यों को इकट्टाò करने में बीत जाएगा और जिन कागजों पर उन तथ्यों का संकलन करूँगा उनका ढेर इतना अधिक होगा कि वह मेरे मृत शरीर को जलाने के लिए पर्याप्त से भी अधिक होगा। अर्थात् उन संकलित तथ्यों के विराट् ढेर से शरीर जल सकता है, पर शोध-निष्कर्ष स्वल्प भी नहीं निकाल सकता। अतः शोध के क्षेत्र को आरंभ में ही सीमित करने की आवश्यकता है।

4. शोध की इकाइयों को परिभाषित करने की आवश्यकता - व्यावहारिक तौर पर शोधकर्ता को एक और विषय का ध्यान रखना चाहिए और वह यह कि जिस विषय को उसने शोध-कार्य के लिए चुना है उसको अत्यधिक स्पष्ट रूप में परिभाषित कर दे जिससे कि किसी भी स्तर पर उसके संबंध में शोधकर्ता या सूचनादाताओं के मन में कोई भ्रांत धारणा न पनप सके। 

उदाहरणार्थ, एक शब्द ‘बाल-विवाह’ को ही लीजिए। यदि हम प्रारंभ में ही यह स्पष्ट रूप से परिभाषित न कर दें कि मासिक धर्म आरंभ होने से पूर्व जितनी भी लड़कियों का विवाह होगा केवल उन्हीं को हम बाल-विवाह के अंतर्गत सम्मिलित करेंगे, तो कुछ सूचनादाता 7 वर्ष की आयु तक, कुछ 10 वर्ष की आयु तक, तो कुछ 14 वर्ष की आयु तक हुए विवाह को ही बाल-विवाह समझेंगे और इसी के अनुसार सूचना प्रदान करेंगे। इससे शोध-कार्य में यथार्थता नहीं पनप सकेगी। इसी प्रकार बेरोजगार ‘व्यक्ति’, ‘समुदाय’ ‘वैवाहिक अनुकूलन’ यहाँ तक कि ‘बालक’ आदि शब्द ऊपरी तौर पर अत्यधिक सरल व सीधे लगते हैं, पर शोध-कार्य में अस्पष्टता को पनपाने में भी उनका महत्त्वपूर्ण योग हो सकता है। अतः आरंभ में ही उन्हें स्पष्ट रूप से परिभाषित करने का परामर्श सभी देते हैं। 

श्रीमती यंग ने भी लिखा है कि स्पष्ट रूप से परिभाषित इकाइयाँ न केवल यथार्थ निरीक्षण के अपितु अध्ययन-कार्य के आगे बढ़ने के साथ-साथ यथार्थ नाप तथा तुलना के भी आधार बन जाती हैं। बिना यथार्थ तथा सही परिभाषाओं के हम अपने अध्ययन में केवल कूड़ा-करकट को ही इक्कठा करते रहेंगे। अस्पष्ट तथा अप्रामाणिक इकाइयों के फलस्वरूप पर्याप्त व्यर्थ की सामग्री का संकलन अवश्यंभावी है।

 श्री एम. सी. एलमर ने भी लिखा है कि जहाँ तक संभव हो, इकाइयों को समस्त विरोधी या परिवर्तनीय तत्वों से स्वतंत्र रखना चाहिए। यदि हमें एक समुदाय के बालकों की संख्या जाननी हो तो हमें पहले से ही यह स्पष्ट कर लेना होगा कि किस आयु तक के पुरुष-बच्चों को हम ‘बालक’ की श्रेणी में रखेंगे? यदि हमने यह निश्चित किया कि नवजात शिशु से 20 वर्ष की आयु तक के पुरुष-बच्चों को हम ‘बालक’ कहेंगे तो हमें अन्य संभावित परिस्थितियों के संबंध में भी स्पष्ट होना पड़ेगा। उदाहरणार्थ, यदि 20 वर्ष की आयु तक बालक है, तो क्या 20 वर्ष तक की आयु के विवाहित व दो बच्चों के बाप को भी हम ‘बालकों’ की श्रेणी में रखेंगे? ऐसे ही हर संभावित अवस्थाओं के संबंध में हमें सचेत रहना होगा।

5. भावी कठिनाइयों का बोध -शोधकर्ता को अध्ययन-कार्य आरंभ करने से पूर्व ही उन कठिनाइयों के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए जो प्रस्तावित शोध में उसके सामने आ सकती हैं। उदाहरणार्थ, यदि पहले से ही शोधकर्ता यह पता लगा लेता है कि सूचनादाता साक्षात्कार के लिए कब मिलेंगे या क्षेत्र तक जाने-आने की क्या कठिनाई होगी तो वास्तविक शोध-कार्य के समय व्यर्थ ही श्रम, समय व धन की बर्बादी न होगी।

6. पद्धति का चुनाव - एक और अत्यंत व्यावहारिक बात, जिस पर कि अनुसंधानकर्ता को ध्यान देना चाहिए, यह है कि विषय की प्रकृति के अनुसार अध्ययन-पद्धतियों का सावधानी से चुनाव कर लिया जाए। केवल कुछ आकर्षक व कठिन पद्धतियों को अपना लेने से ही शोध-कार्य की यथार्थता की गारण्टी नहीं मिल जाती है। इसके लिए विषय की प्रकृति के अनुसार सबसे उपयुक्त पद्धति का चुनाव परम आवश्यक है। एक विषय के लिए जो पद्धति ठीक है, दूसरे के लिए वही बिल्कुल बेकार सिद्ध हो सकती है। इसीलिए चुनी हुई पद्धति या पद्धतियों का परीक्षण करके उसकी उपयोगिता का अनुमान लगाना तथा आवश्यकतानुसार सुधार कर लेना भी लाभकारी होता है। ऐसा करने से वास्तविक शोध-कार्य के दौरान एक बार अपनाई गई पद्धति को बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ती और बिना किसी पद्धतिशास्त्राीय अड़चन के शोध-कार्य अपने निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ता चला जाता है।

7. तथ्यों के स्रोत तक पहुँचने के संबंध में अनुमान - केवल पद्धतियों का उचित चुनाव कर लेने मात्रा से ही शोध-कार्य सफल नहीं हो सकता जब तक तथ्यों के स्रोतों के संबंध में-अर्थात् कहाँ-कहाँ से विषय से सम्बद्ध आँकड़े व प्रमाण प्राप्त होंगे-इस बात का स्पष्ट अनुमान शोधकर्ता को न हो। और फिर केवल स्रोतों का पता होना ही पर्याप्त नहीं है उन स्रोतों तक शोधकर्ता की पहुँच हो भी सकती है या नहीं, इसका अनुमान भी होना आवश्यक है। अतः तथ्यों के स्रोत तथा उन तक पहुँच के संबंध में शोधकर्ता को पहले से ही स्पष्ट अनुमान होना चाहिए। 

श्री वी. एम. पामर ने लिखा है कि कभी-कभी तथ्यों के स्रोत तक पहुँच न होने के कारण बीच में ही शोध-कार्य को काफी समय के लिए रोक देना पड़ता है अथवा विषय का कोई एक पक्ष अछूता रह जाता है अतः इस संबंध में पहले से ही सचेत रहना चाहिए।

8. पूर्व-अध्ययन व पूर्व-परीक्षण के अनुसार अध्ययन के समय आने वाली कठिनाइयों का अनुमान करने के लिए, निदर्शनों का सही चुनाव करने के लिए, सूचना के स्रोत की खोज करने के लिए, संभावित विकल्पों का ज्ञान करने के लिए, विषय की प्रमुख विशेषताओं का अनुमान करने के लिए तथा अध्ययन की अवधि तथा व्यय का अनुमान करने के लिए शोध-विषय का पूर्व-अध्ययन केवल उपयोगी ही नहीं, परम आवश्यक है। इसी प्रकार अध्ययन-पद्धतियों तथा प्रविधियों की उपयोगिता की जाँच करने तथा इनमें सुधार की आवश्यकता का पूर्व-ज्ञान करने के लिए पूर्व-परीक्षण अत्यंत लाभदायक सिद्ध होता है।

9. समय तथा व्यय का अनुमान -सामाजिक शोध में धन तथा समय दोनों बहुत अधिक लगते हैं। अतः शोधकर्ता के लिए यह बहुत जरूरी है कि वह इन दोनों के संबंध में पहले से ही अनुमान लगा ले। ऐसा न करने पर यह हो सकता है कि इनमें से किसी के अभाव से शोध-कार्य बीच में ही रुक जाए अथवा सदा के लिए अधूरा ही रह जाए। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पहले से ही समय तथा धन का उचित वितरण न कर लेने से कुछ कम महत्त्वपूर्ण मदों या विषयों पर अधिक समय तथा धन का अपव्यय कर दिया जाता है, जबकि आगे चलकर महत्त्वपूर्ण मदों या विषयों पर खर्च करने के लिए बहुत कम धन तथा समय शेष रहता है। ऐसा होने पर शोध-कार्य में संतुलित प्रगति नहीं हो पाती है। अतः शोध-कार्य के बजट तथा समय-सारणी का निर्माण आवश्यक है।

10. कार्यकर्ताओं का चुनाव तथा प्रशिक्षण - प्रायः शोध-कार्य में अन्य अनेक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है। इनकी योग्यता तथा कार्य-कुशलता पर ही शोध-कार्य की सफलता काफी सीमा तक निर्भर होती है। अतः यह आवश्यक है कि इन कार्यकर्ताओं का चुनाव अति सावधानी से किया जाए और उन्हें क्षेत्र में भेजने से पूर्व विषय की प्रकृति, लक्ष्य, पद्धति का सर्वोत्तम प्रयोग, तथ्यों का निरीक्षण व संकलन आदि विषयों में अच्छी तरह से प्रशिक्षित कर लिया जाए।

11. शोध-प्रशासन - शोध-कार्य प्रारंभ होने से पूर्व कार्यकर्ताओं का संगठन (अर्थात् किस कार्यकर्ता को किस कार्य में लगाया जाएगा), शोध-कार्य का संचालन तथा अन्य प्रशासकीय व्यवस्था उपयुक्त रूप में कर लेनी चाहिए। ऐसा न होने पर बीच में ही गड़बड़ी की स्थिति उत्पन्न होने और शोध कार्य के अटक जाने की संभावना होती है।

12. स्वयं को प्रस्तुत करना -अंत में, शोध कार्य के लिए अत्यंत आवश्यकता इस बात की है कि शोधकर्ता स्वयं भी अपने को तैयार करें। उसकी तैयारी उसके अपने गुणों पर निर्भर रहेगी। पर प्रत्येक दशा में यह आवश्यक होगा कि शोधकर्ता अपने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पनपाए, जिससे कि शोध-कार्य के किसी भी स्तर पर उसका अपना पक्षपात, मिथ्या-झुकाव पूर्वधारणा, आदर्श, मूल्य, उचित-अनुचित या अच्छे-बुरे का मापदंड अध्ययन को विकृत न करे।

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