अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त

पृष्ठभूमि

अरस्तू के विरेचन सिद्धान्त को समझने से पहले हमें अरस्तू के गुरु प्लेटो के आदर्श को समझना होगा जिसके अन्तर्गत प्लेटो ने घोषित किया था कि आदर्श राज्य के आदर्श नागरिक से यह आशा की जाती है कि वह अपनी क्षुद्र वासनाओं का दमन करे, उनका निराकरण करे। प्लेटो की यह भी धारणा यो कि काव्य हमारी क्षुद्र वासनाओं को उभारता है, उनका प्रचार करता है और आदर्श नागरिकता के मार्ग में बाधा उपस्थित करता है।

उसने यह भी स्वीकार किया कि उस समय यूनान में परिव्याप्त उच्छृंखलता और चारि दोष के लिए काव्य ही दोषी था। कवि मूलतः यश और धन का अभिलाषी होता है। वह कविता में वासनाजों एवं भावनाओं को अतिरंजित रूप में प्रस्तुत करता है। वह मानव वासनाओं के दमन के स्थान पर उनका सिंचन और पोषण करता है। अतः कविता त्याज्य है।

प्लेटो ने त्रासदी पर भी आरोप लगाया कि त्रासदी का नायक अपनी आपदाओं और कष्टों का रूदन-विलाप करके दर्शक के भावों को उहीप्त करता है। जबदि वास्तविक जीवन में हम उसी व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं जो आपदाओं और कष्टों का रूदन नहीं करता, अपितु डटकर उनका सामना करता है। अतः प्लेटो ने काव्य के बारे में विशुद्ध नीतिपरक एवं उपयोगितावादी दृष्टि से विचार किया।

अरस्तू यूनान के इसी प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो का प्रतिभासम्पन्न शिष्य था। यह परम विद्वान्, विवेकशील एवं सूक्ष्म दृष्टा काव्यशास्त्री था जिसने प्लेटो के मत के प्रतिवाद के रूप में 'विरेचन सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया। अरस्तू ने प्लेटो के जीवनकाल में उसके सिद्धान्तों का खण्डन करके काव्य के बारे में यथार्थ मूल्य-दृष्टि का प्रतिपादन किया।

उसने कहा कि कविता क्षुद्र वासनाओं के दमन के स्थान पर उनका विरेचन, निष्कासन अथवा परिशमन करती है। अरस्तू ने विरेचन सिद्धान्त की कोई परिभाषा नहीं दी और न कही उसकी विस्तृत व्याख्या की है।

विरेचन का अर्थ एवं स्वरूप

विरेचन के लिए यूनानी शब्द कैथार्सिस प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है-मल शुद्धि, निष्कासन, बहिर्गमन, निकालना आदि। यूनान में आयुर्विज्ञान तथा चिकित्साशास्त्र में कैथार्सिस शब्द रेचक औषधि के लिए प्रयुक्त हुआ है। रेचक औषधि पेट की मल-शुद्धि या मल निष्कासन के लिए प्रयुक्त होती है। अरस्तू एक वैद्य का पुत्र था। उसी रेचन के सन्दर्भ में उसने विचार-शुद्धि के लिए इस सिद्धान्त का प्रयोग किया। अरस्तू का विचार था कि वासनाएँ मानव का स्वाभाविक गुण हैं।

मनोविज्ञान भी अरस्तू के इस मत का समर्थन करता है। अतः अरस्तू के अनुसार वासनाएँ मानव जीवन का स्थायी एवं अनिवार्य अंग हैं। भय, करुणा, त्रास आदि हीन भावनाएँ ही हमारे अन्दर उसी प्रकार रहती हैं जिस प्रकार शौर्य, साहस, वीरता, प्रणय आदि उच्च भावनाएँ रहती हैं। इन भावनाओं का दमन करके मन की शान्ति प्राप्त नहीं होती बल्कि उन्हें उद्ध करने, विरेषित करने से ही मनःशान्ति प्राप्त होती है

जैसे वैद्य उदर विकार व्यक्ति को रेचक औषधि देकर मल विरेचन द्वारा शारीरिक और मानसिक शान्ति प्रदान करता है उसी प्रकार से अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त काव्य पर लागू होता है। कविता भी हमारे मनोवेगों को उदबुद्ध करके उनका समंजन करती है, उन्हें शुद्ध करती है। अतः कविता त्याज्य नहीं, ग्राह्य है। अरस्तू ने अपनी दो रचनाओं में विरेचन शब्द का प्रयोग किया है।

अर्थात् " त्रासदी किसी गम्भीर, स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका माध्यम नाटक के भिन्न-भिन्न रूप में प्रयुक्त सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत भाषा होती है, जो समाख्यान रूप में न होकर कार्य व्यापार के रूप में होती है और जिसमें करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।" इस उद्धहरण से प्रकट होता है कि यहाँ अरस्तू ने प्लेटो के आक्षेप का उत्तर देने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट किया है कि त्रासदी के मूल भाव त्रास और करुणा होते हैं

और पहले इन भावों को उबुद्ध तथा बाद में इनका विरेचन कर मानव-मन का परिष्कार करना त्रासदी का मुख्य उद्देश्य होता है।दूसरा, उन्होंने 'राजनीतिशास्त्र' में विरेचन शब्द का प्रयोग किया है। वहाँ वे लिखते हैं कि संगीत का अध्ययन अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए अर्थात् शिक्षा के लिए धार्मिक आवेश को शान्त करने के लिए तथा आनन्द की उपलब्धि के लिए। इस संबंध में डॉ. नगेन्द्र लिखते हैं- “धार्मिक रागों के प्रभाव से-ऐसे राग के प्रभाव से जो रहस्यात्मक आवेश को उद्बुद्ध करते हैं-वे शान्त हो जाते हैं,

मानो उनके आवेश का शमन और विरेचन हो गया हो। करुणा और त्रास से आविष्ट प्रत्येक भावुक व्यक्ति इस प्रकार का अनुभव करता है और दूसरे भी अपनी-अपनी संवेदना शक्ति के अनुसार प्रायः सभी इस विधि से इस प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते हैं, उनकी आत्मा विशद् और प्रसन्न हो जाती है। इस प्रकार के विरेचन राग मानव समाज को निर्दोष आनन्द प्रदान करते हैं।"

विरेचन की व्याख्याएँ


आज भी अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त उपयोगी, सार्थक एवं तर्कसंगत माना जाता है। इसकी धार्मिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक, कलात्मक तथा आयुर्वेज्ञानिक हर प्रकार की व्याख्या की गई। परवर्ती आलोचकों के लिए वह एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। अतः इस धर्मपरक, कलापरक तथा नीतिपरक अर्थ निकालने के प्रयास किए गए जिनका विवेचन इस प्रकार है-

(क) धर्म-परक अर्थ

संसार के प्रायः सभी देशों की भाँति यूनानी नाटक का श्रीगणेश भी धार्मिक उत्सवों से ही हुआ माना जाता है। इस पृष्ठभूमि में विरेचन की व्याख्या प्रो. गिल्बर्ट मरे एवं एक अन्य विद्वान् लियो ने की है। प्रो. मरे के अनुसार यूनान में वर्षारम्भ पर दिओन्युसस नामक यूनानी देवता से सम्बद्ध एक उत्सव का आयोजन धूमधाम से किया जाता था। यह उत्सव अपने आप में एक विशेष शुद्धि का प्रतीक था, क्योंकि इस अवसर पर देवता से प्रार्थना की जाती थी

कि वह उपासकों को बीते हुए वर्ष के कलुष, कुकर्मों एवं पापों से मुक्त करके आगामी वर्ष में शुद्ध ह्रदय से पाप मुक्त जीवन बिताने की प्रेरणा प्रदान करे। लिवी ने एक अन्य तथ्य की ओर संकेत किया है। उसके अनुसार अरस्तू के जीवनकाल में ही यूनानी ट्रेजेडी रोम में प्रवेश पा चुकी थी। किन्तु यह प्रवेश किसी कलात्मक उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं, वरन् धार्मिक अन्धविश्वास के परिणामस्वरूप हुआ था। रोम निवासियों की मान्यता थी कि इस प्रकार का उत्सव मनाने से दैवी आपदाओं का निवारण हो जाता है।

सम्भवतः अरस्तू को अपने विरेचन सिद्धान्त की प्रेरणा इसी प्रक्रिया से मिली और उसने इसका लाक्षणिक प्रयोग उसी के आधार पर किया। इन सब तथ्यों के आधार पर 'विरेचन' का धर्म-परक अर्थ मानने वाले आलोचकों एवं विद्वानों का मत है कि 'विरेचन' का अर्थ है बाह्य उत्तेजना और अन्त में बाह्य उत्तेजना के शमन द्वारा आन्तरिक शुद्धि एवं शान्ति । आलोचना-धार्मिक संगीत की ओर तो अरस्तू ने स्वयं संकेत किया था।

उनकी रचना में मानसिक शुद्धि का हवाला भी मिल जाता है। लेकिन प्रो. मरे ने धार्मिक प्रथा के साथ विरेचन को जोड़कर कुछ अधिक अर्थ निकालने का प्रयास किया है। यहाँ पर यह जान लेना अत्यन्त आवश्यक होगा कि अरस्तू यूनानी परिस्थितियों से अत्यधिक प्रभावित थे। अतः अरस्तू के सिद्धान्त पर कुछ धार्मिक प्रभाव भी हो सकता है। यह प्रभाव प्रत्यक्ष - तथा अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में सम्भव है। धर्म भी श्रोता के भावों को उत्तेजित कर सकता है। कविता पाठक की करुण मनोवृत्तियों का निवारण ही नहीं करती अपितु स्वस्थपरक भावनाओं की अभिवृद्धि भी करती है।

(ख) नीति-परक अर्थ

यूरोप में पर्याप्त समय तक अरस्तू के 'विरेचन' के नीति-परक अर्थ का बोलबाला रहा, जिसका प्रतिपादन वारनेज, कारनेई, रेसीन आदि विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से किया। इस अर्थ का प्रतिपादन भी अरस्तू के ग्रंथ 'पॉलिटिक्स' के उसी उद्धरण के आधार पर किया गया, जिसमें उसने संगीत का एक उद्देश्य विरेचन भी बताया है।

जर्मन विद्वान् वारनेज ने इसी कथन के संदर्भ में 'विरेचन' के अर्थ की स्थापना की जो नीति-परक माना जाता है, क्योंकि इसका आधार व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य है। वारनेज के अनुसार मानव मन में अनेक मनोविकार घर बनाए रहते हैं। इन मनोविकारों में करुणा एवं भय का भी अपना स्थान है और ये मूलतः दुःखद मनोवेग हैं। त्रासदी रंगमंच पर ऐसी काल्पनिक परिस्थितियाँ अथवा दृश्य प्रस्तुत करती है, जिनमें मानव मन के मनोवेग-करुणा एवं भय अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं अर्थात् त्रासदी की ये काल्पनिक परिस्थितियाँ करुणा एवं भय से भरपूर होती हैं।

जब प्रेक्षक इन परिस्थितियों का अवलोकन करता है और उनमें से मानसिक रूप से गुजरता है तो उसके मन में अवस्थित करुणा एवं भय के आवेगों का पहले तो तीव्र और उद्दाम उद्वेलन होता है और तत्पश्चात् उनका उपशमन उद्दाम उद्वेलन एवं तत्पश्चात् उपशमन हो जाने से प्रेक्षक के इन आवेगों का दंश समाप्त हो जाता है और उसे मानसिक शान्ति एवं सामंजस्य का सुखद अनुभव होता है।

आधुनिक मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण शास्त्र भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। इनके अनुसार मनुष्य के मनोवेग प्रायः कुंठित होकर अवचेतन में चले जाते हैं और वहाँ से अनजाने ही मन को दंशित करते रहते हैं। पूरे न होने के कारण ये ग्रन्थि में परिणत हो जाते हैं। यह एक प्रकार की मानसिक बीमारी है, जिसका मनोवैज्ञानिक उपचार यही है कि उन मनोवेगों को किसी प्रकार उबुद्ध कर उद्वेलित किया जाए और उचित प्रकार से परितुष्ट किया जाए।

यद्यपि अरस्तू इन शास्त्रों की आधुनिक पद्धतियों से परिचित नहीं था, किन्तु इनके आधारभूत सत्य से अनभिज्ञ नहीं था जिनका साक्षात्कार उसने अपनी सूक्ष्म क्रांतिदर्शी प्रतिभा द्वारा कर लिया था। इस प्रकार विरेचन का नीति-परक अर्थ हुआ मनोवेगों अथवा मनोविकारों के उद्दाम उद्वेलन के पश्चात् उद्वेग का शमन और उससे उत्पन्न मानसिक विशुद्धता ।

आलोचना

जहाँ तक विरेचन के नीति-परक अर्थ का सम्बन्ध है, आधुनिक मनोविश्लेषण शास्त्र भी इसी की पुष्टि करता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक फ्रॉयड, एडलर, जुंग आदि भी यह मानते हैं कि जब आदमी की वासनाओं की परितृप्ति नहीं होती, तो हमारे मनोवेग कुठित हो जाते हैं और अवचेतन मन में वासनाएँ बैठ जाती हैं जो मनुष्य को निरंतर दशित करती रहती हैं।

उनकी उचित तृप्ति न होने पर वासनाएँ मानसिक रुग्णता का रूप धारण कर लेती हैं। ऐसा कुंठाग्रस्त व्यक्ति तभी मानसिक परितोष प्राप्त कर सकता है, जब उसके अतृप्त मनोवेग तृप्ति प्राप्त कर लेंगे। इस प्रकार विरेचन से न भावों का दमन होता है, न ही निष्क्रमण अपितु उनका संतुलन होता है। अतः भावातिरेक मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है।

कला-परक अर्थ

वस्तुतः कला-परक अर्थ के संकेत सर्वप्रथम प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् आलोचक गेटे में मिलते हैं। गेटे से ही प्रेरणा प्राप्त करके अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावादी कवि आलोचकों ने भी 'विरेचन' के इसी अर्थ की ओर संकेत किया है। किन्तु इस कला-परक अर्थ का सर्वाधिक आग्रहपूर्ण प्रतिपादन अरस्तू के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार प्रो. बूचर ने किया। प्रो. बूचर के अनुसार 'विरेचन' शब्द केवल मनोविज्ञान अथवा निदान शास्त्र के एक तथ्य विशेष का ही याचक न होकर, एक कला सिद्धान्त का भी व्यंजक है।

इस प्रकार स्पष्ट रूप से उनके मत में विरेचन का केवल चिकित्सा शास्त्रीय अर्थ अरस्तू के संपूर्ण अर्थ को अभिव्यंजित नहीं करता। काव्य-शास्त्र. में कला सम्बन्धी सिद्धान्तों के संदर्भ में उसका अर्थ अधिक व्यापक है। मानसिक सामंजस्य एवं संतुलन विरेचन का प्रारम्भिक भाग है जिसकी परिणति कलात्मक परिष्कार में होती है। यह कलात्मक परिष्कार त्रासदी के कलागत आस्वाद का आवश्यक प्रतिफलन है।

डॉ. जानसन ने स्वीकार किया है कि भाव मानवीय कार्यों के प्रेरक होते हैं, परन्तु वे अशुद्ध तत्त्वों से पूर्ण होते हैं। इसी से करुणा एवं भय के माध्यम से अशुद्धियों का परिष्कार किया जाता है। इस प्रकार विरेचन का अर्थ हुआ - करुणा और भय के भावों के माध्यम से मानव मन के कुत्सित भावों का परिष्कार ।

आलोचना

बूचर ने विरेचन के दो पक्ष मानते हैं-भावात्मक एवं अभावात्मक अभावात्मक पक्ष पहले मनोवेगों को उत्तेजित करता है। फिर उनका शमन करके मन को शान्ति प्रदान करता है। परन्तु उसका भावात्मक पक्ष है-कलात्मक परितोष विरेचन से अरस्तू का अभिप्राय केवल मन का सामंजस्य और भावनाओं की शुद्धता 1 ते था। अरस्तू के अनुसार त्रास और करुणा दोनों कटु भाव हैं। विरेचन प्रक्रिया से यह कटुता नष्ट हो जाती है और प्रेक्षक मनःशान्ति को अनुभव करता है।

मन की यह शान्ति सुखद होती है। परन्तु प्रो. बूचर त्रास और करुणा के साधारणीकरण होने से अव्यवस्था के परिवर्तन के द्वारा कलात्मक प्रक्रिया पर बल देते हैं। डॉ. नगेन्द्र इसे विरेचन सिद्धान्त के अन्तर्गत स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि विरेचन द्वारा प्रेक्षक मन की शान्ति को अनुभव करता है। अतः कलापरक अर्थ उनको मान्य नहीं है। आगे चलकर विरेचन के अनेक अर्थ निकाले गए। जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

भाव-मूलक अर्थ

भाव-मूलक अर्थ का प्रतिपादन लूकस एवं हर्बर्ट रोड जैसे आलोचकों ने किया। वास्तविक जीवन में करुणा एवं भय जैसे भावों का उद्रेक सुरक्षित नहीं, किन्तु इन भावों का दबाव भी न तो संभव है और न स्वस्थ । अतः प्रेक्षागृह में ट्रेजेडी के अवलोकन से इन भावों का उद्रेक वास्तविक जीवन की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है।

लूकस का मत है कि हम प्रेक्षागृह में भाव को प्राप्त करने के लिए जाते हैं, न कि उनसे ! छुटकारा पाने के लिए। इसका अर्थ यह हुआ कि कम से कम कुछ क्षण के लिए, नाटक के अन्त में, उन भावों के लिए हमारी भूख या मांग समाप्त हो जाती है, जिससे हमें मानसिक विश्राम मिलता है। यही 'विरेचन' का भाव-मूलक अर्थ है।

मनोवैज्ञानिक अर्थ

मनोवैज्ञानिक अर्थ के प्रतिपादक आधुनिक आलोचक आई. ए. रिचर्ड्स का कन है कि करुणा प्रवृत्तिमूलक भाव है और भय निवृत्तिमूलक, अर्थात् करुणा के जाग्रत होने पर हम किसी प्रकार की क्रिया में प्रवृत्त होते हैं जिससे पीड़ित व्यक्ति का दुःख दूर हो सके। किन्तु भय में हम दृश्य से दूर भागना चाहते हैं। इसलिए जब ट्रेजेडी को देखते समय इन दोनों विरोधी भावों की अनुभूति होती है तो एक प्रकार के सन्तुलन का अनुभव होता है। अतः यही सन्तुलन 'विरेचन' है, जिसमें हमें आनन्द प्राप्त होता है।

होम्योपैथी तथा ऐलोपैवीपरक अर्थ

विरेचन के पहले अर्थ का प्रतिपादन इटली के पुनर्जागरण काल के कुछ आलोचकों द्वारा किया गया। अंग्रेजी के महान् कवि मिल्टन ने भी इसका अनुमोदन किया। यह अर्थ होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति की भाँति समान से समान चिकित्सा सिद्धान्त पर आधारित है। पुनः नव- क्लासिकवाद के बाल में भावुकता के बढ़ते हुए प्रभाव के परिणामस्वरूर विरेचन के लिए ऐलोपैथीपरक अर्थ को भी समर्थन मिला। इसमें समान का असमान से चिकित्सा पद्धति पर बल दिया जाता है।

अर्थात् जो भाव मानवीय कार्यों के प्रेरक होते हैं, वे अशुद्ध तत्त्वों से परिपूर्ण होते हैं। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि करुणा एवं भय के माध्यम से उन अशुद्धियों का शुद्धिकरण और परिष्कार किया जाए। लेकिन ल्यूकस होम्योपैथिक तथा ऐलोपैथिक अर्थों के बारे में कहता है कि प्रेक्षागृह कोई अस्पताल नहीं है जहाँ पर शरीर के रोगों के समान प्रेक्षक के अन्तर्मन की भावनाओं एवं रोगों का भी उपचार होता है। प्रेक्षक तो आनन्दानुभूति पाने के लिए ही नाटक देखने जाता है।

आक्षेप

अनेक विद्वानों ने विरेचन सिद्धान्त पर कुछ आक्षेप भी किए हैं। उन्हें विरेचन प्रक्रिया के अस्तित्व पर विश्वास नहीं है। उनका विचार है कि वास्तविक अनुभव में विरेचन होता नहीं। क्योंकि त्रासदी को देखकर करुणा, बास और भय आदि मनोवेग जागृत होते हैं, परन्तु मनःशान्ति प्रदान नहीं करते। उनका यह भी विचार है कि बहुत से नाटक या फिल्में केवल प्रेक्षक के भावों को क्षुब्ध करके रह जाती हैं। परन्तु भारतीय आलोचक डॉ. नगेन्द्र इस मत से सहमत नहीं है। उनका कथन है-"

"विरेचन प्रक्रिया भावों को उद्बद्ध करती है तथा उनका समंजन करती है तथा आनन्द की भूमिका तैयार करती है। यही विरेचन सिद्धान्त की सबसे महत्त्वपूर्ण देन है।"" दूसरा आक्षेप यह लगाया जाता है कि त्रासदी में प्रदर्शित भाव वास्तविक नहीं होते हैं। ये हमारे भावों को उत्तेजित नहीं कर पाते। फिर विरेचन का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

नाटक में प्रेक्षक केवल कला का आस्वादन करता है। परन्तु ये आक्षेप भी लचर प्रतीत होते हैं। क्या हम यह मानकर चलें कि शेक्सपियर का 'हैमलेट' केवल हमें कला का आस्वादन प्रदान करता है? आज के सिनेमा और रंगमंच भी हमें आनन्दानुभूति प्रदान करते हैं। आज भी प्रेक्षक "हैमलेट" तथा "सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र" जैसे नाटकों को देखकर रो पड़ता है। यह केवल भावोद्रेक का चमत्कार नहीं है।

अतः हमें यह मानकर चलना होगा कि विरेचन की प्रक्रिया के द्वारा ही प्रेक्षक को आनन्दानुभूति प्राप्त होती है। इस संदर्भ में डॉ. शांतिस्वरूप गुप्त ने उचित ही लिखा है- "विरेचन सिद्धांत" की अपनी समस्त शक्ति तथा सीमाओं सहित पाश्चात्य काव्यशास्त्र को अरस्तू की महत्त्वपूर्ण देन है। इसके द्वारा अरस्तू ने प्लेटे के काव्य पर लगाए आरोप का उत्तर दिया, काव्य की महत्ता स्थापित की और त्रादसी के प्रभाव को गौरवपूर्ण बनाया। अरस्तू के विरेचन, रिचर्ड्स के अंतर्वृत्तियों के समंजन और शुक्ल जी द्वारा प्रतिपादित 'हृदय की मुक्तात्या' में अन्ततः कोई भेद नहीं।"

Credit: HindiShala.in 

Post a Comment

Previous Post Next Post