बाल मनोविज्ञान का अर्थ एवं परिभाषा

बाल मनोविज्ञानः– मनोविज्ञान शब्द में बाल ‘उपसर्ग' लगने से बना बाल मनोविज्ञान जिसका तात्पर्य बच्चों का मनोविज्ञान या बाल व्यवहार का अध्ययन ।

बालकों का मनोविज्ञान बहुत रोचक है। इसमें बाल्यावस्था में होने वाले क्रमिक विकास व्यक्तित्व संबंधी विशेषताओं और मनोदशा का अध्ययन किया जाता है। यदि हम बाल मनोविज्ञान पर शाब्दिक दृष्टि से ही विचार करें तो कह सकते है कि ‘“बाल मनोविज्ञान बालक के मन का अध्ययन करता है । " 

“बाल मनोविज्ञान जन्म से किशोरावस्था तक विभिन्न विकासों का अध्ययन करता है।”

बाल मनोविज्ञान का अर्थ

बाल्यावस्था मानव के समूचे जीवन की आधारशीला है। अतः इस अवस्था में ही उसके जीवन को विकास की सही संतुलित दिशा मिलनी चाहिए जिससे स्वस्थ मानव जीवन निर्मित हो सके। वैसे प्राचीन काल से ही बचपन के महत्व को समझा जाता रहा है। भारत में धर्म ग्रंथों में भी गर्भस्थ शिशु से लेकर किशोरावस्था तक बालक के समूचे विकास के लिए कहा गया है फिर भी आधुनिक जीवन में बाल मनोविज्ञान के जन्म और विकास से यह क्षेत्र विस्तृत हो गया है। इसलिए बाल मनोविज्ञान को आज के युग की अनिवार्य आवश्यकता कहा गया है।

‘“बाल मनोविज्ञान बाल व्यवहार तथा मनोवैज्ञानिक वृद्धि से संबद्ध विज्ञान के लिए उपयोग में लाया जाने वाला एक सामान्य शब्द है । "

बाल मनोविज्ञान का तात्पर्य बाल मन से है। बाल मनोविज्ञान बालक के मानसिक तथा शारीरिक दोनों के ही विकास का अध्ययन प्रस्तुत करता है।

बाल मनोविज्ञान के अंतर्गत बालकों की विभिन्न प्रवृत्तियों के विकास का अध्ययन, विश्लेषण होता है। मनोविश्लेषकों ने बालकों के प्रत्येक व्यवहार और क्रियाओं का गहराई से अध्ययन किया और बालकों के स्वस्थ मनोविकास के लिए बाल मनोविज्ञान को समझना आवश्यक आवश्यक माना है ।

बाल मनोविज्ञान सामान्य बालक के व्यवहारों, विचारों, भावनाओं एवं क्रियाओं का अध्ययन है ।" 

बाल मनोविज्ञान की परिभाषा

1. क्रो एवं क्रो - “बाल मनोविज्ञान वह विज्ञान है जो बालकों के विकास का अध्ययन गर्भकाल से किशोरावस्था तक करता है ।

2. जेम्स ड्रेवर ‘“बाल मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें जन्म परिपक्वावस्था तक विकसित हो रहे मानव का अध्ययन किया जाता है।

3. आइजनेक ‘“बाल मनोविज्ञान का संबंध बालक में मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के विकास से है। गर्भकालीन अवस्था, जन्म शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था और परिपक्वावस्था तक के बालक की मनोवैज्ञानिक विकास प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।”

बाल मनोविज्ञान का विकास एवं सिद्धांत

विकास की प्रक्रिया में बालक कुछ सोपानों या अवस्थाओं में से गुजरता है।

(1) शैशवावस्था (Infancy) - जन्म से 5 या 6 वर्ष तक ।

(2) बाल्यावस्था (Childhood) 5 या 6 वर्ष से 12 वर्ष तक ।

 कोल (Cole) ने विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है -

(1) शैशवावस्था (Infancy) जन्म से 2 वर्ष तक ।

(2) प्रारंभिक बाल्यावस्था (Early childhood) - 2 से 5 वर्ष

(3) मध्य बाल्यावस्था (Middle childhood) 10 वर्ष। बालक 6 से 12 वर्ष, बालिका 6 से

विकास की अवस्थाएँ : बाल्यावस्था 

बाल्यावस्था : जीवन का अनोखा काल है । बाल्यावस्था, वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है। शैशवावस्था के पश्चात् बाल्यावस्था का काल प्रारंभ होता है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है। इस अवस्था में बालक की विभिन्न आदतों, व्यवहार, रुचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है। 

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बाल्यावस्था की परिभाषाएँ निम्नानुसार है

(1) कोल व ब्रूस “वास्तव में माता-पिता के लिए बाल-विकास की इस अवस्था को समझना कठिन है।" 1

यद्यपि बाल्यावस्था को 6-12 वर्ष तक माना जाता है। इस अवस्था में बालक में अनोखे परिवर्तन होते हैं

बाल्यावस्था की विशेषताएँ - बाल्यावस्था की विशेषताएँ निम्नानुसार है 

  1. शारीरिक एवं मानसिक स्थिरता :- इस अवस्था में बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। यह इस काल की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है।
  2. मानसिक योग्यताओं में वृद्धिः - इस अवस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है ।
  3. जिज्ञासा की प्रबला :- बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है।
  4. वास्तविक जगत् से संबंध: - इस अवस्था में बालक शैशवावस्था के काल्पनिक जगत् का परित्याग करके वास्तविक जगत् में प्रवेश करता है।
  5. रचनात्मक कार्यों में आनंद:- बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनंद आता है।
  6. सामाजिक गुणों का विकास:- बालक में सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता जैसे अनेक सामाजिक गुण इस अवस्था में विकसित होते हैं।
  7. नैतिक गुणों का विकासः - इस अवस्था में आरंभ से ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है।
  8. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास :- शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है इसके विपरीत बाल्यावस्था में उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी हो जाता है।
  9. संवेगों का दमन एवं प्रदर्शन:- इस अवस्था में बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं में अंतर करना जानता है।
  10. संग्रह करने की प्रवृत्तिः - बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। 
  11. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता :- बालक में सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है।
  12. रुचियों में परिवर्तनः- बालक की रुचियों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। विकास की यह प्रक्रिया विभिन्न मानसिक और शारीरिक परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है । बालक जब जन्म लेता है तो उसके क्रियाकलाप चेतन पर आधारित होते हैं। परंतु विकास के साथ अवचेतन मन तथा अचेतन मन भी विकसित होता है । जिसका बाल साहित्य से गहरा संबंध है। बालक के जीवन में क्रियाकलापों का विशेष स्थान होता है, जिसमें अर्जित क्रियाओं से अधिक जन्मत क्रियाएँ जैसे सहज क्रियाएँ तथा मूल प्रवृत्तियों का अधिक महत्व है।

विकास के मुख्य पहलू (Main aspects of development):- मानव विकास की अध्ययन एवं शोध की सुविधा हेतु इसे विभिन्न भागों में बांटा जा सकता है परंतु यह स्वायत्त नहीं है बल्कि इसमें परस्पर गहरा संबंध है। विकास की प्रत्येक अवस्था में बालक में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इस दृष्टि में प्रत्येक अवस्था को निम्नलिखित मुख्य पहलुओं में विभाजित किया जा सकता है -

विकास (Development)
  1. शारीरिक विकास (Physical development)
  2. मानसिक विकास (Mental development)
  3. सामाजिक विकास (Social development)
  4. संवेगात्मक विकास (Emotional development)
  5. चारित्रिक विकास (Character development)
  6. क्रियात्मक विकास (Motar development)
  7. सृजनात्मक विकास (Creativity development) 
  8. भाषा का विकास (Language development)
  9. नैतिक विकास (Moral development)
  10. व्यक्तित्व विकास (Personality development)

बालक का शारीरिक विकास- बालक के शारीरिक परिवर्तनों को व्यक्त करने के लिए तीन विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया। विकास, अभिवृद्धि, परिपक्वता ।

कोलसेनिक के अनुसार ‘“ये शब्द उन शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक और नैतिक परिवर्तनों का उल्लेख करते हैं जिनका व्यक्ति अपने जीवन में आगे बढ़ते समय अनुभव करते हैं ।" "

बाल्यावस्था में मानसिक विकास:- इस अवस्था में मानसिक विकास की गति अति तीव्र होती है। बालक अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए अनेक प्रकार के प्रश्न पूछता है। छः वर्ष के बालक को दाये - बांये का ज्ञान हो जाता है। समस्या समाधान की क्षमता का भी विकास होने लगता है। उत्तरकाल में तार्किक चिन्तन के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं। इस अवस्था में वह विद्यालय जाना प्रारंभ करता है। उसकी जिज्ञासा का विकास भी इसी अवस्था में होता है तथा संग्रह प्रवृत्ति बढ़ जाती है। कहानी पढ़ने, नवीन बातों को जानने सूचनायें एकत्रित करने में रुचि लेने लगता है

उदाहरणार्थ शहरों में घर-घर, टी.वी., रेडियो, मोबाइल, कम्प्यूटर आदि होने के कारण एवं बहुत कम उम्र (4 वर्ष) से ही बच्चों को स्कूल भेजने के कारण उनका मानसिक विकास ग्रामीण बच्चों की तुलना में अधिक तेजी से होता है। सूचना प्राप्ति के नये-नये स्रोतों के कारण शहरी बच्चों का बौद्धिक विकास शीघ्रता से होता है। अतः उन्हें प्रिंट माध्यम एवं इलेक्ट्रानिक माध्यम दोनों माध्यम से ही सत् साहित्य प्रदान करना आवश्यक है ताकि उनका मानसिक विकास सुचारू रूप से हो।

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास - यह अवस्था 6 वर्ष से आरंभ हो जाती है। बालक इसी समय पाठशाला में प्रवेश करता है। उसके सामने नया वातावरण आता है। वह नये-नये लागों के बीच पहुँचता है। नये-नये अनुभव ग्रहण करता है। वहाँ पहले तो डरा-सा संकोची होता है। साथी बनने पर उसे घर में अच्छा नहीं लगता। वह सामूहिक खेलों में रुचि लेने लगता है । यह काल टोली की अवस्था (Gang- Age) कहलाती है।

अतः सामाजिक विकास हेतु आवश्यक है कि बालक को समूह में नाटक, काव्य पाठ, कहानी सुनाओं आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन समाज सक्रिय रूप से करें ताकि समाज में रहकर ही बालक का सामाजिक विकास हो और वह स्नेह, सहयोग, सहानुभूति पूर्ण व्यवहार कर सके।

बालक का संवेगात्मक विकास :- अंग्रेजी भाषा के 'इमोशन' का हिन्दी रूपांतर है। रॉस "संवेग चेतना की वह अवस्था है जिसमें रागात्मक तत्व की प्रधानता रहती है।” “संवेग एक मानसिक दशा है जिसमें व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक दशा तथा व्यवहार में परिवर्तन होता है । " 

निष्कर्षतः विभिन्न अवस्थाओं में बालक का संवेगात्मक विकास और व्यवहार, शिक्षक के लिए विशेष अध्ययन का विषय है ।

क्रो एवं क्रो - " संपूर्ण बाल्यावस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं । बाल्यावस्था में संवेगों की संख्या में वृद्धि होती है। शैशवावस्था में 11 संवेग होते हैं । बाल्यावस्था में संवेगों की संख्या बढ़ जाती है। नए संवेगों में सामाजिकता का उदय होता है । इस अवस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति एवं प्रकटीकरण में भी अंतर पाया जाता है। 

बालक का चारित्रिक विकासः - चरित्र को व्यक्तित्व, नैतिकता या स्वभाव या इन सबका पूर्ण योग माना जाता है।

वुडवर्थ "चरित्र का अभिप्राय उस आधार - व्यवहार से है जो सही या - गलत हो और जो स्वीकृत सामाजिक मानव के अनुरूप अथवा विपरीत हो । ” बालकों को साहित्य के माध्यम से महापुरूषों की गाथा सुनाकर उनका उदाहरण देकर कहानी, उपन्यास, नाटक के माध्यम से सीख दी जा सकती है। 

क्रो एवं क्रो ‘“बाल्यावस्था में बालकों में नैतिकता की सामान्य धारणाओं या नैतिक सिद्धांतों के कुछ ज्ञान का विकास हो जाता है । "

अतः स्पष्ट है कि बालक का नैतिक चारित्रिक विकास साहित्य से संभव है।

बाल्यावस्था में क्रियात्मक विकासः - क्रियात्मक विकास में विभिन्न क्रियात्मक योग्यताओं के विकास तथा कौशलों के विकास का अध्ययन किया जाता है । शैशवावस्था में माँस पेशियों और शरीर पर नियंत्रण हो जाता है। उसके हाथ-पैरों में क्रियात्मक कौशलों का विकास प्रारंभ होता है। जो बाल्यावस्था में पूर्ण हो जाता है। इस अवस्था में बालकों में कौशलों का विकास बालक की परिपक्वता और अभ्यास आदि कारकों पर मुख्यतः निर्भर करते हैं । छः से ग्यारह वर्ष की अवधि में स्वयं खाना–खाना, स्वयं कपड़े पहनना, नहाना जैसी विभिन्न क्रियाओं को करता है। इस अवस्था में सामाजिक सहायता से संबंधित जैसे फर्नीचर साफ करना, बिस्तर बिछाना, अपना सामान स्वयं स्वच्छ रखना आदि का विकास होता है। इस अवस्था में वह विद्यालय में लिखना, चित्रकारी, नाचना, गाना, लकड़ी, मिट्टी के खिलौने बनाना आदि सीखता है। इसके अतिरिक्त इस आयु में खेल के कौशल भी बालक सीखता है जैसे गेंद लपकना, फेंकना, सायकल चलाना, स्केटिंग करना, तैरना आदि ।

बाल्यावस्था में सृजनात्मक विकासः - “सृजनात्मकता, किसी नवीन और भिन्न वस्तु का निर्माण होता है ।" इस अवस्था में बालक की कई मित्र मण्डलियाँ होती हैं।

आईजेनक “नवीन संबंधों को देखने की योग्यता, सृजनात्मकता है परंपरागत विचार सारणी के हटकर असामान्य विचार सृजनात्मकता से ही उत्पन्न होते हैं।”1

यदि इस अवस्था से बालक का संतुलन बना रहता है तो सृजनात्मकता का विकास सामान्य रूप से चलता है।

बाल्यावस्था में भाषा का विकास- आयु के साथ-साथ बालकों के सीखने की गति में भी वृद्धि होती है। प्रत्येक क्रिया के साथ विस्तार की कमी होती है । बाल्यकाल में

बालक शब्द से लेकर वाक्य - विन्यास तक की सभी क्रियाएँ सीख लेता है। हाइडर के अध्ययन के परिणामस्वरूप निम्नलिखित बिन्दु परिलक्षित होते हैं- लड़कियों की भाषा का विकास लड़कों की अपेक्षा अधिक तेजी से होता है | 

लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के वाक्यों में शब्द संख्या अधिक होती है। अपनी बात को उचित ढंग से प्रस्तुत करने में लड़कियाँ अधिक तेज होती हैं ।

उदाहरण बालक वाक्य विन्यास एवं व्याकरण आदि के प्रयोगों में सामान्यतया बड़ों के समान ही क्षमता अर्जित करते हैं तथा आयुनुसार शब्द भंडार में वृद्धि करके वाक्यों का प्रयोग भावों के सम्प्रेषण एवं परस्पर क्रिया हेतु करने लगते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर विकसित होता है। उसी प्रकार भाषा का ज्ञान भी मूर्त से अमूर्त की ओर होता है ।

भाषा के विकास में समुदाय, घर, विद्यालय, परिवार की आर्थिक, सामाजिक परिस्थिति का प्रभाव अत्यधिक पड़ता है। वस्तुओं को देखकर उसका प्रत्यक्ष ज्ञान उसे हो जाता है और उसके पश्चात् उसे अभिव्यक्ति में भी आनंद प्राप्त होता है। बाल्यावस्था में नैतिक विकास:- नैतिक विकास से तात्पर्य चारित्रिक विकास से है। इस अवस्था के बालक प्रारंभिक पाठशालाओं के छात्र होते हैं। इस अवस्था में बालक न्याय और दशा में गहरी आस्था रखते हैं। वे मौलिक रूप से चोरी की आदत, झूठ बोलने की आदत, छोटे बच्चों और जानवरों की आदत, छोटे बच्चों और जानवरों को तंग करने की आदत आदि की बड़े कड़े शब्दों में बुराई करते हैं। बालक अब अपने-अपने समुदायों में रहते हैं, इसलिए उनके मूल्यों को ग्रहण कर लेते हैं। दूसरे समुदायों के प्रति उसका व्यवहार कड़ा हो जाता है।

इस अवस्था में वह विभिन्न वस्तुओं का संग्रह करने लगता है। लड़के सफाई पर कम ध्यान देते हैं परंतु लड़कियाँ इस ओर विशेष ध्यान देती है कि उनकी वेशभूषा साफ-सुथरी रहें। इस अवस्था में बालक धन का महत्व समझने लगता है वह पैसे बचाकर मनपसंद वस्तुएँ खरीदना चाहता है। इस अवस्था में वह झूठ बोलता है, बात बढ़ा चढ़ाकर कहता है । यदि उसे अधिक दण्ड दिया जाए तो उसका व्यवहार ऋणात्मक हो सकता है।

बाल्यावस्था में व्यक्तित्व विकास :- प्रारंभिक विद्यालय का छात्र आमतौर पर प्रसन्नचित्त रहता है । उसमें स्वतंत्रता तथा आत्मविश्वास की भावना पाई जाती है। इस अवस्था में भी बालक को स्नेह और सुरक्षा की आवश्यकता रहती है परन्तु वह यह नहीं चाहता कि उसके कार्यों में कोई हस्तक्षेप करें। घर के बाहर बालक का व्यवहार नम्रतापूर्वक तथा मित्रतापूर्ण होता है। उसे अपने अध्यापक अच्छे लगते हैं व अध्यापक को प्रसन्न रखने का प्रयास करता है । इस काल में बालकों का संपर्क नए बालकों के साथ होता है अतएव इसे मित्र बनाने का काल भी कहा जाता है।

बालक में स्नेह, सहानुभूति तथा प्यार की भावना भी उत्पन्न होने लगती है। समान रुचियों के कारण वे परस्पर खेलते हैं और मित्र बनते हैं। कभी-कभी असहमति तथा झगड़ा भी होता है। जिसके कारण कोई बालक आक्रामक व्यवहार द्वारा अपने व्यक्तित्व का प्रदर्शन करना चाहता है। बालक के व्यक्तित्व विकास का अध्ययन किया गया है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि बालक के व्यक्तित्व की ये विशेषताएँ आगे जाकर स्थिर रहती है।

बाल मनोविज्ञान का सिद्धांत

सिद्धांतों की संरचना वैज्ञानिकों के द्वारा कई कारणों से की जाती है। सामान्यतया व्यावहारिक जीवन में होने वाली क्रिया-कलापों के संचालन का कोई एकीकृत निष्कर्ष ही सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित होता है। प्रमुख सिद्धांत निम्नानुसार है -

1. मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत:- फ्रायड ने सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक सिद्धांत प्रतिपादित किया। इसमें इन्होंने बाल्यावस्था के अनुभवों के आधार पर विकास के विभिन्न आयामों का वर्णन किया। उनके निष्कर्षों का आधार बाल्यावस्था के प्रथम चार या पाँच वर्षों से संबंधित है।

फ्रायड के अनुसार ‘“बाल्यावस्था के ये नाटकीय अनुभव वाले क्षण अत्यंत - महत्वपूर्ण है, जो कि एक वयस्क व्यक्ति का आधार है ।" "

फ्रायड की संकल्पना के अनुसार एक मानव शिशु असीमित संभावनाओं के साथ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी क्षमताओं का धीरे-धीरे उपयोग करना शुरू करता है ।

2. मनोविश्लेषणवादी; व्यवहारवादी सिद्धांत:- इस सिद्धांत के प्रतिपादक अमेरिका के व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक है; इसमें डोलर एवं नीर प्रमुख है। इस सिद्धांत के समर्थक फ्रायड के गत्यात्मकता संबंधी विचारों से अधिक सहमत है । हाइटींग, चाइल्ड तथा सीयर्स एवं उसके साथियों द्वारा व्यवहारवादी अधिगम विश्लेषण में यह कहा गया है कि बाल्यावस्था के विभिन्न व्यवहारों में - मनोवैज्ञानिक आधार अन्तर्निहित होते हैं, परंतु निःसंदेह विश्लेषण के द्वारा निष्कर्ष रूप में प्रतिपादित कर पाना आसान नहीं है।

3. महत्वपूर्ण आयु समूहों का सिद्धांत- मानवीय विकास की व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों के द्वारा जो मान्यताएँ प्रतिपादित की गई है, इनके कुछ निश्चित काल विभाजित किए गए हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में अवस्थाओं की अपेक्षा काल को अधिक महत्व दिया गया है, क्योंकि किसी विशिष्ट अवस्थाओं से बालक का गुजरना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ।

4. संज्ञानात्मक क्षेत्र सिद्धांत - गेस्टाल्डवादी मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि मनोवैज्ञानिक संवृद्धि लगातार चलने वाली प्रक्रिया है,जो अपनी आरंभिक अवस्था में स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में शुरू होकर अंतिम परिणामों तक संचालित होती है । वे यह सिद्धांत मानते हैं कि किसी भी समस्या को सर्वप्रथम बालक एक संगठित आकार में देखता है। तत्पश्चात् शनैः-शनैः वह उसे टुकड़ों में विभाजित कर समस्याओं को हल करने का प्रयास करता है।

5. विकास का निश्चित प्रतिरूपः- प्रत्येक जाति या नस्ल चाहे उसका संबंध पशु जगत् से हो अथवा मानव जगत् से एक निश्चित प्रतिरूप (पैटर्न) के अनुसार ही विकसित होती है। जन्म से पूर्व तथा जन्म के उपरांत बालक का विकास व्यक्तित्व रूप में तथा एक निश्चित प्रतिरूप के अनुरूप होता है। सर्वप्रथम बालक के आगे के दाँत निकलते है, उसके बाद पिछले । इसी प्रकार पहले बालक खड़ा होना सीखता है, फिर चलना ।

इस संबंध में गेसल ने बालकों पर जो शोध कार्य किया है। इससे स्पष्ट होता है कि बालकों का जो व्यवहार संबंधी विकास होता है, वह एक निश्चित प्रतिरूप के अनुरूप ही होता है, उनके अनुसार कोई भी दो बालक एक जैसे नहीं होते, परंतु सभी सामान्य बालकों का विकास उनकी जातिगत और सांस्कृतिक विशेषताओं के अनुसार ही होता है ।

6. विकास सामान्य से विशेष की ओर:- विकास की सभी प्रक्रियाओं में चाहे वे शारीरिक हो या मानसिक, बालक की प्रतिक्रिया में पहले सामान्य होती है बाद में विशेष। जन्म से पूर्व तथा जन्म के उपरांत बालक की सभी क्रियाओं में सामान्य से विशेष का नियम लागू होता है ।

एक नवजात शिशु सर्वप्रथम पहले सारे शरीर को चलायमान करता है, फिर भुजाओं एवं पैरों को घुमाता है फिर हाथों से वस्तु उठाने का प्रयास करता है और चलने का प्रयास करता है। जब वह बोलना सीखता है तो वह निरर्थक ध्वनियाँ निकालेगा फिर यह ध्वनियाँ शब्दों का रूप धारण कर लेगी, फिर बालक धीरे-धीरे उसे समझने लगेगा |

7. विकास की गति अबाध्य है :- उपरोक्त आधार पर ज्ञात होता है कि व्यक्ति का विकास रुक-रुककर होता है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। गर्भाधान से परिपक्वावस्था तक मनुष्य का विकास अविराम गति से चलता रहता है।

बालक बोलना भी एकदम नहीं सीखता पहले वह रोने की ध्वनि निकालता है, फिर वार्तालाप करता है अंत में शब्द बोलना सीखता है।

विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।

8. विकास में व्यक्तिगत भेद स्थिर रहते हैं:- जिन बालकों का विकास प्रारंभ से ही तीव्र है, तो आगे भी तीव्र ही होगा तथा जिन बालकों का विकास शुरू से ही धीमी गति से चल रहा है, उनका आगे भी धीमी गति से ही विकास होगा।

उदाहरण मस्तिष्क की परिपक्वता 6 से 8 वर्ष की आयु में ही आ जाती है यद्यपि उसका विन्यास या संगठन बाद में भी होता रहता है । हाथों का, नाक का पूर्ण विकास किशोरावस्था में हो जाता है। पैरों तथा कल्पना शक्ति का विकास शैशवावस्था से ही होने लगता है। तर्क शक्ति का विकास बहुत धीरे-धीरे होता है सामान्य बुद्धि का अधिकतम विकास 14 वर्ष की अवस्था के लगभग होता है।

9. विकास प्रकथनीय है- बालक का मानसिक विकास प्रकथनीय होने से उसकी शिक्षा का आयोजन ठीक दिशा में किया जा सकता है और उसे वह कार्य दिया जा सकता है, जिसके लिए वह विशेष रूप से उपयुक्त है।

गैसल ने प्रयोग के आधार पर निर्धारित किया है कि दोबारा परीक्षण करने पर 80 प्रतिशत बालकों के विकास की गति पहले परीक्षण के अनुसार ही थी। बालकों का विकास क्रम मनुष्य मात्र के विकास क्रम से सामंजस्य रखता है:- जिस प्रकार मनुष्य अपनी प्राकृतिक और बर्बर अवस्था के ऊपर उठकर सभ्य बनता है, उसी प्रकार बालक भी अपने जीवन में प्राकृतिक अवस्था को पार करके सभ्य समाज में रहने योग्य बनता है । जिस प्रकार हमारा समाज आदिम अवस्था को धीरे-धीरे छोड़कर सभ्य बना है, उसी प्रकार कोई भी बालक अपने प्राकृतिक पशु-स्वभाव को धीरे-धीरे त्यागकर आगे सामाजिक बन सकता है। वह अपना स्वभाव यकायक नहीं बदल सकता है। प्रायः देखा जाता है कि वयस्क, बालकों को समय से पूर्व ही सदाचारी बनने का प्रयत्न करते हैं।

उदाहरणार्थ एडवर्ड सप्तम की जीवन यात्रा पर नज़र डाले तो ज्ञात होता है कि उनकी बाल्यावस्था में अध्ययन में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी। उन्हें ना-लिखना अच्छा नहीं लगता था । परीक्षण के दौरान ज्ञात हुआ कि उनके पढना- माता–पिता उन्हें बाल्यकाल में ही विद्वान बना देना चाहते थे। अपनी इस इच्छापूर्ति के लिए उनके माता-पिता ने बहुत से अध्यापक नियुक्त कर दिए। अपने माता-पिता की आज्ञा को मानकर वे सारा समय अध्ययन में ही बिताते थे परंतु उनका मन अपने मित्रों के साथ खेलने के लिए ललायित रहता था। परिणामस्वरूप बालक एडवर्ड सप्तम विद्वानों की संगति से दूर रहता था। इसका यही कारण था कि उनके माता–पिता उन्हें समय से पूर्व ही विद्वान बनाना चाहते थे।

मनोविश्लेषकों के बाल मानस से लेकर बालकों के प्रत्येक व्यवहार और क्रियाओं का गहराई से अध्ययन किया और बालकों के स्वस्थ मनोविकास के लिए बाल मनोविज्ञान को आवश्यक बताया। अतः कहा जा सकता है कि -

1. बालक विकासशील प्राणी है जो छोटे रूप से बड़ी सूक्ष्मता के साथ बढ़कर प्रौढ़ावस्था को प्राप्त करता है।

2. बालक एक पृथक् इकाई है। इसलिए उसकी स्मरण शक्ति अध्ययन, रुचि, भावनाएँ आदि का अध्ययन आवश्यक है।

3. बालक एक ऐसे वातावरण में रहता है उसके व्यवहार तथा विकास को निरंतर प्रभावित करता रहता है । उसमें उत्तेजना के भाव उसी वातावरण से आते हैं। दूसरे रूप में वह अपने विकास के तत्व उसी वातावरण से ग्रहण करता है। इस अवस्था में ही उसके जीवन से विकास की सही और संतुलित दिशा मिलनी चाहिए जिससे स्वस्थ मानव निर्मित हो सके ।

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