बाल साहित्य का अर्थ, परिभाषा एवं अवधारणा

जो साहित्य बालकों की समझ से परे न होकर उसके मन की गहराई तक पहुँचे । भाषा बच्चों की सरलता से सामंजस्य रखे साथ ही जिसे पढ़कर उसका बहुमुखी विकास संभव हो, वह साहित्य 'बाल साहित्य' है। 

बाल साहित्य का अर्थ

'साहित्य' शब्द में 'बाल' शब्द उपसर्ग के रूप जाता है तब वह बाल साहित्य माना जाता है। जुड़ बाल साहित्य दो शब्दों से मिलकर बना है बाल + साहित्य अर्थात् जो बाल साहित्य बालकों के लिए लिखा जाता है अर्थात् उसे बच्चे लिखें या प्रौढ़ लिखें। यह बच्चों के मनोरंजन, ज्ञानवर्द्धन, जिज्ञासावृत्ति, मानसिक विकास, व्यक्तित्व विकास एवं प्रेरणाप्रद सामाजिक बोध के लिए लिखा जाता है। “बालकों की रुचियों, कल्पनाओं, बौद्धिक क्षमताओं उनकी सूझ-बूझ, उनका परिवेश, उनकी मानसिकता आदि को केन्द्र में रखकर लिखा गया साहित्य 'बाल साहित्य' माना जाता है । " 

पंचतंत्र में विष्णु शर्मा ने कहा है "जिस प्रकार किसी नये पात्र का कोई संस्कार नहीं रहता ठीक उसी प्रकार बालकों की स्थिति होती है। इसलिए उन्हें कथाओं के माध्यम से ही संस्कार बताना चाहिए। नीति कथाओं से परिपूर्ण बालकों की जिज्ञासा को शांत करने वाला साहित्य ही बाल साहित्य है ।" " 

बाल साहित्य का उद्देश्य विश्व कल्याण, विश्व बंधुत्व और मानव को मानव बनाना साथ ही हृदय को स्नेह से जोड़ना एवं एक आदर्श समाज की स्थापना करना है। तथा मैत्री, प्रेम, दया, परोपकार और देश प्रेम के भावों का साम्राज्य स्थापित करना है। जिससे बालक अपना शैक्षिक परिवेश, अपना संसार, अपनी आकांक्षाएँ, अपनी अस्मिता साहित्य के अंतर्गत पा सकें तथा मानसिक सुकून के साथ मनोरंजन प्राप्त कर सकें ।

बाल साहित्य की परिभाषा

डॉ. हरिकृष्ण देवसरे - “जो साहित्य बच्चों की रुचि के अनुकूल, सरल भाषा में लिखा गया हो और जो बच्चों की ज्ञान सीमा को विस्तारित करते हुए उनकी ज्ञान पिपासा को शांत करता हो, वह साहित्य बाल साहित्य कहलाता है । " 

डॉ. कृष्णचंद्र ( राष्ट्रबंधु) ‘“उपदेशात्मकता से बोझिल न होकर बड़ों - के लिए निष्प्रयोजन, किन्तु बच्चों के लिए रुचिकर हो वह साहित्य बाल साहित्य होता है।’ 

जयप्रकाश भारती - "बालक की समस्याओं पर लिखना या किसी कला में बालक-बालिका को पात्र बना लेने से बाल साहित्य नहीं लिखा जाता। बालक की मानसिकता को ध्यान में रखकर उसके पढ़ने के लिए उसके मनोरंजन एवं विकास के लिए जो लिखा जाता है, वहीं बाल साहित्य होता है ।”

डॉ. श्रीप्रसाद - “वह समस्त साहित्य जिसमें बाल साहित्य के तत्व हैं अथवा जिसे बालकों ने पसंद किया है भले ही उसकी रचना मूलतः बालकों के लिए न हुई हो तो भी वह बाल साहित्य है । " 

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी “जो 4 वर्ष से 14 वर्ष तक के बालक- बालिकाओं के लिए कविता, नाटक, निबंध, जीवनी, वार्तालाप आदि विधाओं में लिखा गया हो, जो बाल पाठकों को मनोरंजन एवं आनंद प्रदान करते हुए उनका सर्वांगीण विकास करे और साथ ही बौद्धिक विकास में भी सहायक हो ।”

हेनरी स्टील “बच्चों ने जिसे अपना लिया वही बाल साहित्य है। रूसी साहित्य में पौराणिक कथाओं का कोई महत्व नहीं है । " 

स्मिथ “सारा साहित्य बाल साहित्य नहीं है सरल सीधे-साधे शब्दों में हम जो भी उन्हें दे दे वही बाल साहित्य हो जाएगा 

संक्षेप में कहा जा सकता है कि बाल साहित्य वह दर्पण है जो बच्चों के भविष्य को रूपायित करता है । वह काल्पनिक न होकर उद्देश्य परक है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जो मार्ग अपनाया जाता है वह निश्चय ही बाल सुलभ प्रवृत्ति के अनुकूल होता है।

बाल साहित्य की समस्त परिभाषाओं का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि ये परिभाषाएँ प्रायः उन्हीं साहित्यकारों की हैं जिन्होंने बाल मन को समझा है और बच्चों के लिए बाल साहित्य की आवश्यकता का अनुभव किया है। बच्चों के स्वस्थ विकास हेतु बाल साहित्य की उपयोगिता के महत्व को जाना है।

बाल साहित्य की अवधारणा

(1) बाल साहित्य की प्राचीन अवधारणाः- प्राचीन काल में जैसे इतिहास की कोई अवधारणा नहीं थी वैसे ही बाल साहित्य की भी नहीं थी । वस्तुतः भारतीय मनीषियों की इतिहास के प्रति एक अपनी दृष्टि रही है, मौलिक जीवन दर्शन रहा है, जिसे उन्होंने भिन्न स्वरूप में देखा है। कला और साहित्य का मूल्यांकन मानव-कल्याण में निहित उपादेयता को देखकर किया गया। ऐसी स्थिति में दृष्टान्तपरक इतिहास पुराण की रचना हुई, वैसे ही बाल साहित्य की भी रचना हुई । पूर्व में बड़ों व बच्चों हेतु साहित्य पृथक नहीं होता था। दोनों की रचना मिली-जुली थी ।

मध्यकाल में बालक की अलग पहचान बनी। उसके बाल मनोभावों और उसकी क्रीड़ाओं को महत्ता मिली। यह महत्ता कृष्ण भक्ति - काव्य में विशेष रूप से सूर काव्य में दीखती है ।

सूर के वात्सल्य के अंतर्गत दो तरह के पद प्राप्त होते हैं:- (1) माता-पिता का पुत्र विषयक प्रेम (2) बाल-कृष्ण की बाल लीलाएँ ।

बदलते परिवेश में आज का बालक भले ही चाँद - खिलौना नहीं माँगता हो, गैय्या चराने की गुहार न लगाता हो, पर भाई की शिकायत तो आज भी होती है,

आँख-मिचौनी का खेल वह आज भी खेलता है । मनोवैज्ञानिक भी मानते है कि बालक का अपना एक अलग संसार होता है

जिसका निर्माण वह स्वयं करता है और उसमें रमण करता है। इस विषय में महादेवी वर्मा लिखती हैं:- “आज का बालक अणु युग का बालक है। निश्चित रूप से वह हमसे अधिक जीवन की कठिनाईयाँ प्रारंभ से ही देख चुका है। हमारे युग में चंदा मामा उतरा करते थे थाली में; पानी में। परन्तु अब वह जानता है कि वहाँ तक पहुँचा जा सकता है। वातावरण में जो ज्ञान है, वातावरण में जो विज्ञान फल गया है बालक उससे अपरिचित नहीं है । "

निष्कर्षतः भक्तिकाल में सूर का काव्य वात्सल्य की प्रतिष्ठा करता है। सूरसागर के पदों का चयन कर, संकलित कर संपादित करे तो बाल साहित्य की प्राचीन अवधारणाओं को स्पष्ट और व्याख्यित किया जा सकता है। 

(2) बाल साहित्य की आधुनिक अवधारणाः- आधुनिक काल में भारतीय जनजीवन का स्वरूप ही बदल गया । विचारों और चिन्तन के जगत में परिवर्तन आया ।

इसी संदर्भ में बालकों को भी आधुनिक ढंग की शिक्षा देने का कार्य प्रारंभ हुआ। बाल पाठ्य पुस्तकों के निर्माण ने बाल प्रकृति को समझकर कहानियाँ, कविताएँ, नाटक और उपन्यास रचने की आवश्यकता समझी गई। बच्चों के महत्व को स्वीकार करते हुए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है कि “बच्चों पर ही हमारा भविष्य निर्भर है और वही हमारी आशा है। इसलिए उनकी शिक्षा राष्ट्र के अत्यंत महत्वपूर्ण कर्त्तव्यों में है। आज संसार में बच्चों की मनोवृत्ति और विचारशैली को शिक्षा द्वारा बदलने का प्रयत्न किया जा रहा है ।"

बाल शिक्षा की वृद्धि के साथ-साथ बाल साहित्य भी प्रगति की ओर अग्रसर हुआ ।

भारतेन्दु युग में मौलिक कहानियों की अपेक्षा अनूदित कहानियों की प्रधानता रही । तथा अनुवाद के केन्द्र में नैतिक और धार्मिक भावना थी जिसका मूल उद्देश्य बालकों को अपनी संस्कृति से परिचित कराना था। उदाहरणार्थ पंचतंत्र, - हितोपदेश, भास कृत बाल चरित्र, कथासरित्सागर जातक कथाएँ, सिंहासन बत्तीसी, शुक-संतति आदि। बाल कहानी के बीज संस्कृत वाङ्मय में दिखाई देते हैं। इनमें कहानियाँ अंकुर के रूप में है। महाभारत, रामायण में अनेक प्रसंग है जो बच्चों के लिए उपयोगी है।

(3) साहित्यकारों की दृष्टि में बाल साहित्य की अवधारणा :- बच्चों का संसार सर्वथा अलग होता है। वह नैतिकता, नियम और शासन के बंधनों से मुक्त होते हैं। बच्चों के मन के अनुकूल बातें जिस रचना में हो, वही बाल साहित्य है।

द्विवेदी युग में भी पौराणिक, धार्मिक और राष्ट्रीय चेतना से युक्त कहानियाँ लिखी गयीं ।

मुंशी प्रेमचंद, सुभद्राकुमारी चौहान, राजेन्द्रसिंह गौड़ ने बाल मनोविज्ञान पर आधारित बाल कहानियाँ लिखी । कहानी के विषय पर्यावरण, प्रकृति, प्राचीन संस्कृति, विज्ञान आदि के साथ अनेक मनोरंजन प्रधान एवं साहसिक कहानियाँ लिखी। इस युग में ‘सरस्वती' पत्रिका के 'वीरांक' में अनेक महापुरूषों के जीवन पर आधारित वीर रस की कहानियाँ प्रकाशित की गई। इस युग में कहानी उपदेशात्मकता को छोड़कर मनोवैज्ञानिकता की ओर अग्रसर होने लगी।

आधुनिक काल में बाल साहित्य की नयी अवधारणा बनी। कविता, कहानी की दोनों विधाएँ बहुत अधिक विकसित हुई ।

निष्कर्षतः जिन साहित्यकारों ने बाल मन को समझा है और बाल साहित्य की आवश्यकता का अनुभव किया है। उन्होंने ही बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए इस साहित्य की उपयोगिता के महत्व को जाना है और बच्चे के मन के कौतूहल, कल्पना की क्षमता, सूझ और तलाश की प्रवृत्तियों को अपनाया है, उन्होंने ही बाल रुचि का साहित्य रचा।

बाल साहित्य समीक्षक डॉ. सुरेन्द्र विक्रम ने बाल साहित्य को तीन बिन्दुओं में विभक्त किया हैः-

(1) स्वस्थ मनोरंजनः– ऐसे बाल साहित्य का सृजन किया जाए, जिसमें बालकों का मनोरंजन करने के लिए भरपूर तत्व हों ।

(2) युगानुकूल ज्ञानवर्धन :- ऐसा बाल साहित्य बच्चों को दिया जाए, जिसमें बालकों का मनोरंजन करने के लिए भरपूर तत्व हो साथ ही; उस समय उपलब्ध उनकी उम्र के अनुकूल ज्ञान भी उन्हें अनायास मिले। और पता ही न चले कि उन्हें पढ़ाया जा रहा है।

(3) जीवनोपयोगी प्रेरणाः - ऐसा बाल साहित्य हो जो बच्चों को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से व्यवहारिक जीवन से अनुकूलन करने की क्षमता पैदा करे। 

विष्णुकांत लिखते हैं " बाल साहित्य ऐसा हो जो बच्चों की जिज्ञासाएँ शांत करे, रुचियों में परिष्कार लाये, और बच्चों को संस्कारित करे। बाल साहित्य में विविधता अनिवार्य है क्योंकि बाल रुचियाँ भी विभिन्नताओं से परिपूर्ण होती हैं। नीतिपरक, ज्ञान लादनेवाला, आदर्श बघारनेवाला, उपदेशों से परिपूर्ण साहित्य बाल रुचियों के प्रतिकूल पड़ता है। बच्चों के स्वस्थ मनोरंजन के साथ उनके भावी जीवन के लिए उन्हें स्वयं तैयार कर देने की परोक्ष उत्प्रेरणाएँ देने वाला साहित्य ही सच्चा बाल साहित्य है । "

उपरोक्त कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि बाल साहित्य सत्प्रेरणा देने वाला हो, साथ ही मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें बेहतर मनुष्य बनाने की दिशा में ले जाए।

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