दलित साहित्य का अर्थ, परिभाषा, उद्भव व विकास

हिन्दी में दलित साहित्य की अवधारणा, अवधारणा के रूप में भले ही बाद में आई हो किंतु इसके बीज मध्यकाल में तब से दिखाई देते है, जब इस्लाम का आगमन हुआ और उन्होने समता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे के दृष्टिकोण को अपनाया। उनके इस दृष्टिकोण से दलित वर्ग आकर्षित होकर उनके धर्म को भी स्वीकार करने लगा और जो लोग हिन्दू धर्म में रह गये थे वे भी हिन्दू व्यवस्था को घृणा की दृष्टि से देखने लगे। उस समय बहुत सारे सूफी संत, कवि, - गायक तथा उपदेश देने वाले सामने आये, दलित साहित्य ने उस समय जन्म लिया था ।

साहित्य की अवधारणा पर पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए डॉ. पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी ने कहा है कि ""साहित्य' को परिभाषित करना कठिन - है क्योंकि वह किसी एक उपादान में नही, विभिन्न उपादानों से निर्मित एक संरचना में निदित होता है । जो कि, साहित्यकार के सृजनात्मक अनुभव की अभिव्यक्ति होता है। फिर भी 'साहित्य' को एक ही तरह से परिभाषित किया जा सकता है, यानि यह कहकर कि 'संसय को दूर करने वाली माधुयत्मिक संवेदना और सोच को अनुशाषित अभिव्यक्ति ही साहित्य है । यदि इसे ठीक से समझ लिया जाय तो फिर विचारधारा,  अंतर्विरोध, असंगति आदि का कोई खास महत्व नहीं रह जाएगा। यद्यपि साहित्य, समाज, व्यक्ति, परिवेश, अपने समय, विचार, अनुभूति, भाषा आदि से ही संरचित होता है, तथापि वह अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व रखता है ।  क्योंकि साहित्य मनुष्य का स्वभाव है और इसी कारण उसमें रूपांतरण की क्रियाशील जिज्ञासा भी बनी रहती है । मानवीय स्वभाव की विभिन्नता के कारण एवं सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी वृत्तियों के फलस्वरूप रूपांतरण की स्थिति और प्रक्रिया के स्तर विशेष पर कल्पना और संरचनात्मक संगति में अंतर होना स्वाभाविक है और इसी कारण प्रत्येक साहित्यकार या रचनाकार की स्वायत्ता का प्रस्फुटन और पल्लवन होता है, उसके अस्तित्व और अस्मिता का अर्थवान जीवन-दर्शन होता है ।"

दलित साहित्य की अवधारणा को पूर्णरूपेण समझने के लिए उसके कार्य एवं परिभाषा पर दृष्टिपात करना अवश्यक है। दलित साहित्य को भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित एवं परिभाषित किया है। अतएव यहाँ पर कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दिये गये दलित साहित्य के अर्थ एवं परिभाषाओं को प्रस्तुत किया गया है।

दलित साहित्य का अर्थ एवं परिभाषा

दलित साहित्य का अर्थ विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार है :-

दलित शब्द का अर्थ भगवद गोमण्डल शब्दकोश में इस प्रकार दिया गया "दलित - चूर्णित, कुचला हुआ, टूटा हुआ, तोड़ा हुआ, फाड़ा हुआ, कचरा है हुआ, नष्ट किया गया, पीड़ित, पीसा हुआ, दबाया हुआ, कुचला गया, गरीब, विकसित, खिला हुआ, हल्का, अधम ।”

दलित शब्द का अर्थ मानक हिन्दी कोश में इस प्रकार दिया गया है "दलित (भूत कृदंत) (संदल + क्त)

(अ) जिसका अर्थ दलन हुआ है।
(ब) जो कुचला, दला, मसला या रौंदा गया हों।
(स) टुकड़े-टुकड़े किया हुआ । चूर्णित ।

जो दबाया गया हों । जिसे पनपने या बढ़ने न दिया गया हों । हीन अवस्था में पड़ा हुआ । ध्वस्त या नष्ट किया हुआ ।"

दलित साहित्य का अर्थ बताते हुए डॉ. रामकृष्ण राजपूत ने लिखा है कि ... “दलित अर्थात् दला गया, कुचला गया, दबाया गया, दबोचा गया, अभावग्रस्त, पदमर्दित, अपवाचित, दलन और दमन इस सबका प्रतिशोध जब वाणी और लेखनी से प्रस्फुटित हुआ तो उसी का नाम पड़ा दलित साहित्य ।"

गुजराती के दलित साहित्यकार नरोत्तम पलाण ने लिखा है कि “दलित संज्ञा का सवाल' नामक लेख में लिखते है कि " क्या साहित्य के एक वर्ग को 'दलित' जैसा नाम दिया जा सकता है। मराठी, हिन्दी, बंगाली, कन्नड़ जैसी भारतीय भाषाओं में जब इस नाम से पहचाने जाने वाले साहित्य दिखाई देने लगे तब ऐसा लगा कि, दलित साहित्य किसी साहित्य की नही बल्कि सामाजिक आन्दोलन की एक संज्ञा है ।" इसी तरह गुजराती के सुप्रसिद्ध समीक्षक यशवंत वाघेला " दलित साहित्य और गुजराती दलित साहित्य” नामक लेख में लिखते है । कि “स्वतंत्र भारत में राजनैतिक समानता के उदय के पश्चात कानूनी गैर पर उच्च वर्ग पर आधारित सामंतशाही तथा का अंत हुआ, किन्तु भौतिक तथा मानसिक परिवर्तन की गति फिर भी समान न हुई, उसका कारण यह था कि, रूढ़िगत मानसिकता अभी पूर्णरूपेण नष्ट नही हो पायी थी । मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सांमती मानसिकता के समक्ष आक्रोश, उससे उत्पन्न होने वाला विद्रोह और संघर्ष ही दलित साहित्य है ।"

दलित साहित्य का उद्भव व विकास

दलित साहित्य के उद्भव की जब हम बात करते है तो हमारा ध्यान दलित साहित्य के उद्भव की बजाय सर्वप्रथम दलित जाति के उद्भव की ओर जाता है। तब हमारे मानस पटल पर मानव सभ्यता की आदि से अंत तक की झलक दिखाई दे जाती है और हम देखते हैं कि हमारे पूर्वज आदिमानव थे जो जंगलों में निर्वस्त्र घूमा करते थे और एक-दूसरे को मारकर अपनी क्षुधापूर्ति करते थे। धीरे-धीरे उनमें परिवर्तन होता गया । वे समुदायों में रहने लगे। पशुपालन एवं खेती करने लगे उस समय उन्हीं लोगों का वर्चस्व था । यदि हम कहे कि दलितों का उद्भव उसी आदिमानव के समय से हुआ है तो अतिश्योक्ति नही होगी। 

डॉ. शैलेन्द्र कुमार ने "गाथा, मुशाहरों की' नामक लेख में 'भारत में दलितों का उद्भव' पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि "भारत में सिंधु सभ्यता काल में जो कि कृषि और पशुपालन पर आधारित सभ्यता थी, दलितों का आविर्भाव माना जा सकता है। वैसे तो भारत की स्वाभाविक किलेबंदी थी, मगर पश्चिमोत्तर हिस्से में खैबर, बोलन, गोमल आदि दर्रो के रास्ते से अनेक खानाबदोश कबीले लगातार इस भूमि पर आते गये और उनके आने से संगठित कृषि व्यवस्था बिखर गई । छूट-पुट संघर्षो में किसानों को अपनी खेती बाड़ी छोड़कर जंगल में भागने को बाध्य होना पड़ा। जो लोग बचे उन्हें हमलावरों की गुलामी करनी पड़ी। यानी दास बनने से बचने के लिए जंगलों में भागना लाजिमी था । स्वीकार्य गुलाम शुद्र बने। पकड़े गए युद्ध बंदी आदि गुलाम बने, जंगलों में भागे लोग आदिवासी, जनजाति, दस्यु, असूर आदि कहलाए ।

बाहर के खानाबदोशों और भारत में रहने वालों का काफी मिश्रण हुआ । बाहर वालों के यहाँ के समाज में विलय हुआ । यह प्रक्रिया लम्बी अवधि तक चली। इस दौरान कृषि का विकास होता रहा । कृषि के विकास के साथ गुलाम बनाने की प्रक्रिया में भी तेजी आई। अथर्ववेद के आरंभिक अंशों में दासियों का जो वर्णन है उससे पता लगता है कि अथर्ववेद के काल तक गुलामों के रूप में बड़े समूह का उपयोग होने लगा था। आरंभिक ऋग्वेदिक काल के गुलामों के रूप में दासों का कोई अस्तित्व नही है । भारत में दास का गुलाम के रूप में शाब्दिक अर्थ बाद में हुआ। शुरू में दास शब्द का प्रयोग जाति के अर्थ में हुआ । उत्तर वैदिक काल में गोत्र का अधिकार कम होता गया, कुल का अधिकार बढ़ता गया, गौत्र संपत्ति का स्थान कुल संपत्ति ने लिया । धीरे-धीरे वर्ग विभाजन होता गया । 14

दलित जाति के संदर्भ में यह उल्लेख मिलता है कि भारत में आर्यों के आगमन के पूर्व मात्र एक ही जाति के लोग थे और वह है दलित जाति । दूसरी जाति अर्थात् ब्राहम्णों का आगमन बाहर से हुआ अर्थात् आर्यों के आगमन से। इस संदर्भ में भिक्षु विमल सागर ने अपने एक लेख में लिखा है कि "ऋग्वेद और - बौद्ध ग्रंथों में सिन्धु घाटी, मोहनजोदड़ों की गुफाओं और बौद्ध ग्रंथों में सिन्धु घाटी, मोहनजोदड़ों की गुफाओं से यह हो चुका है कि भारत में आर्य आगमन से पूर्व चमार जाटव, स्तंभ राज्य या जो इस युग में भारत से काबूल, कंधार, बर्मा, हिन्द चीन, जापान, तिब्बत, जावा, सुमात्रादीप समूह तथा लंका तक फैला हुआ था। आर्य अनार्य संघर्ष, देवासुर संग्राम के नाम से विख्यात है। प्राचीन काल से - भारत में दो संस्कृति चली आ रही है। एक है श्रमण संस्कृति और दूसरी है ब्राह्मण संस्कृति / ब्राहम्ण संस्कृति आर्यों के साथ बाहर आई है। इन दोनों संस्कृतियों में जमीन आसमान का अंतर है। श्रमण संस्कृति दुख पूर्ण समझकर विमुक्त होने के लिए प्रयत्नशील है । ब्राह्मण संस्कृति भोग सुख चाहती है। श्रमण संस्कृति जनम-मरण दुख बंधन करती हुई निर्वाण की कामना करती है । ब्राह्मण संस्कृति हजारों-हजारों साल तक सुख भोग चाहती है। मरने पर अमरलोक में वास हो, सुखभोग प्रदान हो ।

महापंडित कौशाम्बी के लेखानुसार आर्यों ने भ्रमण संस्कृति को नष्ट किया आर्यों द्वारा यज्ञ के प्रचार से प्रजा को लूटना, अन्न, यश जमीन छीनना । वह उपक्रम चला पुरोहित सुरापान करने, स्त्रियों के साथ आमोद-प्रमोद करते रहे। चतुर वर्णीय विधान रचा, इत्यादि । आर्यों के इस घटाटोप से भारत का सनातन बौद्ध धर्म छिन्न-भिन्न हो गया और असहाय प्रजा त्राही-त्राही करने लगी। उसी काल में भारत के विश्वविद्यालय नष्ट किये गए जिसमें चीन, जापान, बर्मा, जर्मन, श्याम आदि देशों के विद्यार्थी बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने आते थे।”

दलितों के प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर ने कहा है कि "हमारे पूर्वज इस देश के मूल निवासी थे । उनका ही देश में - एक छत्र राज्य था । मध्य एशिया से आर्य आये और उन्होंने यहाँ की सभ्यता और संस्कृति पर अपना वर्चस्व कर लिया। कालांतर में मनुस्मृति जैसे ग्रंथों के माध्मय से वर्ण व्यवस्था का षड़यंत्र रचकर मानव को मानवेतर बना डाला। इस व्यवस्था में ब्राह्मण को शिक्षा, क्षत्रियों को रक्षा, वैश्यों को धन तथा शुद्रों को उत्पादन और सेवा संबंधी जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। उच्च कहलाने वाले तीनों वर्ण अपनी जिम्मेदारी का ठीक तरह से निर्वाह करने में असफल रहे जिसका परिणाम हमारे सामने है। यह देश शिक्षा, रक्षा और आर्थिक दृष्टि से खोखला होता गया और होता जा रहा है। मात्र शूद्र वर्ग ही अपने कर्तव्य निर्वाह का ठीक ढंग से पालन करता रहा और आज भी कर रहा है ।"

भारत भूमि पर आज तक न जाने कितने युद्ध हुए, देवासुर संग्राम, महाभारत, राम-रावण, आर्यों का आगमन, मुगलों का आगमन, अंग्रेजों का आगमन आदि । युद्ध के पश्चात् पराजित वर्ग विजेता वर्ग को अनुयायी बन जाता है । आर्यों के आगमन पर आर्य और अनार्य जातियों के युद्ध के पश्चात् आर्यों को विजय हुई है पराजित अनार्य विजित आर्य की स्वाधीनता को स्वीकार्य किया । यहाँ से दलितों का राज्य समाप्त हो जाता है और वे आर्यों की दासता को स्वीकार कर लेते है। इसी संदर्भ को उद्घाटित करते हुए डॉ. सोनवणे ने अपने शोध प्रबंध में लिखा है कि - "प्राचीन काल में युद्धों के कारण एक वर्ग विजेता रहा और दूसरा पराजित । दलित वर्ग उसी युद्ध परम्परा का शिकार है, जिस विजयी नीति ने मनुष्य को हीन पशु तथा शैतान बना दिया । आर्य शक्ति की चपेट में जब दलित सभ्यता का अंत हो गया और उनमें से बहुत सारे स्थानांतर कर गये और जो बचे थे वे सामर्थ्यहीन होने के कारण उन्होंने विजयी जाति की सेवा करनी मंजूर कर ली। तब से दलित वर्ग की सृष्टि हुई ऐसा मेरा दावा है । क्योंकि आर्यों में जो शूद्र थे उनका उपयोग आर्य सेवक रूप में करते थे, उनमें कुछ दास भी थे जो आर्यों के पुराने सेवक थे या दलित वर्ग में से ही चुन लिए गए थे। वे शुद्रों से निम्न स्तर के जरूर थे लेकिन अछूत कभी नही थे । "

यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि "हमारे यहाँ वर्ग-विभाजन आर्यों के आगमन के पश्चात् ही हुआ है। इसके पूर्व जातियों को लेकर संभवतः कोई विभाजन नही था । सामाजिक विभाजन आर्यों के भारत आगमन के पश्चात् हुआ । उस समय आर्य तथा अनार्य के मन में संभवतः यह विचार कदापि न रहा होगा कि कर्म - विभाजन के ध्येय से गठित चार वर्ग आगे चलकर चार पृथक जातियों के वर्ग बनाये जाएगें । आर्यों को मुख्य चार भागों में बाँटा गया । यथा ... धर्म, रक्षा, वाणिज्य तथा सेवाएँ एवं तद्नुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ग गठित किये गये । धीरे-धीरे चारों वर्ग चार जातियों के वर्ण में बदल गये। जन्म से अब सभी को शूद्र न मानकर शूद्र केवल वे माने गये जो शूद्र वर्ण की संतान थे। शेष तीन सवर्ण माने गये । शूद्रों को नीच एवं अस्पृश्य करार दे दिया गया और यहों से आरंभ हुआ मानव द्वारा मानव पर किये गये अत्याचार, शोषण, बलात्कार, हत्या, अस्पृश्यता और घृणा का आँसुओं से लिखा यह इतिहास जिसमें समस्त मानवता का सिर शर्म से झुक गया। साहित्य समाज का दर्पण है । इस कथन की सार्थकता इसी में है कि यह समाज की ही किसी भी घटना को झूठलाता नही है, यथा तथ्य इसका निरूपण करता है । इसका प्रमाण यह है कि आज तक हमारे यहाँ जो कुछ भी हुआ है । वह सब इतिहास के पन्नों पर अंकित है, जिसका अवलोकन समयानुसार किया जाता रहा है । 

साहित्यिक धारा में दलित साहित्य भले ही आज नया माना जाता हो किन्तु इसका स्त्रोत प्राचीनकाल से चला आ रहा है । जैसे साहित्य की अन्य विधा अपनी प्राचीनता लिये हुए प्रकट हुई है वैसे ही दलित साहित्य एक लम्बे समय तक संघर्ष करने के पश्चात् उभर कर सामने आया है। यह भी सच है कि दलित साहित्य दलितों के शिक्षित हो जाने के पश्चात् हो अस्तित्व में आया है। यह अपना पूर्ण आकार ग्रहण कर पाया है। दलित जातियों पर शोषण एवं अत्याचार का इतिहास अतिप्राचीन है और यह किसी न किसी रूप में साहित्य या साहित्येतर ढंग से व्यक्त भी हुआ है, किन्तु साहित्य में इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति दलितों के साक्षर होने के पश्चात् ही हो पायी है । 

अतः स्पष्ट है कि शोषण - दमन के अंधकारमय सामंती युग में भी दलित समुदाय अपने ऊपर ढाये जा रहे नग्न अत्याचारों के विरोध में अपना आक्रोश एवं अपना आवेग अन्य तरीकों से व्यक्त करता था और अपनी अभिव्यक्ति के यही तरीके ही दलित - समुदाय के पास थे, क्योंकि शिक्षा एवं अन्य सुविधाओं से यह वंचित कर दिया गया था। यदि दलित समुदाय ( शूद्र) शिक्षित होता तो अवश्य ही वह अपने आक्रोश एवं आवेश को साहित्य के माध्यम से भी व्यक्त करता और अपने उन नायकों को जिन्हें अभिजातवर्गीय साहित्यिक ने दंडित एवं लांक्षित किया है, अपने सिर आँखों पर लेता, उन्हें शहीद बनाता, उनसे ऊर्जा ग्रहण कर अपने समुदाय को आगे बढ़ाता और अंत में मनुस्मृति एवं अन्य सामंती साहित्य के समान्तर साहित्य की रचना करता, जिसे हम आज प्राचीन दलित साहित्य कहते है ।" इस प्रकार स्वतंत्रता 15 आन्दोलन पूर्व दलित संबंधी साहित्य को प्राचीन दलित साहित्य और तत्पश्चात् के दलित संबंधी साहित्य को आधुनिक दलित साहित्य कह सकते है।

19वीं शताब्दी से आधुनिक साहित्य का विकास हुआ। आधुनिकता से प्रभावित होकर या नवजागरण से अनुप्लवित होकर साहित्य की सभी विधाओं का विकास हुआ। उसी तरह से दलित साहित्य का भी प्रचार-प्रसार उसी समय से हुआ है ऐसा कहने में कोई आपत्ति नही होनी चाहिए । भाविक दृष्टि से देखे तो संस्कृत युग, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश तक भले ही दलित शब्द प्रकाश में न आया हो, किन्तु सामाजिक व साहित्यिक दृष्टि से जब दृष्टिपात करते है तो दलित साहित्य के लक्षण उसकी केन्द्रस्थ समस्या, उसके मुख्य तत्व तथा बीज प्रारंभ से ही दिखाई देते है। दलित साहित्य का प्रारंभ मुख्य रूप से मराठी साहित्य से हुआ । नये वातावरण में महाराष्ट्र के ज्योतिबा फूले आदि से उसका विकास हुआ। किन्तु धीरे-धीरे उसने भारत की तमाम भाषाओं में अपना स्थान बनाते हुए भारतीय दलित साहित्य रूपी विशाल आकार ग्रहण कर लिया है।

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