गर्भावस्था के दौरान पोषण संबंधी आवश्यकताएं?

गर्भधान एक जैविक क्रिया है जो महिला के अण्डाणु तथा पुरुष के शुक्राणु के संयोग से सम्पन्न होती है। गर्भधान से लेकर शिशु जन्म पूर्व तक की अवस्था गर्भावस्था कहलाती है । यह अवस्था कम से कम 9 माह की होती है। इस समयावधि में मां के गर्भ में भ्रूण का विकास हो रहा होता है। गर्भावस्था में सामान्य जीवन से भिन्न प्रकार के पोषण की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में गर्भवती महिला के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है। एक स्वस्थ्य महिला ही स्वस्थ्य शिशु को जन्म दे सकती है तथा उचित पालन पोषण कर सकती है। गर्भावस्था में कुपोषण गर्भ से सम्बन्धित समस्याओं को भी बढ़ाता है क्योंकि गर्भ में शिशु का पोषण गर्भवती के भोज्य तत्वों से ही प्राप्त होता है। महिलाओं की पोषण सम्बन्धी विशेष आवश्यकताएं गर्भ धारण के पूर्व से ही शुरू हो जाती है तथा यह आवश्यकताएं धात्री स्थिति तक निरन्तर तक चलती रहती है। अल्प पोषण एवं कुपोषण गर्भधारण की क्षमता को भी प्रभावित करते हैं।

सुपोषित महिला जिसे गर्भ धारण के पूर्व से ही उत्तम पोषण प्राप्त होता है, उसे गर्भावस्था में कम कठिनाइयों का सामना करना करना पड़ता है, साथ ही महिला का शिशु भी स्वस्थ्य रहता है, स्वस्थ्य महिला के दूध में वह सभी पोषक तत्व उपस्थित रहते हैं जो शिशु की वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक होते हैं। यदि महिला के आहार में सभी पोषक तत्वों की उचित मात्रा रहती है तो उसका गर्भकाल, प्रसव वेदना एवं प्रसव सम्बन्धी अन्य कठिनाइयों सरलता से दूर हो जाती है। जिन महिलाओं को पर्याप्त पोषण नहीं मिलता उनमें समय पूर्व शिशु जन्म, टॉक्सीमिया, अपरिपक्व जन्म, गर्भपात, मृत शिशु जन्म की सम्भावना अधिक होती है।

प्रसव पूर्व देखरेख से सम्बन्धित तथ्य

1. जैसे ही महिला को यह पता चलता है कि वह गर्भवती है तो उसे तुरन्त पहली विजिट की सलाह दी जाती है। इसे गर्भावस्था का पंजीकरण कहा जाता है।

2. गांवों और शहारों में जहाँ लिंग के आधार पर चयनित गर्भपात हो रहा है वहां यह और भी जरूरी हो जाता है कि गर्भावस्था का पंजीकरण हो ।

3. दूसरी विजिट चौथे एवं छठे महीने के बीच होनी चाहिए। 

4. तीसरी विजिट की योजना आठवें महीने में बनानी चाहिए ।

5. नौवें महीने में एक अतिरिक्त विजिट से विशेष रूप से प्रिमिग्रेविडा (जो महिलाएँ पहली बार गर्भधारण करती हैं) में बेहतर देखरेख प्रदान करने में मदद मिलेगी।

6. यदि स्वास्थ कर्मी इन विजिट्स के दौरान स्वास्थ्य समस्याओं की पहचान करते हैं तो डॉक्टर से मिलना आवश्यक होगा ।

गर्भावस्था के दौरान घर पर देखरेख

1. गर्भवती महिलाओं को भारी शारीरिक श्रम, नहीं करना चाहिए ।

2. उसे दिन के दौरान 2 से 3 घण्टे और रात के समय आठ घण्टे तक पर्याप्त आराम के साथ शारीरिक कसरत की जरूरत होती है।

3. धूम्रपान, तंबाकू चबाने एवं मंदिरा (शराब) के सेवन से बचना चाहिए ।

4. गर्भवती महिलाओं को उपवास नहीं रखना चाहिए। इससे माता तथा उसके गर्भ के अन्दर पल रहा बच्चा आवश्यक भोजन से वंचित हो जाता है

5. चिकित्सक की सलाह के बिना कोई दवा नहीं लें।

6. आयरन फोलेट और कैल्शियम के सम्पूर्ण नियमित रूप से लें और स्तनपान कराने के दौरान इसे जारी रखें।

गर्भावस्था के दौरान पोषण

1. गर्भावस्था के दौरान अधिक खाना खाएं ।

2. बाजरा, ज्वार, जैसे साबुत अनाज, गेंहू का आटा, अंकुरित चना तथा खमीर वाले भोजन जैसे इडली, ढोकला, दही आदि खाऐं ।

3. आयरन की अधिकता उदाहरण के लिए हरी पत्तेदार सब्जियां जैसे कि पालक, सरसों, दाल, गुड़ तरबूज कैल्शियम दूध, एवं दुग्ध उत्पाद और प्रोटीन दाल, अंडा, मछली, मांस वाला पोषक आहार अपेक्षित है।

गर्भावस्था में पोषक तत्वों की आवश्यकता

(1) कैलोरी :-

गर्भावस्था में वजन तथा शरीर के आकार के परिवर्तन के कारण आधारीय चयापचय बढ़ जाता है, अतः अधिक कैलोरी की आवश्यकता होती है। गर्भावस्था में गर्भवती महिला का 24 - 28 पौण्ड बजन बढ़ जाता है । वजन में यह वृद्धि गर्भावस्था के तीसरे माह के बाद से प्रारम्भ होती है अतः अतिरिक्त कैलोरी की आवश्यकता भी तभी से होती है। गर्भावस्था में आन्तरिक परिवर्तनों के कारण शरीर में आन्तरिक ऊर्जा व्यय बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त बाह्य क्रियाशीलता के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अतः गर्भावस्था में सामान्य आवश्यकता की अपेक्षा प्रतिदन 300 कैलोरी अतिरिक्त लेनी पड़ती है | 

(2) प्रोटीन :-

गर्भस्थ शिशु की कोशिकाओं के निर्माण, मां के शरीर की टूट-फूट की मरम्मत के लिए प्रोटीन की आवश्यकता होती है। गर्भकालीन अवस्था में शिशु का पोषण मां के रक्त के द्वारा होता है । अतः इस अवस्था में रक्त संगठन में भी परिवर्तन हो जाता है। रक्त में प्लाज्मा और रक्त कणों की मात्रा बढ़ जाती है तथा रक्त सीरम में प्रोटीन की मात्रा कम हो जाती है जिसका सीधा प्रभाव मां व गर्भवस्थ शिशु दोनों पर पड़ता है । अतः रक्त के सामान्य संगठन के लिए गर्भवती महिला को अतिरिक्त प्रोटीन एवं खनिज लवणों की अवाश्यकता होती है। गर्भावस्था के दौरान गर्भवस्थ शिशु का विकास एवं आन्तरिक अंगों की क्रियाशलता बढ़ जाती है । 

(3) विटामिन :-

गर्भावस्था में सभी प्रकार के विटामिन भी पर्याप्त मात्रा में आवश्यक है क्योंकि ये मां तथा शिशु को सुरक्षित रखने में सहायक होते हैं। जैसे— विटामिन ए,’ विटामिन बी, विटामिन सी, विटामिन डी, विटामिन ई तथा विटामिन के । ये सभी गर्भवती तथा भ्रूण की रोगों से रक्षा के लिये अत्यंत आवश्यक है।

गर्भावस्था में कब्ज की शिकायत से छुटकारा पाने के लिये भोजन में सेल्युलोज युक्त भोज्य पदार्थ आवश्यक है। रक्त निर्माण तथा निरूपयोगी पदार्थों के उत्सर्जन के लिये जल आवश्यक है। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि भोजन किस विधि से पकाया जा रहा है । हरी सब्जियों को अधिक पकाने से पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाते हैं। सलाद का प्रयोग भी करना चाहिए। बासी, दूषित, ज्यादा तली व मसाले वाली चीजें नहीं खानी चाहिए। इस प्रकार गर्भावस्था में उपर्युक्त सभी प्रकार के पोषक तत्व जैसे- ऊर्जा, उत्पादक, शरीर निर्माणक तथा शरीर रक्षात्मक की आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है ।

पोषक तत्वों की कमी के लक्षण

1. कुपोषण

गर्भावस्था में भ्रूण के विकास के कारण मां के शरीर अनेक परिवर्तन होने लगते हैं। जिंसके पोषक तत्वों की मांग बढ़ जाती है। इसके बावजूद पर्याप्त खान–पान न मिल पाने के कारण वह कुपोषण का शिकार हो जाती है और साथ ही गर्भावस्था के दौरान गंभीर शारीरिक और मानसिक तनाव से भी गुजरती है। कुपोषण के कारण या तो उनकी मृत्यु हो जाती है या अनेक प्रकार की गंभीर बिमारियों से ग्रस्त हो जाती है जैसे - कमजोरी, भूख न लगना, एनिमिया और पोषक तत्वों की कमी देश में कुपोषण की गंभीर समस्या के कारण महिलाएँ अधिकांशतः कमजोर बच्चों को जन्म देती हैं

कुपोषण का प्रभाव केवल गर्भवती महिला के स्वास्थ्य पर ही नहीं पड़ता है, बल्कि नवजात शिशु का स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। एक स्वस्थ महिला का वजन सामान्य से 40–12 कि.ग्रा. तक बढ़ जाता है, किंतु कुपोषित गर्भवती का भार 5–7 कि.ग्रा. तक ही बढ़ता है। गर्भवती महिला में कुपोषण के कारण ही मृत्युदर ज्यादा पाई जाती है, महिलाओं के भोजन में कैल्शियम, प्रोटीन, लौह तत्व, फोलिक एसिड और कैल्शियम की पर्याप्त मात्रा नहीं होती, परिणामस्वरूप भावी शिशु जन्म से पहले मर जाते हैं या कम वजन के पैदा होते हैं या अन्य दूसरे प्रकार की शारीरिक या मानसिक विकृतियां पाई जाती हैं। गर्भकाल के अन्तिम 3 महीनों में शिशु का विकास तीव्र गति से होता है, इन्हीं 3 महीनों में शिशु अपने भार का 3, 4 भाग ग्रहण करता है। जिससे नये ऊतकों के निर्माण के लिये निर्माणक तत्वों की मांग बढ़ जाती है।

2. अल्पपोषण

भारत व अन्य विकासशील देशों में मातृ मृत्यु दर अधिक है अर्थात महिलाएँ बच्चों को जन्म देते समय या गर्भावस्था के समय मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं जिसका मुख्य कारण अल्पपोषण है। अतः गर्भावस्था में माँ को पौष्टिक आहार मिलना चाहिए। गर्भावस्था में पौष्टिक तत्वों के अतिरिक्त मांग की पूर्ति होनी चाहिए ताकि शिशु तथा माता दोनों को उचित पौष्टिक तत्व मिल सके, दोनों स्वस्थ रहें। गर्भवती महिला को सामान्य आहार भी नहीं प्राप्त होता है और महिला अल्पपोषण का शिकार हो जाती है।

भारत के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान उनके भोजन को विशेष महत्व नहीं दिया जाता, पारिवारिक मान्यतायें ऐसी हैं कि पुरूष पहले भोजन कर लेते हैं, बचा हुआ भोजन महिलायें ग्रहण करती हैं जिसमें पोषक तत्वों की अधिक कमी होती है। गर्भकालीन अवस्था में एक साथ दो मानव शरीर का पोषण होता है। मां जो भोजन लेती है उसी से गर्भस्थ जीव भी पोषण प्राप्त करता है। अतः गर्भवती महिला का आहार ऐसा होना चाहिए जो गर्भवती महिला और गर्भस्थ शिशु दोनों के लिये उपयुक्त हो । गर्भवती का आहार संतुलित और पौष्टिक दोनों होना चाहिए। जिससे गर्भकालीन कठिनाईयां कम हो जायें। प्रसव सामान्य हो।°

अतः गर्भवती महिला के आहार में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खनिज और सभी विटामिन सम्मिलित होने चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि गर्भवती कितना भोजन लेती है बल्कि यह आवश्यक है कि भोजन के जरिये कौन-कौन से पौष्टिक तत्व कितनी मात्रा में लेती है।

गर्भवती महिलाओं में कुपोषण एवं अल्प पोषण के कारण

कुपोषण की स्थिति अनेक परिस्थितियों में उत्पन्न हो जाती है इसका कई अनेक कारण हैं। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. अल्प उत्पादनकर्ता :- भारत कृषि प्रधान देश होने के बावजूद यहां खाद्य पदार्थों का सदैव अभाव बना रहता है। सरकार को अन्य देशों से अनाज मंगाना पड़ता है। जो भोजन मिल भी रहा है वह पौष्टिक तत्वों से रहित है ।

2. आर्थिक कारण :- भारत में निर्धनता का विशेष साम्राज्य है। गरीबी के कारण लोगों की निम्न क्रय क्षमता है जो कुपोषण का मुख्य कारण है। भारतीय परिवारों की सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था भी इसका एक प्रमुख कारण है। बढ़ती महंगाई - कम आमदनी, निर्धन को उच्च पौष्टिक मूल्यों वाले भोज्य पदार्थ खरीदने योग्य नहीं छोडती ।

3. अज्ञानता और अशिक्षा :- पोषक तत्वों के महत्व से अनभिज्ञता और अज्ञानता भी सर्वव्यापी है। पोषक तत्वों के संरक्षण की विधि से लोग वाकिफ नहीं हैं। भोजन को तल कर खाने में उन्हें इस बात का अन्दाजा भी नहीं लगता है कि अपने ही हाथों से जो उन्हें मिल सकता था उसे नष्ट कर दिया।

4. पाक विधि :- उचित पाक विधियों की जानकारी के अभाव में भी पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाते हैं जैसे- सब्जियों को पकाना, काटना, छिलना, खुले बर्तन में पकाना इत्यादि ।

5. संक्रमण, बीमारी एवं अस्वास्थ्यकर वातावरण :- गर्भावस्था में स्वच्छता एवं बीमारी के कारण संक्रमण की संवेदनशीलता बढ़ जाती है। जो कि कुपोषण की स्थिति को उत्पन्न करने में एक खास कारण बनते हैं। अस्वच्छ वातावरण में पौष्टिक भोजन भी विषाक्त हो जाता है जो विभिन्न प्रकार के रोगों को उत्पन्न कर गर्भवती महिला को अस्वस्थ बना देता है।

6. तनाव की स्थिति :- गर्भावस्था में आवश्यकता के अनुसार पोषक तत्वों की मांग कम होने की वजह से बिमारियां बढ़ जाती हैं, जिसके कारण गर्भवती महिला में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

7. अंधविश्वास :- निर्धनता के कारण गर्भवती महिला को सामान्य आहार भी प्राप्त नहीं हो पाता है। इसलिये कुपोषित मां स्वस्थ शिशु को जन्म देने में असमर्थ होती है। गर्भावस्था में कुपोषण का एक प्रमुख कारण अंधविश्वास भी है जिसके कारण पौष्टिक तत्व उपलब्ध होते हुए भी लोग उनका उपयोग नहीं कर पाते हैं ।

8. मिलावट :- जो कुछ पौष्टिक तत्व उपलब्ध होता है उसमें मिलावट की मात्रा ज्यादा होती है। गर्भवती महिला में इसके कारण अधिक मात्रा में पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है।

9. भोजन सम्बंधी आदत :- ज्यादातर लोग अधिक तला-भुना भोजन पसंद करते हैं। पौष्टिक तत्वों से युक्त कम मसालेदार भोजन पसंद नहीं आते, जिसमें पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाते हैं।

10. भोजन में अनियमितता :- प्रायः भोजन में अनियमितता जीवनशैली बन गई है। दिन का खाना शाम को, शाम का रात को कभी नहीं खाया, कभी ज्यादा खा लिया, जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है I

11. भोजन के प्रति जागरूकता का अभाव :- भारत जैसे देश में आम व्यक्ति अपनी परेशानियों में ही उलझा रहता है । उसे इस बात की चिन्ता नहीं है कि वह क्या खा रहा है, बस उसका पेट भरना चाहिए । वह अपने अनुरूप संतुलित भोजन के प्रति जागरूक नहीं होता है।

12. अत्यधिक कार्य का दबाव :- गर्भवती महिला को उसके कार्य के दबाव के अनुरूप उचित मात्रा में पौष्टिक तत्व नहीं मिल पाता है । निरन्तर ऐसी व्यवस्था से उसकी कार्य क्षमता गिरती जाती है । वह कमजोर हो जाती है।

13. पारिवारिक परिस्थितियां :- बड़े-बड़े परिवार होने के कारण घर का सुखद वातावरण बहुत कम ही महिलाओं को देखने को मिलता है, फलतः उनके शरीर में पौष्टिक तत्व, जिन्हें वह बड़ी मुश्किल से प्राप्त करती है, असरकारक नहीं होते हैं।

14. नींद का अभाव :- गरीबी और बड़े परिवारों के कारण महिलाओं को सुख - चौन से सोने के आरामदायक स्थान का अभाव होता है । वे सो नहीं पातीं, फलतः वे कमजोर हो जाती हैं और अनेक बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं ।

गर्भवती महिलाओं की दिनचर्या

दिनचर्या का सम्बन्ध गर्भवती महिला को गर्भावस्था में अपने भोजन, विश्राम व निद्रा, व्यायाम, वस्त्र, जूते, चप्पल, स्नान, स्तन की स्वच्छता, दाँत, स्वास्थ्य रक्षा, मानसिक स्वास्थ्य इत्यादि से होता है। गर्भावस्था के समय गर्भवती महिला के उत्तम स्वास्थ्य के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना अति आवश्यक है :-

  1. डॉक्टरी परीक्षण
  2. आहार
  3. वस्त्र
  4. व्यायाम
  5. व्यक्तिगत स्वच्छता
  6. यौन सम्बन्ध
  7. मनसिक स्वास्थ्य
  8. परिश्रम, विश्राम व निंद्रा
  9. सूर्य प्रकाश व स्वच्छ वायु
  10. स्वास्थ्य सुरक्षा

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