गुप्त काल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशा

गुप्तकाल में भारतीय सभ्यता और संस्कृति अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुंच गई थी। क्या समाज, राजनीति, साहित्य, कला और धर्म सभी क्षेत्र में गुप्त युग में असाधारण प्रगति हुई । इतिहास वेत्ता गुप्तकाल को जिसमें नवाभ्युत्थान का आंदोलन, साहित्य व कला के क्षेत्र में अनेक सफल सिद्धियों को प्राप्त करता हुआ विकास की चरम पराकाष्ठा तक पहुंच गया था । हिन्दू धर्म का स्वर्ण युग और हिंदू नवाभ्युत्थान का काल कहते हैं । 

गुप्त वंश का संस्थापक चन्द्रुप्त प्रथम था । उसके उपरांत उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने अपनी गौरवपूर्ण विजयों द्वारा सामग्राज्य की सीमाओं को बहुत दूर-दूर तक बढ़ाया। समुद्रगुप्त के बाद इस युग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य सिंहासानारुढ़ हुआ जिसने एक ओर अपने असाधारण बल, विक्रम और नेतृत्व शक्ति के द्वारा साम्राज्य विस्तान किया, तो दूसरी ओर कुशल प्रशासन और धार्मिक सहिष्णुता के द्वारा जनता में लोकप्रियता प्राप्त की । 

स्कन्दगुप्त इस स्वर्ण युग का अंतिम प्रतापी नरेश था, जिसके प्रताप का सूर्य समस्त उत्तरी भारत पर चमकता रहा ।

समाज और समाजिक दशा

गुप्तकालीन समाज की विशेषताओं का परिज्ञान तो हमें तत्कालीन अभिलेखों, साहित्यिक साक्ष्यों तथा मुद्राओं द्वारा तो प्राप्त होता ही है, साथ ही साथ इस विषय में चीनी यात्री फाह्यन के भारत संबंधी यात्रा विवरण से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है ।

फाह्यान 399 ई. में बौद्ध ग्रन्थों की खोज करता हुआ भारत आया था। उस समय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य गुप्त साम्राज्य के सिंहासन पर आसीन था । फह्यान ने भारतीय सामाजिक अवस्था की मुक्तकन्ठ से प्रशंसा की है । वह लिखता है लोगों का आपसी व्यवहार बड़ा सौहार्द्रपूर्ण था। वे प्रेममय जीवन व्यतीत करते थे । केवल चांडालों को छोड़कर कोई मांस मंदिरा आदि का सेवन नहीं करता था। लहसून प्याज आदि का प्रयोग कम होता था । मुर्गी तथा सूअर पालन घृणित कार्य समझा जाता था। समाज में नैतिकता की प्रबल भावना थी । धनी व्यक्ति मुक्तहस्त निर्धनों की सहायता करते थे, तथा मंदिर, धर्मशालायें तथा प्याऊ इत्यादि बनवाते थे ।

देश धन-धान्य से परिपूर्ण था । जनता को स्वतंत्रता प्राप्त थी, तथा शास्त्रीय हस्तक्षेप वर्जित था । गुप्त साम्राज्य का उद्देश्य कल्याणकारी राज्य स्थापित करना था । अतः प्रजाहित को सर्वोपरि स्थान प्राप्त था । स्थान-स्थान पर दानालय, विश्रामालय औषधालय, अनाथालय आदि स्थापित किए गए थे। लोगों का नैतिक स्तर उन्नत था। जनता का सुखमय जीवन, भोजन, आवास तथा धन-धान्य की परिपूर्णता थी । इन कारणों से हमें गुप्तकाल के सामाजिक जीवन में कुछ नवीनताएं दृष्टिगत होती है ।

वर्ण व्यवस्था

गुप्तकाल में भी वर्ण-व्यवस्था विद्यमान थी, गुप्तकाल के स्मृति ग्रंथों में वर्ण-व्यवस्था के कठोर नियमों का प्रतिपादन किया गया है । परंतु व्यवहारिक रुप में इस काल की वर्ण-व्यवस्था उदार थी। हिंदू धर्मावलंबी गुप्त शासकों के समय में समाज के विभाजन का आधार यही वर्ण व्यवस्था थी । चार वणों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण ब्राह्मण होते थे, जिनके कर्तव्य थे, पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ कराना, दान लेना देना । यह वर्ण राजनीति की ओर से सर्वथा उदासीन नहीं रहता था। राजा का पुरोहित ब्राह्मण होता था और यह पुरोहित राजा के धर्म विषयों में परामर्श देने के साथ-साथ विविध देव - देवताओं की स्तुति करके राष्ट्र के मंगल की कामना करता था । इस भांति ब्राह्माणों का गुप्त युगीन समाज में सबसे अधिक आदर और प्रतिष्ठा थी। 

समाज में सामाजिक क्षमता के कारण क्षत्रिय वर्ण को द्वितीय स्थान प्राप्त था । ये लोग ब्राह्माणों के उपरोक्त उल्लिखित छह कार्यों में से तीन पढ़ना, दान देना, यज्ञ करना तो कर सकते थे, परंतु शेष तीन कार्यों को करने का अधिकार इन्हें नहीं था । तीसरा वर्ण वैश्यों का था जिसका प्रधान कर्म व्यापार करना था वैश्यों का समाज में अधिक ऊँचा स्थान न था । 

अंतिम वर्ण में शूद्र आते थे और उनका कार्य उपयुक्त तीनों वर्णों की सेवा करना था। 

गुप्तकालीन सामाजिक व्यवस्था में वर्ण-व्यवस्था के जटिल न होने के कारण ऐसे भी दृष्टांत मिलते हैं, जिसमें एक वर्ण में जन्म लेने वाले व्यक्ति ने दूसरे वर्ण के कार्यों को अपनाया था। 

दास प्रथा

गुप्तकाल में दास प्रथा प्रचलित थी । यह प्रथा भारतीय समाज में गुप्तों के पूर्व से ही चली आ रही थी । याज्ञवलक्य तथा नारद स्मृति में दासों का उल्लेख किया गया है दास कई प्रकार के हुआ करते थे और मनु ने सात प्रकार के दासों का उल्लेख किया है । युद में जीता गया, आत्मदान द्वारा बना दास, दासों का पुत्र, खरीदा गया, दूसरे स्वामी का दिया हुआ । दास का वंशज तथा दंड रूप में जिसे दास बनाया गया हो । समाज में दासों के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता था । दासता से मुक्ति प्राप्त करने के लिए भी विधान था, ऋणी अपना ऋण चुकाकर दासता से मुक्ति पा सकता था। युद्ध बंदी अपने स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति की नियुक्ति करके दास प्रथा से छूट सकता था दासता से मुक्ति पाने की विधि बड़ी रोचक थीं । 

दासता से छुटकारा पाने के अवसर पर दास अपने कंधे पर जल से भरा हुआ घड़ा रखता था तथा स्वामी उस घड़े को फोड़ देता था । दास का सारा शरीर जल से भीग जाता था, दास स्वतंत्र हो जाता था । दास के साथ भी सद्व्यवहार किया जाता था। ब्राह्मण को दास बनाना निषिद्ध था । हिन्दू समाज में सर्वप्रथम आत्मदान या आत्मसमपर्ण से ही दास प्रथा की उत्पत्ति ज्ञात होती थी । केवल राजा, सामंत और गृहस्थ के यहां ही नहीं वरन बौद्ध मठों, वैष्णव, शैव और शाक्य मंदिरों में भी दास रहते थे । 

इस युग में दास प्रथा के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए धर्म शास्त्रों के अंतर्गत जैन ग्रंथों, शिलालेखों तथा विदेशी मंत्रियों के वृत्तांतों से भी जानकारी प्राप्त होती है । लेखपद्धति के एक लेख में 504 विषलप्रिय (चहमान राजा विषलदेव के नाम से प्रचलित एक सिक्के) में एक दासी की खरीद के संबंध में क्रयपत्र है, जिसमें यह बताया गया है कि इस क्रय की घोषणा सारे नगर में की गई। जैन ग्रंथ समराइच्छकहा तथा प्रबधचिंतामणि में दास व्यापार की अनेक कथाएं है, जिनसे पता चलता है कि दास व्यापार नियमित रुप से चल रहा था। कहा जाता है कि दास व्यापार नियमित रुप से चल रहा था कहा जाता है कि वीरधवल के मंत्री तेजपाल ने नाविकों द्वारा मनुष्यों के अपहरण पर रोक लगा दी थी । 

लेखपद्धति के अनुसार वस्तुओं के विनियम में दासों का निर्यात समुद्री मार्ग से पश्चिमी देशों को होता था । लेखपद्धति से ही राजस्थान और गुजरात में प्रचलित दास प्रथा की जानकारी प्राप्त होती है ।

इस काल में नियामकों ने दासों के जान-माल के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई नियम नहीं दिये है, जिससे स्पष्ट है कि उनकी दशा पूर्व काल की अपेक्षा अधिक गिरी हुई थी । त्रिषिष्शिालाकाचरित में कहा गया है कि सामान्यः दासों को खच्चर की तरह पीटना चाहिए, उन्हें भारी बोझ ढोना चाहिए। और भूख-प्यास सहन करना चाहिए। लेखपद्धति से पता चलता है, कि दासियों को खरीदते समय उनसे यह स्वीकारोक्ति भी जाती थी कि भागने, चोरी करने, मालिक की निंदा करने अथवा मालिक और उसके संबंधियों की आज्ञा की अवहेलना करने पर स्वामी को उसे पीटने तथा बांधने का पूरा-पूरा अधिकार था ।

पारिवारिक जीवन

समाज की इकाई संयुक्त परिवार था । इस युग के स्मृति - ग्रंथों में संयुक्त कुटुम्ब की प्रणाली को प्रशंसनीय बताया गया है । गुप्तकाल के अभिलेखों में संयुक्त परिवार प्रथा का उल्लेख मिलता है । परिवार का मुखिया पिता या वयोवृद्ध व्यक्ति होता था, और वह परिवार के समाजिक तथा धार्मिक कार्य करता था और परिवार के हित में दान पुण्य करता था। परिवार पितृ प्रधान था तथा परिवार के सभी सदस्यों को उसकी आज्ञा का पालन करना पड़ता था । परिवारिक सम्पति पर पिता का अधिकार होता था । पिता की मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई उसका स्थान ग्रहण करता था । पारिवारिक संयुक्त की निरंतरता इस भाँति बनी रहती थी । माता पत्नी, बहू तथा पुत्री के रुप में स्त्री परिवार में प्रमुख स्थान प्राप्त था । 

विवाह

समाज में विवाह का महत्वपूर्ण स्थान था । यद्यपि एक पत्नी प्रथा सर्वमान्य थी, किंतु धन संपन परिवारों ओर राजवंशों में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। चंद्रगुप्त द्वितीय तथा कुमार गुप्त प्रथम की अनेक पत्नियां थी, परंतु धार्मिक यज्ञों एवं अनुष्ठानों में महारानी को ही भाग लेने का अधिकार था । विवाह का उद्देश्य सहयोग, साहचर्य तथा संतान प्राप्ति था । अन्तर्जातीय विवाह की प्रथा इस यगु में प्रचलित थी । उच्च वर्ण के पुरुष निम्न वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकते थे। इस विवाह को अनुलोभ विवाह कहते थे । उच्च वर्ण की स्त्री निम्न वर्ण के पुरुष के विवाह को प्रतिलोभ विवाह कहा जाता था । शूद्र कन्याओं से भी विवाह किया जाता था । 

गुप्तकाल में भी बालविवाह का प्रचलन हो गया था । स्वयंवर की प्रथा भी प्रचलित थी, यह विलीन नहीं हो पाई थी । संभवता विधवा विवाह भी समाज में प्रचलित था। नारद और पाराशर ने भी अपने स्मृतियों में विधवा-विवाह को उचित बताया है। परंतु अन्य स्मृतिकारों ने विधवाओं के जीवन के लिए ब्रह्माचार्य और आत्मसंयम के जीवन को आवश्यक बताया है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त की विधवा पत्नी ध्रुवदेवी से विवाह किया था अनमेल वृद्ध विवाहों का भी प्रचलन था ।'

स्त्रियों की दशा

गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों की दशा विगत युगों की अपेक्षा अच्छी नहीं थी । पुत्री जन्म पर प्रसन्नता व्यक्त नहीं की जाती थी, बाल-विवाह की प्रथा प्रारम्भ हो जाने पर सामान्यता स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा का द्वार अवरुद्ध हो गया था। फिर भी स्त्री शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था ।

सुखी और समृद्धिशाली परिवार की कन्याओं को साहित्यिक और सांस्कृतिक शिक्षा दी जाती थी । वे गायन, नृत्य, गृह कार्य आदि में दक्ष होती थी । स्त्रियों को इतनी ऊँची शिक्षा दी जाती थी कि वे संस्कृत ऋचाओं और श्लोकों को समझ सकती थी, और इनकी रचना भी कर सकती थी । अभिज्ञान शाकुन्तलम् के अनुसार अनुसुइया शकुंतला के छन्दोबद्ध प्रण्य संदेश का अर्थ समझ गई थी तथा वह चित्रकला में निपुण थीं गुप्तकालीन ग्रन्थ 'अमरकोष' में नारी अध्यापिकाओं तथा वैदिक मंत्रों की शिक्षा देने वाली नारियों का उल्लेख किया गया ।

गुप्तकालीन साहित्य में तत्कालीन नारियों को ललित कला में निपुण तथा विभिन्न विषयों में कुशल बताया गया है । समाज में स्त्रियों को 'स्त्री धन' के रुप में स्मपति का अधिकार भी प्राप्त था । पर्दा प्रथा नहीं के बराबर थी । समान्यतः त्रियां स्वतंत्रतापूर्वक भ्रमण करती थीं। समाज में नारी का स्थान इस युग में काफी अच्छा था। गुप्तकाल में शीला भट्टारिका आदि महिलाएं कवित्रियों और लेखकों के रूप में विख्यात थी। कुछ प्रांतों में विशेष कर कन्नड़ प्रदेश में स्त्रियों प्रांतीय शासन और गांवों में मुखिया का भी कार्य करती थी । सामाजिक व धार्मिक कार्यों में पुरुष के साथ स्त्रियां सम्मिलित होती थी। राजवंश में स्त्रियां शासकीय कार्यों में सहयोग देतीं थीं गृहस्त जीवन में पत्नियों का स्थान समादर था, वे अर्धांगनी थीं। वे पतिव्रत धर्म का उच्चतम् आदर्श प्रतिष्ठित करतीं थीं । कभी-कभी गृहस्थी जीवन से उबकर स्त्रियां संन्यासिनी तथा तपस्विनी भी हो जाया करती थी । 1

गुप्तकालीन समाज में कुछ साक्ष्यों द्वारा यदाकदा सती प्रथा' के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं । 'मृच्छकटिक' में सती होने का वर्णन है । सामाजिक उत्सवों पर स्त्री-पुरुष समान रुप से विचरण करते और उल्लास मनाते थे । 

भोज पान ( खान-पान )

" गुप्तयुग में शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजनों का सेवन  सेवन करते थे । मद्य की दुर्गन्ध को छुपाने के लिए लोग बीज पूरक का छिल्का चबाते थे, ताकि सांस में उसकी महक बस जायें उसी उद्देश्य से लोग पान सुपारी का प्रयोग करते थे । '

वस्त्राभूषण

गुप्तकालीन समाज के वस्त्राभूषण के विषय में तत्कालीन साहित्य ग्रन्थों तथा कलाकृतियों से प्रचुर ज्ञान प्राप्त होता है। जनता साधारण सूती वस्त्रों का प्रयोग किया करती थी । समृद्ध पुरुष ओर उच्च श्रेणी के लोग रेशमी तथा ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते थे अथवा धारण करते थे । गुप्तकाल में मलमल रेशम छींट और ऊन के वस्त्र अधिक उपयोग में लाये जाते थे । ऋतु के अनुसार विभिन्न प्रकार के वस्त्र धारण किये जाते थे ।

सामान्यतः स्त्री और पुरुष केवल दो वस्त्र का उपयोग करते थे । एक का प्रयोग निम्न - भाग को और दूसरे का ऊपरी भाग को ढकने के लिए किया जाता था। ओर वे दुकूल - युग्म या क्षौम युग्म कहे जाते थे। पुरुषों के वस्त्र में ऊपरी वस्त्र उत्तरीय (दुपट्टा) होता था जो कदाचित कंधों से होता हुआ कांध के नीचे से निकाल लिया जाता रहा होगा अथवा कंधे पर रख लिया जाता होगा ।

उत्तरीय का प्रयोग लोग प्रायः अवसर विशेष अथवा स्थान पर ही करते थे । कटि के नीचे लोग धोती पहनते थे। लोग किस प्रकार धोती पहनते थे । इसके विविध रुप सहज ही गुप्त कालीन सिक्कों पर देखा जा सकता है उनसे यह भी अनुमान होता है कि राजा ओर प्रजा के वस्त्र धारण करने के ढंग में कोई अंतर न था। उस समय सिर पर पगड़ी बांधने का भी प्रचलन था । 

पुरुषों की तरह स्त्रियां भी दो वस्त्र धारण करती थीं ऊपर का वस्त्र स्तनांशुक कहलाता था स्त्रियां साड़ी, पेटीकोट तथा चोली पहनती थी ।

अजंता की चित्रकारी में स्त्रियों को विविध प्रकार की चोलियां पहने हुए चित्रित किया गया है । सर्वसाधारण लोग सिर पर उष्णीय या पगड़ी पहनते थे गुप्तकाल में वस्त्रों की रंगाई, छपाई तथा कढ़ाई की कला भी विकसित हो गई थी।

स्त्री तथा पुरुष दोनों को श्रंगार और आभूषण में अधिक रूचि थी । केशों को विविध प्रकार से सजाने, मुख पर पराग ओर लाली लगाने तथा विविध प्रकार के आभूषण पहन कर अपने सौंदर्य की वृद्धि करने में लोगों का अधिक ध्यान था। स्त्रियां कानो में वर्णफूल, गले में मोतियों तथा स्वर्ण से निर्मित मालायें, हाथों में रत्न जड़ित चूडियां, कंगन, कड़े उंगलियों में मुद्रिकायें तथा कमर में करधनी पहिनतीं थीं । अजंता के एक चित्र से पता चलता है कि, अब स्त्रियां मांग के बीचोंबीच टीका पहिनतीं थीं । स्त्रियां पैरों में पायजेब भी पहिनती थीं । यही इति नहीं पैरों में वे धुंधरूदार आभूषण तथा कलाइयों में बजने वाले कड़े पहिनतीं थीं । 

धार्मिक अनुष्ठानों में स्त्री तथा पुरुष द्वारा आभूषण धारण किया जाना शुभ माना जाता था । यज्ञोपवित के अवसर पर कटि में कटिबंध तथा उदरबन्ध पहनने की प्रथा थी । 'रघुवंश' से ज्ञात होता है कि स्वयंवर में आने जाने वाले राजा केयूर तथा अंगुलीयक पहने हुए थे पुरुष प्रायः अंगूठियां तथा हार पहिनते थे । आभूषण सोन, चांदी हाथी दांत तथा बहूमूल्य सामग्री द्वारा बनाए जाते थे ।'

मनोरंजन के साधन

"गुप्तकालीन समाज में मनोरंजन के विविध रूपों का प्रचार था । स्त्री पुरुष शतरंज तथा चौपड़ की तरह कोई खेल खेलते थे । नाना प्रकार के पशु-पक्षियों का पारस्परिक युद्ध कराकर भी मनोरंजन किया जाता था । राजा तथा जनता दोनों ही आखेट प्रेमी थे । कालिदास की रचनाओं में गुप्तकालीन मुद्राओं आदि से विदित होता है, कि मृगया (आखेट ) राजा तथा उच्च पदाधिकारियों के मनोरंजन का मुख्या साधन था। धूत क्रीड़ा द्वारा भी मनोरंजन किया जाता था।

'मृच्छकटिक' में धूत खेलने का विशद ओर मनोरंजक वर्णन मिलता है | अनेक नट, जादूगर, गायक, भाट तथा नाटकदल, व्यवसाय के रुप में जनता का मनोरंजन किया करते थे । तत्कालीन समाज में अनेक व्यक्ति वेश्यागमन तथा वेश्याओं के नृत्य - गायन द्वारा भी मनोरंजन किया करते थे । स्त्रियां तथा बच्चे (कुन्दक) गेंद खेलते थे विभिन्न नाटक गृहों का आयोजन किया जाता था। समाज में गोष्ठियों का भी प्रचलन था । इनमें एक ही स्तर तथा रुचि के लोग भाग लेते थे ।

गुप्तकाल में उत्सवों में सम्मिलित होना, अथवा भाग लेना, सामाजिक शिष्टा का प्रतीक माना जाता था । फाह्यान के अनुसार लोग धर्मिक उत्सवों में बड़ा आनंद लेते थे । समय-समय पर रथ यात्राओं का आयोजन किया जाता था । तथा इन रथ यात्राओं में सहत्रों नर-नारी भाग लेते थे, तथा इन अवसरों पर सहभोज का आयोजन किया जाता था। इन अवसरों पर दीपक भी जलाए जाते थे। ऐसा पता चलता है, कि कुछ राष्ट्रीय उत्सवों का भी प्रचलन था । इन उत्सवों में सभी वर्गों के लोग सामूहिक रूप से सम्मिलित होते थे । कामसूत्र में सामूहिक यात्रा, समाजगोष्ठी, उद्यान भ्रमण तथा क्रीड़ा प्रमुख उत्सव बताए गए हैं । '

Post a Comment

Previous Post Next Post