हिन्दू धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय कौन - कौन से हैं?

उपास्य देवों की उपासना पद्धतियों में आंतरिक भिन्नता होने के कारण प्रत्येक मत में कालक्रम से अनेक सम्प्रदायों का प्रवर्तन होना स्वभाविक है। मत की अपेक्षा सम्प्रदाय में वैचारिक संकीर्णता तथा एकदेशीयता की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। डा. राधकृष्णन के मत में सम्प्रदाय सीमित होते हैं और इन्हें अंतिम और सार्वभौमिक सत्य नहीं कहा जा सकता। गुरुशिष्य परम्परा समुदिष्ट व्यक्तियों का समूह अथवा गुरुपरम्परागत संघटित संस्था ही सम्प्रदाय है। पहला सम्प्रदाय जैन भगवान महावीर ( ई. पू. 599-527) आता है। जैन शब्द जिन से बना है जिसका अर्थ है, वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। जिन अर्थात् तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित मत जैन सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उसके बाद बौद्ध मत आता है। हिन्दू धर्म में गौतमबुद्ध (ई. पू. 566-487) को भगवान् के दशावतारों में नवम अवतार तथा चौबीस अवतारों में तेइसवां अवतार बतलाया गया है । 

भागवत पुराण में कहा गया है कि दैत्यों और असुरों के हृदय में वैदिक धर्म के प्रति विरक्ति उत्पन्न करने के लिए ही भगवान् ने गौतमबुद्ध के रूप में अवतार लिया और अनेक उपधर्मों का प्रतिपादन किया था तद्यथा -


ततः कलौ सम्प्रवृते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।
बुद्धो नाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति ।। भागवत पुराण 1।2।13

 

इसी प्रकार वैष्णव मत, श्री वैष्णव सम्प्रदाय, श्री सम्प्रदाय ( रामावत सम्प्रदाय), रूद्र सम्प्रदाय, ब्रह्म सम्प्रदाय (माधव सम्प्रदाय), निम्बार्क सम्प्रदाय - चैतन्य सम्प्रदाय, राधावल्लभ सम्प्रदाय आदि अनेक मतों-सम्प्रदायों की दीर्घ परम्परा आदि काल से भारत वर्ष में चली आ रही है। बाद में भक्ति काल की सन्परम्परा भी इस कोटि में आती है। समाज जागरण उनका मुख्य उद्देश्य रहता है। वे राजनीति प्रेरित न होकर राष्ट्र प्रेरित होते हैं। यह सब आज भी विद्यमान है। भारत वर्ष में कभी भी किसी दूसरे सम्प्रदाय के साथ किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं रहा है। मत - सम्प्रदाय एक विशिष्ट विचार का प्रचार करने के लिए उद्भूत होते आए है। राजनीति उसका कभी विचार नहीं रहा है। सत्य और आध्यात्म ज्ञान और सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करना उद्देश्य रहा है। 

विवेक काटजू लिखते हैं कि भारत अति प्राचीन परम्परा में हजारों वर्षों से भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मार्गदर्शन करते हुए, हिन्दुओं में कभी पंथवाद नहीं रहा। सभी पंथ हिन्दू धर्म में समाविष्ट हो जाते हैं।  

हरिंदर सिक्का लिखते हैं कि गुरूनानक एक ओंकार की बात करते हैं। गुरूग्रन्थ साहिब में सब वही है जो भारत के ऋषि-मुनियों का ज्ञान है। भक्ति काल आते आते वह सब लोक भाषा में आ गया जिसकी समाज को जरूरत थी । सिक्ख परम्परा हिन्दू समाज से एक बेटा धर्म रक्षा के लिए देने की परम्परा से निकला है। इन्हें किसी भी प्रकार से बांटा नहीं जा सकता है। हिन्दू धर्म एक पंथ नहीं है। वह अनेक पंथों और अनेक विचारों और व्यवस्थाओं का सामुच्य है। आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य ने ईश्वरवादियों को एकताबद्ध किया। हिन्दू धर्म में ईश्वरवादी और अनीईश्वरवादी रहे हैं। शंकर ने चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की।

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