मनोविज्ञान का अर्थ एवं परिभाषा, विकास एवं सिद्धांत

मनोविज्ञान मानव मन का विश्लेषणात्मक रूप है। मन के भावों या मनोवेगों का आलय, मनोविकारों या अनुभूतियों का कोष है और मनोविज्ञान में इन्हीं भावों, अनुभूतियों, उद्वेगों की व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। मनोविज्ञान के विषय की ओर मानव मन सदा आकर्षित रहा है। उसे अपने और दूसरों के स्वभावों, गुणों, व्यवहारों, संबंधों, प्रयासों, सुख-दुःख तथा अन्य अनुभवों में रुचि रही है। मनुष्य की इन सब उधेड़बुन में सदियों तक प्रेक्षणों, अनुमानों, वाद-विवाद एवं खोज की अनेक धाराएँ चलती रही है। उन्हीं में मनोविज्ञान का जन्म एवं विकास हुआ है ।

मनोविज्ञान का अर्थ

प्राचीन काल में मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र का ही एक अंग था, किन्तु सन् 1950 ई. में इसका एक स्वतंत्र विषय के रूप में प्रयोग किया गया। अंग्रेजी शब्द ‘साइकोलॉजी' यूनानी भाषा के 'साइके' (Psyche) तथा ‘लोगस’ (Logous) शब्दों से मिलकर बना है। यूनानी भाषा में 'साइके' का अर्थ है 'आत्मा' तथा ‘लोगस’ का अर्थ है 'विज्ञान' | इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में 'साइकोलॉजी' का अर्थ है ‘आत्मा का विज्ञान’। अर्थात् आत्मा का अध्ययन करना अथवा आत्मा संबंधित विचार करना ।

सन् 1950 से आज तक के क्रमिक विकास में मनोविज्ञान का स्वरूप बदलता गया है। कभी यह आत्मा का विज्ञान बना तो कभी मन का। विभिन्न कालों के अनुसार मनोविज्ञान का विकास निम्नानुसार है

(अ) आत्मा का विज्ञान:- अपने प्रारंभिक काल में मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान माना जाता था और उसका मुख्य कार्य आत्मा के स्वरूप, अर्थ, कार्य आदि का अध्ययन करना था । अरस्तू, प्लेटो तथा भारतीय आदर्शवादी दार्शनिक इसे आत्मा का विज्ञान मानते थे पर वे यह नहीं बता पाये कि आत्मा क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? उसके कार्य क्या है ? परिणामस्वरूप यह जनसाधारण से पृथक् होकर केवल दार्शनिकों के चिन्तन की ही विषयवस्तु रह गई। कालान्तर में मनोविज्ञान को इस रूप में देखा नहीं गया।

(ब) मन का विज्ञानः- मनोविज्ञान ‘आत्मा का विज्ञान' है इस अवधारणा की तीव्र आलोचना हुई। 18 वीं शताब्दी के प्रारंभ में इन आलोचनाओं से बचने के लिए मनोविज्ञान को ‘मन का अध्ययन' करने वाला विज्ञान कहा गया। परवर्ती काल में इस विचारधारा की भी तीव्र आलोचना होने लगी; क्योंकि आत्मा के समान ही ये मनोवैज्ञानिक भी मन के स्वरूप, कार्य आदि के विषय में कोई संतोषप्रद उत्तर न दे सकें। परिणामस्वरूप इसको मन का विज्ञान होना अस्वीकार कर दिया ।

(स) चेतना का विज्ञान :- 18 वीं शताब्दी के अंतिम चरण तथा 19 वीं सदी के प्रारंभ में मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को 'चेतना का विज्ञान' माना। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्येक जीवित प्राणी में किसी न किसी मात्रा में चेतना होती है। वह इसी कारण वातावरण के प्रति चैतन्य रहकर प्रतिक्रियाएँ करता है। किन्तु मनोवैज्ञानिक चेतना की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दे पाये । कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार चेतना व्यवहार को प्रभावित नहीं करती है बल्कि चेतना की कई अवस्थायें पूर्ण चेतन, अर्द्धचेतन व अचेतन होती है । किस अवस्था का अध्ययन किया जा रहा है; प्राणी किस चेतनावस्था में व्यवहार कर रहा है; यह जानना कठिन है। अतः मनोविज्ञान को चेतना के विज्ञान के रूप में भी अस्वीकार कर दिया गया ।

(द) व्यवहार का विज्ञान:- बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में मनोविज्ञान के विभिन्न अर्थ स्पष्ट किये गये, क्योंकि इस समय मनोविज्ञान विकास के चरमोत्कर्ष पर था । मनोविज्ञान को विज्ञान माना जाने लगा यही कारण है कि मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा गया । व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों की यह सबसे बड़ी उपलब्धि रही। आज भी मनोविज्ञान प्राणी के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन कर रहा है। अर्थात् मनोविज्ञान के सर्वप्रथम आत्मा की अवधारणा को छोड़ा फिर अपने मन की तथा इसके बाद अपनी चेतना की अवधारणा का परित्याग किया, तत्पश्चात् इसमें व्यवहार का अध्ययन निरंतर हुआ है।

उपरोक्त आधार पर कहा जा सकता है कि प्रारंभिक काल से लेकर अब तक मनोविज्ञान एक गतिशील विज्ञान रहा है। इससे मानव व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। यह एक विधायक विज्ञान है । इसका उद्देश्य है, मानव व्यवहार को समझाना, उसकी व्याख्या करना, उसका पूर्वानुमान लगाना और यदि व्यवहार में कुछ अतिरेक हो तो उस पर नियंत्रण कैसे करना इस पर विचार करना है । 

मनोविज्ञान की परिभाषा

अनेक मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को परिभाषित किया। वे परिभाषाएँ निम्नानुसार हैं

1. बोरिंग, लैंगफेल्ड व वेल्ड :- “ मनोविज्ञान, मानव प्रकृति का अध्ययन है । "

2. स्किनरः– “मनोविज्ञान, व्यवहार और अनुभव का विज्ञान है । "

3. मनः- “आधुनिक मनोविज्ञान का संबंध, व्यवहार की वैज्ञानिक खोज से है |”

4. क्रो व क्रो:- “ मनोविज्ञान मानव-व्यवहार और मानव संबंधों का अध्ययन है |”

5. वुडवर्थः– ‘“मनोविज्ञान वातावरण के संबंध में व्यक्तियों की क्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन है।""

6. जेम्सः– “मनोविज्ञान की सर्वोत्तम परिभाषा चेतना के वर्णन और व्याख्या के रूप में की जा सकती है। "

7. वाटसनः– “मनोविज्ञान आचरण व व्यवहार का यथार्थ विज्ञान है । "

8. हिलगार्ड तथा एटकिन्स:- “ मनोविज्ञान की परिभाषा एक विज्ञान के रूप में दी जा सकती है जो मानव तथा दूसरे प्राणियों के व्यवहार का अध्ययन करता है।" "

9. वृहत् हिन्दी कोश के अनुसारः- “ मनोविज्ञान मन की प्राकृत, वृत्तियों आदि का विवेचन करने वाला विज्ञान अथवा मानस शास्त्र है ।" "

10. मानक हिन्दी कोश के अनुसारः- “ मनोविज्ञान वह विज्ञान या शास्त्र है जिसमें मनुष्य के मन उसकी विभिन्न अवस्थाओं तथा क्रियाओं, उस पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन तथा विवेचन होता है।”2

11. डॉ. नगेन्द्रः– “मनोविज्ञान के अंतर्गत मस्तिष्क की विविध क्रियाओं एवं शक्तियों का तथा मानव स्वभाव एवं कार्यों की मूल प्रवृत्तियों एवं प्रेरणाओं का अध्ययन किया जाता है । "

उपरोक्त परिभाषा के आधार पर मनोविज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएँ परिलक्षित होती है

1. मनोविज्ञान विधायक विज्ञान है। इसमें क्रिया-प्रतिक्रिया, कार्यकरण तथा परिणाम का प्रभाव पड़ता है।

2. मनोविज्ञान का संबंध वातावरण से है इसलिए यह वातावरण के प्रति अनुक्रिया का भी अध्ययन करता है ।

3. यह व्यक्ति के भौतिक एवं सामाजिक व्यवहार का अध्ययन करता है। 

4. मनोविज्ञान के अंतर्गत ज्ञानात्मक क्रियाओं (स्मरण, विस्मरण, कल्पना, संवेदना, संवेग आदि) का अध्ययन किया जाता है।

5. मनोविज्ञान के अंतर्गत, व्यक्ति का अध्ययन मनोदैहिक प्राणी के रूप में किया जाता है।

निष्कर्षतः मनोविज्ञान प्राणियों के व्यवहार के समग्र समायोजन का अध्ययन करने वाला विज्ञान है । इसका क्षेत्र व्यापक है । यह एक ओर तो विधेयक विज्ञान है जबकि दूसरी ओर यह मानव विज्ञान की श्रेणी के अंतर्गत भी आता है । आधुनिक युग में इसकी मान्यता अधिक हो गई है। इसका कारण यह है कि मनोविज्ञान सामाजिक मनोविज्ञान में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। आज के समय में अपने तार्किक, प्रामाणिक अध्ययन चिंतन मनन के साथ, व्यावहारिक प्रयोगों के साथ मनोविज्ञान एक विधायक विज्ञान है।

मनोविज्ञान का विकास एवं सिद्धांत

'मनोविज्ञान' के शाब्दिक अर्थ से सभी सामान्य शिक्षित साधारण जन परिचित हैं। परंतु उसकी तात्विक एवं सैद्धांतिक व्याख्या से प्राय: अपरिचित है हालांकि व्यवहारिक संसार में मनोविज्ञान के विभिन्न सिद्धांतों का प्रयोग अवश्य होता रहता है। मनुष्य समय-समय पर अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति के व्यवहार से प्रभावित होता है या उन्हें प्रभावित करता है। यह प्रक्रिया व्यक्ति के बाल्यकाल से ही प्रारंभ हो जाती है और जीवन पर्यंत चलती रहती है। जीवन पर्यंत चलने वाली यह प्रक्रिया पूरी तरह मनोविज्ञान से प्रभावित रहती है। मनुष्य के मनोजगत् एवं व्यवहारिक जगत् को अंतर्संबंध करने वाले इस विज्ञान का अर्थ निम्नानुसार है - 

1. मनोविज्ञान का भारतीय दृष्टिकोण:- भारत का अतीत; आर्थिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक रूप से वैभवशाली रहा है। भारत के ऋषि-मुनियों ने जीवन तथा ईश्वर से संबंधित विषयों पर गहन चिन्तन-मनन किया है। इसी युग में वेद, गीता, महाभारत, उपनिषद् जैसे सारगर्भित उच्च स्तरीय ग्रंथों की रचना हुई। जिनमें जीवन के विविध पक्षों का बौद्धिक विवेचन समाहित है। इन ग्रंथों में न केवल पुरूष, आत्मा, मन, परमात्मा, बुद्धि तथा प्रकृति आदि का विवेचन किया गया है बल्कि इनमें चेतन, अचेतन, चेतना, प्रत्यक्षीकरण, आत्मसिद्धि, कर्म, जन्म, पुनर्जन्म, सत् रज, तम आदि गूढ़ विषयों की भी विवेचना है। इन्हीं ग्रंथों में आज के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का सहज निरुपण है।

डॉ. सीताराम जायसवाल के मतानुसार "भारतीय मनोविज्ञान आध्यात्मिक चिन्तन का फल है। वह जीवन, आत्मा और मन में भेद करता है । भारतीय चिंतक अति सामान्य तथ्यों और पुनर्जन्म जीव के आवागमन आदि के प्रति निष्ठावान है । ' 

भारतीय दार्शनिकों के मन को अपने शरीर का भाग समझा है और प्रकृति को उसका नियंत्रक। इसके द्वारा भावना, अनुभूति और सौंदर्य बोध से प्रेरित मानसिक भावों की पुष्टि होती है ।

मनोविज्ञान मानव की चेतना से संबंधित विज्ञान है । सहचर्य और व्यवहार में मनुष्य निरंतर संपर्क में आते हैं। इसके कारण उनकी प्रवृत्तियों में बदलाव भी दिखाई देता है।

भारतीय मनोविज्ञान दर्शन एक शाखा के रूप में पल्लवित - पोषित हुआ है। जो निम्नानुसार है

1. वैदिक युग में मनोविज्ञान:- वेदों की संख्या चार है ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। इन वेदों के अध्ययन से वेदकालीन मनोवैज्ञानिक धारणाओं का ज्ञान होता है। भारतीय वेद ग्रंथ अधिकतर धर्म और दर्शन से ही संबंधित है जिनमें मनुष्य के मन का विश्लेषण भी है। ऋग्वेद में पुरूष सूक्त के प्रथम मंत्र में अनंत शक्ति संपन्न और सर्वव्यापी पुरूष का वर्णन किया गया है। पुरूष सूक्त के दूसरे मंत्र में यह कहा गया है कि जो कुछ हुआ है और जो कुछ होने वाला है वह सब पुरूष ही है। चूंकि संसार की रचना पुरूष ने ही की है, अस्तु उस पर काल-परिवर्तन का स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता ।

वेद ग्रंथों में आत्मा की प्रकृति के संबंध में बताया है कि आत्मा के दो अर्थ है एक शरीर की जीवन शक्ति के रूप में तथा दूसरा संपूर्ण व्यक्ति के रूप में। 

2. उपनिषदों में मनोविज्ञानः- उपनिषद् भारतीय दार्शनिक विचारधाराओं के आदि स्रोत हैं। इनमें वस्तु विषयक विवेचन के स्थान पर आत्मा विषयक विवेचना है। भारतीय मनोविज्ञान के मूल आधार योग के आदि स्रोत भी उपनिषद् ही है ।

उपनिषद् जगत् के आदि कारण, सृष्टा, पालक और संहारक शक्ति की खोज में थे। इसको इन्होंने पहले बाहर प्राकृतिक जगत् में ढूंढा, तत्पश्चात् मनोवैज्ञानिक जगत् में उसकी खोज की। अंत में रहस्यम अनुभूति में उन्हें उस कारण की प्राप्ति हुई और उनकी आध्यात्मिक, नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक खोज की चरम परिणति ‘रहस्यवाद' में हुई ।

उपनिषदों के अनुसार वैयक्तिक आत्मा और परम आत्मा अंधकार और प्रकाश के समान एक ही शरीर की हृदय गुहा में निवास करते हैं। प्रथम को जीव और दूसरे को आत्मा कहा गया है। जीव कर्म के फल भोगता है। जबकि आत्मा कूटस्थ है।

जीव की चार अवस्थाएँ हैं - जागृत अवस्था, स्वप्न अवस्था, सुषुप्ति अवस्था तथा तुरीय अवस्था ।

उपनिषद् में मानव मन को लेकर चिंतन-मनन है । भारतीय दृष्टि में मन का नियंत्रण और इन्द्रियों को बाह्य विषयों से समेटना आत्मा विकास है । कठोपनिषद् में कहा गया है “उठो जागो और जो तुमसे श्रेष्ठ है उनसे सीखो क्योंकि आत्म - लाभ का लक्ष्य छुरे की धार के समान पैना है ।" "

कठोपनिषद् की इस घोषणा में मन को प्रेरणा देना उद्देश्य है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि "मन के हारे हार है, मन के जीते जीत” । 

गीता और दार्शनिक मनोविज्ञान :- गीता में सत्य, तम, रज तीनों के लिए महत्वपूर्ण सुझाव है। गीता में सत्य, तम, रज, तीनों के विवेचन से मनुष्य की विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों व स्वभाव का विवेचन किया गया है। गीता अंहकार को निम्न स्तरीय मनोवैज्ञानिक क्षमता मानती है। गीता का कर्म योग मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कर्म का विज्ञान है। जिस पर चलकर मनुष्य संसार के बड़े-बड़े कार्य आसानी से करता है।

भारतीय मनोविज्ञान अंतःकरण की चर्चा करता है । मानव चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का गहराई से अध्ययन करता है । भारतीय मनोविज्ञान संश्लेषणात्मक है । इसका उद्देश्य “आत्मनो मोक्षार्थम जगत हिताय च।”

इस प्रकार भारतीय मनोविज्ञान मानस विज्ञान के साथ - साथ आत्म विज्ञान है। इसमें मानव जीवन के अज्ञात पक्षों की गवेषणा भी है। भारतीय मनोविज्ञान में ‘मन’ को क्रियाशील माना गया है। इसके आधार पर ही मन का बाह्य इन्द्रियों एवं आत्मा से संयोग होता है। संयोग के पूर्व स्वतंत्र मन में सभी मानसिक भावों और गुणों का अभाव रहता है। मनुष्य की समस्त इच्छाओं के नष्ट हो जाने पर भी उसका मन सर्वथा शुद्ध, निर्विकार तथा निर्मल रहता है। भारतीय मनोविज्ञान में ‘मन’ को यंत्रवत माना है । मन को नियंत्रित करने और मानसिक दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त होने के अनेक उपायों का उल्लेख है । उदाहरण अभ्यास, वैराग्य, योगासन, भक्ति आदि। 

भारतीय मनोविज्ञान में व्यक्तित्व का निर्माण पुरूष के अन्तःकरण में निहित ‘श्रद्धा’ द्वारा माना गया है। यदि व्यक्ति की 'श्रद्धा' सात्विक होगी तो उसका व्यक्तित्व भी सात्विक गुणों से मुक्त होगा। अतः कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व के सुदृढ़ होने के लिए श्रद्धा भाव भारतीय मनोविज्ञान में एक अनिवार्य भाव स्थिति मानी गयी है

2. मनोविज्ञान का पाश्चात्य दृष्टिकोण:- पाश्चात्य मनोविज्ञान मानव-व्यवहार का विज्ञान है। पाश्चात्य मनोविज्ञान भौतिक जगत्, प्रत्यक्ष जगत् को मानते हुए विकसित हुआ है। पाश्चात्य मनोविज्ञान की यह मान्यता है कि “शरीर की क्रिया में ही मन क्रियाशील होता है ।" 1 इसमें मन की स्वतंत्र सत्ता नहीं मानी गयी है । इसमें मन को साधारण मानसिक प्रक्रियाओं के ज्ञान का साधन माना गया है। इसमें निरीक्षण और प्रयोग आदि वैज्ञानिक विधि है |

पाश्चात्य मनोविज्ञान में मन को कम्प्यूटर वत् यंत्र माना गया है तथा वस्तु प्रत्यक्ष के आधार पर ही वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा प्रयोग से प्राप्त ज्ञान को वास्तविक ज्ञान माना गया है। पाश्चात्य मनोविज्ञान विश्लेषणात्मक है ।

भारतीय मनोविज्ञान और पाश्चात्य मनोविज्ञान की अध्ययन प्रणाली और तथ्य संग्रह में पर्याप्त अंतर होते हुए भी अध्ययन - विषय और अध्ययन के उद्देश्य में पर्याप्त साम्यता भी है।

डॉ. लक्ष्मी के शब्दों में " दोनों का विषय है व्यक्ति का मन एवं व्यवहार; और उद्देश्य है व्यक्ति का स्वयं को जानना, अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित होना अज्ञान के अंधकार से मुक्त हो, प्रकाश की ओर बढ़ना ।'' -

चेतन, अर्द्धचेतन अथवा अचेतन दशा पर विश्व को भूलना सरल है किन्तु यह स्थिति क्षणिक रहती है। पाश्चात्य और भारतीय मनोविज्ञान में अंतर भी यही है । पाश्चात्य मनोविज्ञान क्षेत्र को लेकर सारे प्रयोग करता है तथ भारतीय चिंतन में मनोविज्ञान को परा - क्षेत्र के अंतर्गत माना गया है तथा साधना द्वारा नियंत्रित करने की बात कही गई है।

मनोविज्ञान जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, मन का विज्ञान है । यह वातावरण के संपर्क से उत्पन्न होने वाली, प्राणी की क्रियाओं का विज्ञान है। ग्रीक दार्शनिकों ने, आत्मा के स्वरूप, व्यवहार तथा अनुभव का जो ज्ञान प्राप्त किया, उसका नाम मानसिक दर्शन रखा । पर यह कोई विज्ञान न होकर कोश दर्शन था।

‘“मनोविज्ञान मनुष्यों के व्यवहारों का विज्ञान है जिसका अध्ययन व्यक्ति की चेतना तथा उसके बाह्य निरीक्षण के द्वारा किया जाता है । " 

“आधुनिक मनोविज्ञान शुद्ध पश्चिमी पद्धति है। मनोविज्ञान उन मानसिक क्रियाओं का अध्ययन करता है जिसका प्रदर्शन शारीरिक व्यवहारों में होता है, तथा उसका निरीक्षण प्रत्यक्ष अनुभवों के द्वारा होता है ।' 

जगत् की समस्या पर सूक्ष्मता से विचार, उसे कार्य कारण श्रृंखला में बाँधकर देखना और उसके क्रियाकलापों तथा विशिष्ट गुण-धर्मों का पता प्रयोग द्वारा लगाना यही मनोविज्ञान का कार्य है। 

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