समाज किसे कहते हैं | समाज का उद्भव एवं विकास

हम लोग समाज का अर्थ समझते है- 'नारी' और 'पुरुष' का समूह । समाज का वास्तविक अर्थ यह नहीं है। इसका सही अर्थ है एक साथ मिलकर चलना। कभी-कभी हम बस, ट्रेन में एक साथ यात्रा करते है पर उसे हम समाज नहीं कह सकते। समाज व्यक्ति अथवा परिवारों का एक ऐसा संगठन है जिसमें समान उद्देश्यों एवं आदर्शों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति या परिवार स्वयं के हित की कामना से स्वेच्छा के साथ सहयोग देता है । व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है जो कि समाज की ईकाइ है और समाज अपने व्यक्तित्व का विकास करता है । मनुष्य जन्म से लेकर अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सामाजिक संबंधों में बंधकर रहना पड़ता है इन संबंधों को ही समाज कहा जाता है। उन सभी संगठनों के समूह को समाज कहा जाता है जिन्हें मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तथा अपने आप को सम्पूर्ण व सुखी बनाने के लिए बनाता है। समाज को समूह, सभा, दल आदि का पर्यायवाची माना जाता है। अंग्रेजी में इसे 'सोसायटी' शब्द से जाना जाता है ।

समाज की परिभाषा

समाज शास्त्रीयों व दूसरे विद्वानों ने समाज की कई जटिल परिभाषाएँ दी है जो निम्नानुसार है:-

मेंकाइवर के अनुसार : - "मनुष्य में जो चलन है जो कार्यविधियाँ है, पारस्परिक सहायता की जो प्रवृत्ति है शासन की जो भावना है, मानव व्यवहार के संबंध में जो स्वतंत्राए व मर्यादायें है उनकी व्यवस्था को ही समाज कहते है।”

साइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइसिज के अनुसार :- मनुष्य अपनी उद्देश्यपूर्ति के हेतु साधन जुटाने में प्रत्यक्ष रूप से क्रियारत रहता हैं मनुष्य के इस कार्यकलाप के फलस्वरूप विकसित मानव संबंधों का रूप समाज है। ''4 वंश परम्परा, परिवेश, संस्कृति, वैज्ञानिक बोध एवं पद्धति, धार्मिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक विचार प्रणालियों और कलात्मक अभिव्यंजना रीतियों का भी प्रभाव रहता है।

प्रो. गिडिग्स :-“समाज स्वयं एक संघ है यह एक संगठन है और व्यवहारों का योग है, जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति एक दूसरे से संबंधित है।”5 समाज मनुष्य के लिए वो प्रतिबिम्ब है जिसमें प्रत्येक दिवस वो अपनी अभिलाषाओं को पूरा होते देखता है। समाज मनुष्य के विचारों की अभिव्यक्ति करता है।

अमर सिंह जगराम लोधा के अनुसार :- " समाज की सबसे सीधी परिभाषा यही दे सकते है कि समाज मनुष्य की समष्टि का दूसरा नाम है। दूसरे शब्दों में कहे तो व्यक्तियों के समुदायों का नाम ही समष्टि या समाज है।" 

राईट के मतानुसार :- “मनुष्य के समूह को समाज नही कहा जाता, अपितु समूह के अन्तर्गत व्यक्तियों के संबंधों की व्यवस्था का नाम समाज है। 

कुले के अनुसार :- " समाज को जीवित एवं विकासशील रीतियों या प्रतिक्रियाओं का जटिल ढाँचा कहा है ।”

अतः उपरोक्त परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज मानवीय संबंधों का तानबाना है समाज के लिए आवश्यक है कि सभी मनुष्य एक साथ रहे उनमें स्थायी संबंध हो जो कि उन्हें एक संगठित ईकाई का रूप प्रदान करे। 

समाज का उद्भव और विकास

वैशविकों के मतानुसार मनुष्य का आविर्भाव पाँच लाख से दस लाख वर्ष पूर्व हो चुका होगा । आदिम अवस्था में मनुष्य जंगलों में स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण और शिकार करते थे । भूख लगने पर कंद मूल, मधु फल, पशु-पक्षियों का माँस खाकर कंदराओं में रहते थे । यौन संबंध नियमित या नियंत्रित नहीं था । पशु-पालन और कृषि के निमित नदियों की घाटियों एवं जलशायों के समीपवर्ती स्थान पर झुंडों में रहने लगे ।

मानव की संख्या बढ़ने से विविध आवश्यकताओं में वृद्धि हुई । यही नहीं उसके सामने जीवन के लिए आवश्यक प्रस्तुत है जैसी अन्न, वस्त्र, निवास इत्यादि की आवश्यकता हुई । ऐसी बहुत सी असुविधाएँ और समस्याएँ आयीं जिनका व्यक्तिगत स्तर पर सामना करना उसके लिए कठिन रहा, इन्हीं परिस्थितियों के फलस्वरूप उसमें शनै: शनै सामूहिकता की चेतना पैदा हुई और लोगों के बीच परस्पर सहयोग की भावना वढी ।

मनुष्य सह जीवन की इच्छा से एक दूसरे के नजदीक आता है तथा समूह का निर्माण करने के साथ एक दूसरे के सहारे रहने का प्रयास करता है । इससे स्पष्ट है कि समाज केवल व्यक्तियों की एकाधिक संख्या से बना हुआ समुदाय नहीं है,मनुष्य ने अपनी आवश्यकता शर्त के लिए समाज का निर्माण किया है।

सामाजिक व्यवस्था का निर्माण और वैयक्तिक के लिए उपार्जन आवश्यक हैं । उपार्जन के लिए वह कोई न कोई व्यवस्था अपनाते हैं । व्यवसाय से परस्पर आदान प्रदान बढ़ता है । इस आदान-प्रदान के लिए साधारण माध्यम 'भाषा' चाहिए। भाषा अथवा बोली से व्यक्तियों को प्रेरणा प्राप्त होती है । समाज के निर्माण में यह प्रेरणा सहायक होती है । समाज में व्यक्ति स्वभाव व्यक्तियों के वीच का आपसी व्यवहार परिवेश एवं परिवेश की सामूहिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं के आधार पर सामाजिक परिवेश का निर्माण होता है । व्यक्ति की उन्नति परिवार को विकसित करती है तो, परिवार के विकास से समाज का विकास होता है अतः परिवार के सदस्यों में परस्पर सामंजस्य स्नेह, आत्मीयता रहे तो समाज संपन्न बनता है।

वर्तमान समाज का विकास अनेक चरणों में विकसित हुआ है । ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुसार समाज का विकास तभी होता है, जब उसके लिए आवश्यक कारण विद्यामान हो, परिवार, सहयोग एवं आत्म रक्षा, व्यक्तित्व भिन्नता और उससे उत्पन्न परस्परा मित्र, निश्चित भूप्रदेश से समाज की पहचान होती है । उत्पादन विवरण के आर्थिक आधार के बढाने से समाज के संबंधों का स्वरूप बदलता रहता है । अर्थ या पूँजी समाज-व्यवस्था का नियामक तत्व है । कार्ल मार्कस ने समाज के विकास के इतिहास को आर्थिक संबंध की दृष्टि से पाँच भागों में वाँटा है। आदिम साम्यवादी युग में उत्पादन नहीं था । दासत्व युग में दासों शूद्रों आदि से उत्पादन कराया जाता था । सामन्ती युग में समाज-उत्पादन और उपभोक्ता वर्गों में बँट गया । पूँजीवादी युग में भी ये ही वर्ग संघर्ष जारी हैं । समाजवादी युग में वर्ग-वर्ण, जाति-प्रजाति का भेद न होकर सम समाज का निर्माण अपेक्षित है।

व्यक्ति के अलग-अलग व्यवहारों में अनेक क्रियाएँ उलझी हुई होती है । जिसमें व्यक्तियों के सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के अंतर्गत मानवीय संबंधों का निर्माण होता है । मानव के मानसिक विकास में इन स्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान है । व्यक्ति ने अपनी बुद्धि अनैतिक शक्ति,सूक्ष्म तथा तीक्षण दृष्टि के आधार पर जीवन का विकास करके संसार में श्रेष्ठता को स्थापित किया है । स्वयं व्यक्ति ने ही समाज को आगे बढ़ने हेतु प्रेरित किया । “समाज मानवीय संबंधों का एक प्रभावी समूह है । मनुष्य की पारस्पारिक क्रियाएँ, अन्तः क्रियाएँ एवं प्रतिक्रियाएँ ही समाज का निर्माण एवं विकास करती हैं । इनके माध्यम से ही समाज की एक पीढ़ि दूसरी पीढ़ी के कल्याण के लिए अपने अनुभव हस्तांतरित करती है”* ।

एक परिवर्तनशील व्यवस्था होने के कारण समाज उसके स्वरूप, रचना संगठन, नियमों पद्धतियों में निरंतर परिवर्तन होते हैं । इस प्रकार जो भी हो सामाजिक परिवर्तन होते रहते हैं, वे उसकी संरचना से ही संबद्ध होते हैं । माना जाता है कि परिवर्तन के द्वारा समाज का विकास संभव है । वर्तमान दशा से नये दौर की ओर बढने पर मनुष्य का आत्म विश्वास बढता है । मानव जाति के सांस्कृतिक विकास का आलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि सामाजिक चेतना की अंतर्धारा उसमें निरंतर प्रवाहित होती रही है । जो समाज को उत्तरोत्तर विकास की ओर ले जाती रही है ।

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