यशपाल की जीवनी एवं रचनाएँ

प्रेमचंदोत्तर कथाकारों में भी यशपाल का स्थान श्रेष्ठतम है । यशपाल उस कोटि के साहित्यकारों में आते हैं, जो स्थान और समय की सीमाओं का अतिक्रमण कर सार्वकालिक और सार्वभौमिक हो जाते हैं । एक साहित्यकार के रूप में यशपाल की जितनी लोकप्रियता हिंदी-जगत में है, उतने ही वे हिंदीतर जगत में भी लोकप्रिय रहे हैं । कम शब्दों में जीवन की वास्तविक घटनाओ एवं स्थितियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाले यशपाल जी, अपने विचार, दृष्टिकोण तथा सामाजिक एवं राजनीतिक मान्यताओं के कारण पंजाब के हिंदी कथा-साहित्य में, एक प्रतिष्ठित स्थान रखते हैं । एक प्रतिबद्ध लेखक के रूप में विख्यात यशपाल, साहित्य को वैचारिक क्रांति का अस्त्र मानते थे । उनका समस्त लेखन उद्देश्यपूर्ण एवं उपयोगी रहा है । यशपाल जी ने स्वयं इस बात को स्वीकार करते हुए लिखा है, “मैं साहित्य को साधन के रूप में मानता हूँ और मेरा ध्येय साहित्य द्वारा क्रांति की प्रवृत्ति और भूमिका तैयार करना ही रहता है ।

यशपाल की जीवनी

यशपाल जी का जन्म 3 दिसंबर, 1903 ई. में फिरोजपुर छावनी, पंजाब में हुआ था । उनके पिता का नाम श्री हीरालाल तथा माता का नाम प्रेमादेवी था । यशपाल जी के एक भाई भी हुए, जिनका नाम धर्मपाल था । उनके पिता एक  स्वतंत्र प्रकृति के व्यक्ति थे । छोटी-मोटी नौकरी करके वे अपने परिवार की आजीविका चलाते थे । मगर कहीं भी स्थाई रूप से टिक नहीं पाए । उनके परिवार को पैसों के अभाव में ही दिन गुजारने पड़ते । प्रेमादेवी एक संभ्रांत परिवार से संबंध रखती थीं । जब उन्होंने देखा कि अर्थाभाव के कारण उनके बच्चों का भविष्य अधर में लटक जाएगा तो उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षित बनाने और उनकी जिम्मेदारी स्वयं उठाने का निर्णय ले लिया और एक अध्यापिका की नौकरी करने लगीं । अनेक कठिनाईयों से गुजरते हुए यशपाल की माँ ने स्वयं को, एक सामान्य स्तर का जीवन बिताने लायक, सक्षम बनाया और यशपाल की शिक्षा के प्रति निरंतर सजग रहीं । 

पंजाब आने के बाद प्रेमादेवी ‘आर्यसमाज' से बहुत प्रभावित हुईं । स्वामी दयानंद के आदर्शों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था और यही कारण रहा कि उन्होंने अपने पुत्र यशपाल को, आर्य धर्म का तेजस्वी और ब्रह्मचारी प्रचारक बनाने के उद्देश्य से, सात वर्ष की उम्र में ही, काँगड़ा के गुरुकुल में शिक्षार्जन के लिए भेज दिया । इस गुरुकुल में शिक्षार्थियों को संयम और अनुशासन का कड़ा पाठ पढाया जाता था । राष्ट्रीयता पर बल देते हुए यहाँ वैदिक धर्म एवं आर्य संस्कृति के प्रति विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया जाता था । यशपाल का बाल-मन इन सबसे विशेष प्रभावित हुआ । जहाँ एक ओर उनके मन में भारत और भारतीय संस्कृति के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो रहा था, वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा का भाव उनके मन में पनप रहा था । यही घृणा की भावना आगे चलकर इतनी फलीभूत हुई कि इसका सक्रिय रूप उनके क्रांतिकारी जीवन में, उनका पथ-प्रदर्शक बना । गुरुकुल में सभी विद्यार्थियों को समान दृष्टि से देखने का नियम था, मगर फिर भी अमीरी-गरीबी की भावना वहाँ के लोगों की दृष्टि में आ ही गई थी । अर्थाभाव के कारण यशपाल के लिए गुरुकुल में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी, जिसके कारण उन्हें अन्य विद्यार्थियों की तिरस्कृत एवं व्यंग्य भरी दृष्टि का सामना करना पड़ता था ।

इस संबंध में वे स्वयं बताते हैं, “गुरुकुल में समता की भावना और अधिकार अनुभव हो चुके थे और अपनी गरीबी के लिए तिरस्कार पाने से मेरे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा होगा । गरीब होने के अपराध के प्रति मैं अपने आपको किसी भी प्रकार उत्तरदायी नहीं समझ सकता था । अमीर घर के लोगों के प्रति आदर के उदाहरण भी सामने आते रहते थे । मन में सोचता था, मैं खूब अमीर घर की संतान होता तो कितना आदर और सुख मिलता । इस प्रभाव से गरीबी से अपमान के प्रति मैं कभी उदासीन नहीं हो सका, न हो  सकूँगा ।”'' गुरुकुल में यशपाल की सेहत अच्छी नहीं रहती थी । वे संग्रहणी रोग से बुरी तरह ग्रस्त हो गए । यशपाल के स्वास्थ्य लाभ के लिए, जलवायु तथा वातावरण परिवर्तन के लिए, प्रेमादेवी उन्हें लाहौर ले आईं। उनके ठीक हो जाने पर, आगे की शिक्षा के लिए उन्हें लाहौर के ही डी.ए.वी स्कूल में भर्ती करवा दिया गया । उन्हीं दिनों उन्होंने ‘अंदमान की गूँज', ‘आनंद मठ’ आदि किताबों का अध्ययन किया और देश-प्रेम की भावना उनके हृदय में हिलोरें मारने लगी । नौवीं कक्षा में पढ़ते हुए उन्होंने अपने एक मित्र लाजवंत राय के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करते हुए उन्हें जलाया और खद्दर पहनने का निश्चय किया। यशपाल एक सम्मानित एवं संपन्न जीवन जीने की आकाँक्षा रखते थे । वे एक वकील बनना चाहते थे । परंतु सन् 1921 के देशव्यापी स्तर पर चल रहे असहयोग आंदोलन के प्रभाव से वे स्वयं को मुक्त नहीं रख सके । उन्होंने पढ़ाई छोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने का निर्णय लिया । उनके सम्मुख एक विकट स्थिति आ गई । वे समझ नहीं पा रहे थे कि उज्जवल भविष्य की महत्वाकाँक्षाओं को पूरा करें या देश-प्रेम के लिए अपने सपनों की तिलांजलि दे दें । किसी तरह उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और उसके बाद वे पंजाब के फिरोजपुर शहर चले गए, जहाँ काँग्रेस के स्वयंसेवक के रूप में कार्य करने लगे । 

सन् 1922 में गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिए जाने के बाद, अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए वे पंजाब नेशनल कॉलेज में भर्ती हो गए । इस कॉलेज की स्थापना लाला लाजपत राय के द्वारा इस उद्देश्य के साथ की गई थी कि स्वराज्य प्राप्त करने के लिए योग्य एवं परिश्रमी कार्यकर्ताओं को तैयार किया जाए । यहाँ उनकी राजनैतिक चेतना के विकास को आधार प्रदान किए जाने की पूरी योजना थी । यहाँ के प्राध्यापकों के वक्तव्य भी राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत होते थे । इस संदर्भ में अपने शिक्षक प्रो. जयचंद विद्यालंकार का उल्लेख करते हुए यशपाल जी लिखते हैं, “वे भारतीय राजनीति और इतिहास के अध्यापक थे । उनकी कक्षा में अनेक प्रकार के विषयांतरों पर वाद-विवाद हो जाता था, जैसे, आस्तिकता, नास्तिकता, आत्मवाद, भौतिकवाद आदि । उनका दृष्टिकोण विद्यार्थियों को काफी सुलझा हुआ जान पड़ता था । इसलिए जिज्ञासु और अध्ययनशील विद्यार्थियों का एक गिरोह उनके चारों ओर इकट्ठा होने लगा, जिसे भविष्य में तैयार हो जानेवाले क्रांतिकारी दल की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है ।” यहीं पर यशपाल का परिचय भगतसिंह, सुखदेव, भगवतीचरण आदि स्वतंत्रता सेनानियों से हुआ । उन दिनों इन सभी नवयुवकों के जीवन का एकमात्र उद्देश्य राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाना रहा । 

क्रांतिकारी आंदोलनों में भाग लेने के साथ-साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की । इसके बाद लाहौर के ही एक विद्यालय में हिंदी अध्यापक के रूप में वे काम करने लगे । परंतु जल्दी ही वे बेरोजगार हो गए । सरकारी नौकरी के प्रति यशपाल के मन में कोई उत्साह नहीं था । निराश होकर वे अपने एक मित्र के यहाँ लायलपुर चले गये । उनका मित्र कोयले का बड़ा व्यवसायी था । उसने दिए, परंतु यशपाल को इस काम में विशेष रुचि नहीं हुई और वे कुछ `पुनः कार्य यशपाल को सौंप लाहौर लौट आए । यहाँ अर्थाभाव के कारण उन्हें कई मजबूरियों का सामना करना पड़ रहा था । ऐसे ही समय में उनकी भेंट डॉ. गोपीचंद भार्गव से हुई, जो उन दिनों लेजिस्लेटिव असेम्बली के काँग्रेस प्रतिनिधि थे । उन्होंने यशपाल को अपना सेक्रेटरी बना लिया और अपनी व्यायामशाला में भी नियुक्त कर दिया । मगर जल्दी ही यशपाल को यह काम भी छोड़ना पडा । इसके बाद उन्हें किसी कम्पनी में एक क्लर्क की नौकरी मिली । एक महत्वाकाँक्षी और सम्पन्न जीवन बिताने की कामना रखने वाले यशपाल जी के स्वाभिमान को ठेस तो अवश्य लगी, लेकिन किस्मत के आगे किसकी चलती है ? उनकी माँ भी अपनी नौकरी छोड़कर लाहौर आ चुकी थीं, अत: दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए कोई न कोई काम तो करना जरूरी था । उन्होंने अपनी नौकरी और राजनीति दोनों में सामंजस्य बिठाने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु अंत में राजनीतिक गतिविधियों की ओर ही झुकते गये ।

सन् 1928 में पंजाब के लाहौर शहर के राजनीतिक वातावरण में बहुत उथल-पुथल मची हुई थी । साइमन कमीशन का लाहौर में घोर विरोध हो रहा था । पुलिस द्वारा किए गए लाठीचार्ज में घायल हुए लाला लाजपत राय को देखकर भगतसिंह, सुखदेव आदि क्रांतिकारियों के साथ-साथ यशपाल भी उत्तेजित हो उठे । इसका बदला लेने के लिए उन्होंने अंग्रेज अफसर सांडर्स को गोली मार दी । कई जगहों पर क्रांतिकरियों की गिरफ्तारी होने लगी । यशपाल एक गुप्त बम फैक्टरी में भी कार्य करते थे । सरकार को जब इस फैक्टरी के बारे में पता चला तो उन्होंने उसपर धावा बोल दिया । लेकिन यशपाल बचकर निकल भागे । यहीं से यशपाल के क्रान्तिकारी जीवन का आरंभ हुआ । कुछ दिनों तक जम्मू में रहने के बाद वे लाहौर लौट आए और पुन: क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गए । इसी समय उनका परिचय प्रकाशवती से हुआ, जो कमला के रूप में क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेती थीं । सन् 1929 में यशपाल ने अंग्रेज वायसराय की ट्रेन के नीचे बम विस्फोट करके अपनी क्रांतिकारी सक्रियता का परिचय दिया । उनके कई साथियों को गिरफ्तार किया जा रहा था । भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी जा चुकी थी । चंद्रशेखर आजाद ने उस दल का नेतृत्व संभाला । मगर सन् 1931 में चंद्रशेखर आजाद की शहादत से उस दल को बहुत बड़ा झटका लगा । यशपाल ने बड़ी ही कुशलता से दल को संभाला, जिसे देखते हुए उनके साथियों ने उन्हें अपना कमांडर नियुक्त कर दिया । मगर यशपाल ज्यादा दिनों तक इस जिम्मेदारी को निभा नहीं सके । उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अनेकों गंभीर आरोप लगाकर 14 वर्ष के कारावास की सजा दे दी गई । इसी समय दिल्ली में प्रकाशवती को भी गिरफ्तार कर लिया गया । कारावास की लम्बी अवधि में वे अध्ययन-मनन करके अपने साहित्यिक जीवन को दृढ़ बनाने की दिशा में चल पड़े । बंगला, फ्रेंच, इतालवी आदि कई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया । यही नहीं, उन्हें अपना क्रांतिकारी जीवन महत्वहीन लगने लगा और उनका झुकाव मार्क्सवादी विचारधारा की ओर होने लगा । उनकी अस्वस्थता को देखते हु उन्हें सुल्तानपुर सैनिटोरियम जेल भेजा गया । स्वस्थ होने के बाद उन्हें बरेली के केंद्रीय जेल में भेज दिया गया । अगस्त 1936 में उनका विवाह जेल में ही प्रकाशवती के साथ हुआ । सन् 1938 में कांग्रेस मंत्रिमंडल बन जाने के कारण, यशपाल को जेल से रिहा कर दिया गया । 

26 दिसम्बर सन् 1976 को यशपाल की मृत्यु हो गई । 

यशपाल के उपन्यास और अन्य रचनाएँ

हिंदी साहित्य को नई दिशा देने वाले यशपाल ने अपने साहित्य के द्वारा क्रांति की जो मशाल जलाई, वह स्वाधीनता प्राप्ति के साथ-साथ समाज में बदलाव लाने की मशाल थी । स्वाधीनता पूर्व पंजाब में होनेवाली गतिविधियों के यशपाल प्रत्यक्ष द्रष्टा एवं भोक्ता रहे । पंजाब में और पंजाब के बाहर रहकर भी उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाई । एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने जो कुछ देखा, सहा और किया, उन सबको एक साहित्यकार के रूप में अपनी रचनाओं में यथार्थवत् अंकित किया । 

यशपाल के द्वारा लिखे गए उपन्यासों की संख्या बारह है, जिनमें 'दिव्या', 'देशद्रोही', 'दादा कामरेड', 'झूठा सच’, ‘अमिता’, ‘मनुष्य के रूप' आदि विशेष उल्लेखनीय हैं और उन्होंने लगभग तीन सौ से ज्यादा कहानियाँ भी लिखी हैं, जो 'पिंजरे की उड़ान', 'फूलों का कुर्ता', 'धर्मयुद्ध’, ‘सच बोलने की भूल' आदि कहानी-संग्रहों में संग्रहीत हैं । 'चक्कर क्लब' उनका प्रसिद्ध व्यंग्य- संग्रह है । इसके अतिरिक्त उन्होंने 'सिंहावलोकन' शीर्षक से संस्मरण और ‘गांधीवाद की शवपरीक्षा' नामक निबंध को लिखकर भी विशेष ख्याति अर्जित की । 

यशपाल का पंजाबी चेतना प्रधान उपन्यास है “झूठा सच” भाग-1 (वतन और देश) तथा भाग -2 (देश का भविष्य) ।

यशपाल के सम्मान एवं पुरस्कार

यशपाल जैसे कालजयी लेखक को उनकी अमर कृतियों के लिए किसी पुरस्कार की भूख नहीं थी । मगर समाज के लिए लिखने वाले इस अमर लेखक के प्रति अपनी श्रद्धा स्वरूप उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया । 

‘देव पुरस्कार' (1955), ‘सोवियत लैण्ड नेहरु पुरस्कार' (1970), पद्म भूषण (1970) ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक' (1971), साहित्य अकादमी पुरस्कार (1976) आदि पुरस्कार इन्हें प्राप्त हुए हैं । 

इसके अतिरिक्त उन्हें कई उपाधियाँ भी दी गईं – साहित्यवारिधि, डी. लिट्, साहित्य वाचस्पति आदि । 

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