गुरु तेग बहादुर जी का जीवन परिचय

नौवें गुरु तेग बहादुर जी का जन्म सन् 1621 में हुआ था । वे गुरु हरगोविंद के पुत्र थे । गुरु तेग बहादुर जी का विवाह करतारपुर के निवासी लालचंद की सुपुत्री गुजरी जी के साथ हुआ । सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी को जन्म देने का सौभाग्य माता गुजरी को प्राप्त है । सन् 1664 में वे गुरु-गद्दी पर आसीन हुए । आनंदपुर शहर बसाने का श्रेय उन्हीं को जाता है । समय-समय पर देश और धर्म की रक्षा के लिए वे संघर्षरत रहे । उनके कट्टर विरोधी थे उनके सौतेले भाई धीरमल । धीरमल ने उनकी हत्या करवाने का प्रयास किया, परंतु असफल रहे । बाद में गुरु जी ने उसे क्षमा कर दिया । गुरु तेग बहादुर जी ने दूसरों की भलाई के लिए बलिदान देने का पाठ पढ़ाया और स्वंय भी इसकी मिसाल बने । औरंगजेब एक कट्टर धर्मावलंबी था । उसने हिंदुओं पर बहुत अत्याचार किए । कश्मीर के पंडितों को जनेऊ धारण करने तथा तिलक लगाने पर प्रतिबंध लगाया । इससे आहत कश्मीरी पंडित गुरु जी की शरण में आए । हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए गुरु जी औरंगजेब से मिलने गये । औरंगजेब ने गुरु इस्लाम स्वीकार करने को कहा, जिसे गुरु जी ने अस्वीकार कर दिया । क्रुद्ध होकर औरंगजेब ने उनकी हत्या का आदेश दिया । गुरु जी ने कहा कि कोई तलवार उनकी गर्दन नहीं काट सकती । उन्होंने कागज के टुकड़े पर कुछ लिखकर अपनी गर्दन में बाँध लिया । जल्लाद ने उनकी गर्दन काटी तो धागे से बँधे कागज पर लिखा देखा 'सीस दिया पर सिर न दिया' । गुरु जी के इस आत्मबलिदान को देखते हुए उन्हें 'हिंदी की चादर' की उपाधि दी गई । एक महामानव के रूप में उन्होंने न केवल सिख धर्म की, बल्कि हिंदू धर्म की भी रक्षा की ।

‘आदिग्रंथ' में उनके द्वारा रचित 115 श्लोक और पद संकलित हैं । अपनी वाणी में उन्होंने संसार के प्रति समत्व दृष्टि अपनाने पर बल दिया है । संसार को अनित्य मानकर निराभिमान और सत्यपरायण जीवन जीने का संदेश उनकी रचनाओं में मिलता है । उनकी रचनाओं में अलौकिक अनुभूतियों का महान कोश, भक्ति का उच्छल स्रोत, ज्ञान का विमल प्रकाश और वाक् शक्ति का मधुर प्रयोग देखा जा सकता है ।

दौरान हैजा और चेचक जैसी बीमारियों का प्रकोप फैल गया । जात-पांत और ऊँच-नीच की परवाह किए बिना उन्होंने लोगों की सेवा की । इस क्रम में वे स्वयं भी चेचक के शिकार हो गए । उन्होंने लोगों को निर्देश दिया था कि कोई भी उनकी मृत्यु पर नहीं रोएगा । सन् 1664 में, आठ वर्ष की अल्पायु में ही उनका देहांत हो गया । दिल्ली में जिस आवास में वे रहे, वहाँ एक ऐतिहासिक गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब है ।

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