भारतीय वाडमय में पालि साहित्य का विशेष महत्व है। या यह भी कह सकते है कि भारतीय इतिहास को पालि - साहित्य ने ही प्रकाशित किया है। यदि पालि- साहित्य न होता तो ईसा पूर्व पाँचवी शताब्दी से ईसा तक का भारतीय इतिहास लुप्त हो गया होता । पालि - साहित्य की सहायता से ही भारत का निश्चयात्मक इतिहास का प्रारम्भ माना जा सकता है। इसके साथ ही इसी साहित्य से भगवान बुद्ध, उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म एवं संस्थापित संघ की प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है।
पालि-साहित्य का क्षेत्र पालि शब्द के अर्थ पर निर्भर करता है। प्रारम्भ में पालि शब्द का अर्थ बुद्ध - वचन या बुद्ध वचनों का संग्रह (त्रिपिटक) था। अतः पालि - साहित्य के अन्तर्गत बुद्ध वचनों का संग्रह अर्थात मूल त्रिपिटक एवं अट्ठकथा साहित्य भी आता था। भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् बौद्ध भिक्षुओं ने पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ बुद्ध वचनों से सम्बद्ध साहित्य को सुरक्षित रखा । किन्तु जब त्रिपिटक एवं उसके भाष्यात्मक साहित्य का कार्य पूर्ण हो गया तो बौद्ध भिक्षुओं ने बुद्ध वचनों की भाषा में काव्य, अलंकार शास्त्र, व्याकरण, छन्द शास्त्र के ग्रन्थों की भी रचना की । इसका साहित्य मुख्य रूप से छः भागों में विभक्त किया गया –
- त्रिपिटक
- अनुपिटक
- अर्थकथा (अट्टकथा)
- वंश
- काव्य तथा व्याकरण
- छन्दःशास्त्र, कोश ।
व्युत्पत्ति
पालि शब्द की अनेक व्युत्पतियाँ मिलती है
- परियाय पालियाय - पालियाय - पालि ।
- ‘पक्ति' शब्द से ‘पालि' शब्द की व्युत्पत्ति हुई।
- ग्राम वाची 'पल्लि' शब्द से 'पालि' बना।
- पाकट - प्राकृत - पाझउ - पालि - पाञल।
‘अभिधानप्पदीपिका' में
पा पालेति, रक्खतीति पालि अर्थात जो रक्षा करती है या पालन करती है वह पालि है । किसकी रक्षा करती है? तो यहाँ तात्पर्य बुद्ध वचनों की रक्षा करने से हैं जो त्रिपिटक में संग्रहित है। इससे इसके नाम की सार्थकता सिद्ध होती है । पालि शब्द की इस सापेक्ष्य व्युत्पत्ति को आज प्रमाणित माना जाता है।
'पालि' शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग आचार्य बुद्धघोष (चौथी-पांचवी शताब्दी ईसवी) की अट्टकथाओं और उनके 'विशुद्धिमग्ग' में मिलता है। आचार्य बुद्धघोष ने दो अर्थों में इस शब्द का प्रयोग किया
1) बुद्ध वचन या मूल त्रिपिटक के अर्थ में2) 'पाठ' या मूलत्रिपिटक के पाठ के अर्थ में।
'पालि' शब्द का प्रयोग बुद्ध वचन के लिए किया गया है । 'पालि' शब्द के अर्थ और निरूक्ति के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण स्थापनाएँ की गई जिनमें तीन अधिक प्रभावशाली है।
प्रथम स्थापना, इस बात को महत्व देती है कि बुद्धघोष की अट्ठकथाओं में ‘पालि’ शब्द बुद्धवचन या 'मूलत्रिपिटक' के अर्थ को प्रस्तुत करता है इसलिए उसका मूल रूप में भी कोई ऐसा शब्द रहा होगा जो बुद्ध के काम में भी इसी अर्थ को सूचित करता हो ।
द्वितीय स्थापना, इसी प्रकार 'पालि' शब्द के 'पाठ' अर्थ को प्रमुखता तृतीय स्थापना, संस्कृत शब्द 'पालि' जिसका अर्थ 'पंक्ति' है, को प्रधानता देकर उसे बुद्धघोष आदि आचार्यों के द्वारा प्रयुक्त 'पालि' शब्द के अर्थों के साथ सामंजस्य करने का प्रयत्न करती है।
भाषा के आधार पर इतिहास में पालि
भारतीय भाषाओं के इतिहास को तीन युगों में विभाजित किया गया
1) प्राचीन भारतीय आर्य- - भाषा युग (वैदिक युग से 500 ईसवी पूर्व तक)2) मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा - युग (500 ईसवी पूर्व से 1000 ईसवी तक )
3) आधुनिक भारतीय आर्य - भाषा - युग (1000 ईसवी से अब तक)
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा युग में एक ओर वेद की भाषा की विविधता को नियमित किया गया, उसे एकरूपता दी गई जिसके परिणामस्वरूप एक नई भाषा संस्कृत का विकास हुआ। संस्कृत उस समय की अन्य प्रान्तों में बोलियों के रूप में भी विकसित हुई, उस समय राष्ट्रीय और प्रान्तीय स्तर पर अन्य भाषाओं, उपभाषाओं और बोलियों का सम्मिश्रण हुआ, उसी में से एक 'पालि' भी है, बुद्ध ने अपने उपदेश लोक व्यवहार की भाषा में दिये जो उस समय लोक व्यवहार में बोली जाती थी ।
यहाँ तीन चरणों में बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार ‘पालि´ तथा अन्य प्रान्तीय भाषाओं का विकास हुआ
- पालि और अशोक की धर्मलिपियों की भाषा (500 ईसवी पूर्व से 1 ईसवी पूर्व तक)
- प्राकृत भाषाएँ (1 से 500 ईसवी तक )
- अपभ्रंश भाषाएँ (500 ईसवी से 100 ईसवी तक )
अशोक के पूर्ववर्ती समय में भी बौद्ध आचार्यों एवं शासकों ने बौद्ध-संगीतियों का आयोजन करके, बुद्ध वाणी का संकलन एवं पठालोचन किया। पालि ग्रन्थों के अनुसार ऐसी नौ संगीतियाँ हुई जिसमें बुद्ध वाणी की सुरक्षा एवं पाठ - संशोधन की व्याख्या की गई इनमें तीसरी संगीति अशोक संगीति कहलाती है, जिसमें बुद्ध वाणी का व्यवस्थित संग्रह एवं सम्पादन त्रिपिटकों के रूप में हुआ ।
पालि भाषा साहित्य को बौद्ध धर्म से और बौद्ध धर्म को पालि भाषा- साहित्य से अलग नहीं देखा जा सकता । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भगवान बुद्ध द्वारा माध्यम बनाने से पूर्व पालि भाषा एक अल्प ज्ञान और साधारण भाषा थी। किन्तु जब इसे बौद्ध धर्म की भाषा बनाया गया और बौद्ध धर्म ने विस्तार के नये-नये शिखर छूने का प्रयत्न किया तो इसके साथ ही पालि भाषा का भी सतत् उत्कर्ष हुआ। यह अपने क्षेत्र से आगे बढ़कर न केवल स्वदेश में अपितु विदेशों में भी लोकप्रिय हुई।
10वीं से 19वीं शती तक इस भाषा के श्रीलंका और बर्मा में अध्ययन केन्द्रों की स्थापना हुई। बर्मा में छठी संगीति का आयोजन हुआ तथा अनुपिटक से सम्बद्ध बहुत सा साहित्य श्रीलंका में लिखा गया । भिक्षु जगदीश कश्यप के प्रयत्न से नवनालन्दा बिहार की स्थापना हुई । त्रिपिटकों का देवनागरी में प्रकाशन हुआ । सर्वप्रथम कलकत्ता, बम्बई के विश्वविद्यालयों में इस विषय को पाठ्यक्रम में स्थान मिला।