महमूद गजनी ने भारत पर आक्रमण क्यों किया इसका भारत पर क्या प्रभाव पड़ा?

महमूद का जन्म ६७१ ई० में हुआ था। उनकी माता जाबुलिस्तान के एक सरदार की कन्या थीं। किशोरावस्था में ही उसने हिरात, खुरासान, नेशापुर आदि के विरूद्ध तथा पंजाब के जयपाल के खिलाफ युद्धों में अपने पिता को सक्रीय सहयोग दिया था । वह युद्धकला एवं राजकौशल में अत्यंत प्रवीण था। सुबुक्तगीन की मृत्यु के पश्चात् गजनी के अमीरों ने उसके छोटे भाई इस्माइल को गद्दी पर बैठा दिया । किन्तु जल्द ही महमूद ने इस्माइल को पराजित कर गद्दी पर अपना अधिकार कर लिया ।

महमूद का राज्यारोहण

सुबुक्तगीन की मृत्यु के एक वर्ष बाद गृहयुद्ध में सफलता के पश्चात् ६६८ ई० महमूद गजनवी गद्दी पर आरूढ़ हुआ । राज्यारोहण के समय उसकी अवस्था सत्ताईस वर्ष की थी । में उस समय उसके राज्य में अफगानिस्तान तथा खुरासान सम्मिलित थे ।

गजनी का उत्थान

इस वंश का एक उल्लेखनीय शासक अहमद था । उसने अलप्तगीन नामक एक तुर्क दास को खरीदा। उसकी योग्यता को देखकर अहमद ने उसे बल्ख का हाकिम ( प्रान्तीय शासक ) नियुक्त कर दिया। आगे चलकर इसी अलप्तगीन ने ६३२ ई० में गजनी में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

अलप्तगीन की मृत्यु के पश्चात् उसके दामाद और दास सुबुक्तगीन ने ६७७ ई० में गजनी पर अपना अधिकार कर लिया। उसने लगभग बीस वर्षों तक शासन किया ।

महमूद के प्रारम्भिक अभियान

महमूद अत्यन्त प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी युवक था । वह अपने छोटे से राज्य को एक विशाल साम्राज्य के रूप में परिणित करना चाहता था । मध्य एशिया के सामानी वंश के गृहयुद्ध का लाभ उठाकर उसने सामानी सुल्तान से बलपूर्वक खुरासान को छीन लिया। अब वह गजनी का स्वतंत्र शासक बन गया और उसने सुल्तान की पदवी धारण की। बगदाद के खलीफा अल-कादिर बिल्लाह ने उसके पद को मान्यता प्रदान की और उसे यमीन-उद्-दौला और यमीन-उल-मिल्लाह की उपाधियों से विभूषित किया।

महमूद ने अपने शक्तिशाली सेना, रण कौशल सफल नेतृत्व के बल पर पड़ोसी राज्य पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया। इस प्रकार उसने ६६६ ई० में खुरासान, १००२ ई० में सीस्तान, १०१२ ई० गरशिस्तान, १०१७ ई० मं ख्वारिज्म और उसके बाद १०१६ - २० ई० में गोरे राज्यों को परास्त कर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस प्रारम्भिक सफलताओं से उत्साहित होकर महमूद ने अब अपना ध्यान भारत की ओर आकृष्ट किया। कहते हैं कि खलीफा को प्रसन्न करने के लिए उसने प्रतिज्ञा की कि वह प्रतिवर्ष भारत के मूर्तिपूजक हिन्दूओं के विरूद्ध धर्मयुद्ध करेगा।

महमूद गज़नवी के आक्रमण के समय भारत की स्थिति

विदेशी आक्रमण के सन्दर्भ में किसी देश की सामाजिक राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति का महत्व काफी अधिक होता है । अगर इन दृष्टिकोणों से देश की स्थिति मजबूत रहती है तो आक्रमणकारियों की एक नही चलती किन्तु, ठीक इसके विपरीत यदि देश कमजोर होता है तो आक्रमणकारियों की बन आती है। दुर्भाग्यवश जब इस देश पर महमूद गजनवी का आक्रमण हुआ उस समय भारत की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी । महमूद की सफलताओं में इसका बहुत बड़ा सहयोग था ।

राजनीतिक स्थिति

महमूद के आक्रमणकाल में भारत की राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं थी । इस समय भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था । विभिन्न राज्यों के बीच आपसी सहयोग देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता की भावना की कमी थी। सभी शासक अपने समक्ष दूसरे शासक को तुच्छ समझते थे। 

गज़नवी आक्रमण समय मुल्तान तथा सिन्ध पर अरबों का राज्य था । भारत हिन्दू शासक इस क्षेत्र के मुस्लिम शासकों के प्रति उदारता की नीति का पालन करते थे । उन्हें अपने धर्म का प्रचार करने तथा नये लोगों को मुसलमान बनाने की छूट थी । शेष भारत में हिन्दू राजवंशों का शासन था । 

हिन्दू शाही राजवंश के राज्य

उत्तर पश्चिम में हिन्दू शाही वंश का राज्य था । यह चिनाब नदी से हिन्दूकुश पर्वत तक फैला हुआ था। काबुल, पेशावर, ओहिन्द, लाहौर आदि इस राज्य के मुख्य नगर थे । शाही वंश प्रारम्भ में बड़ा शक्तिशाली था । इस राजवंश ने अकेले ही दो सौ वर्षों तक अरब आक्रमण का सफलता पूर्वक सामना किया था । दशवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस वंश का शासक जयपाल था। वह एक वीर सैनिक तथा योग्य शासक था। उसके राज्य की स्थिति ऐसी थी कि गजनी आक्रमणकारियों का पहला झोंका उसे ही सहना पड़ा।

कश्मीर का राज्य

उत्तर में काश्मीर का स्वतन्त्र राज्य था । यहाँ अनेक वंशों का उत्थान - पतन हो चुका था। दशवीं शदीं के अन्त में दिद्दा नामक स्त्री का शासन था । उसने १००३ ई० तक काश्मीर पर शासन किया। उसके शासनकाल में काश्मीर में अव्यवस्था फैल गयी थी और देश की स्थिति शोचनीय हो गयी थी ।

कन्नौज का राज्य

गज़नवी आक्रमण काल में कन्नौज का राज्य काफी प्रभावशाली था । लगभग ८३६ ई० में कन्नौज में शक्तिशाली प्रतिहार राजवंश की नींव डाली गयी थी। इस वंश में वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, महीपाल आदि प्रतापी शासक हुए। राष्ट्रकूट इन्द्र तृतीय ने प्रतीहार शासक महीपाल को पराजित कर प्रतिहारों की शक्ति पर गहरा आघात किया । इस वंश का अन्तिम राजा राजपाल था । अपने प्रभुत्वकाल में प्रतिहारों ने यद्यपि सफलतापूर्वक अरबों के विस्तार को रोक के रखा, किन्तु वे गजनी के आक्रमणकारियों से अपने देश की रक्षा करने में असमर्थ रहे ।

बंगाल के पालवंश का राज्य

इस काल में बंगाल में शक्तिशाली पालवंश का राज्य था । प्रारम्भ में इस वंश के शासक शक्तिशाली प्रमाणित हुए। देवपाल इस वंश का अन्तिम प्रतापी शासक था। उसके उत्तराधिकारी अयोग्य एवं दुर्बल थे । अतः उनके शासनकाल में बंगाल का तेजी से पतन हुआ। इस काल में प्रतिहार शासकों के साथ उनके भीषण संघर्ष हुए। इसके चलते उनकी शक्ति और क्षीण हो गयी किन्तु, बंगाल दूरी के कारण गजनी आक्रमणों से मुक्त रहा ।

उत्तर भारत के अन्य राज्य

उपर्युक्त उत्तर भारत में विभिन्न छोटे-छोटे राज्य थे। प्रतिहार वंश के पतन होने पर तीन नये वंशों का उदय हुआ- गुजरात में चालुक्य, बुन्देलखण्ड में चन्देल और मालवा के परमार । परमार शासक मुँज (६७४ - ६७ ई०) तो इसी संघर्ष में मारा गया। महमूद का समकालीन परमार शासक भोज (१०१८ - १०६० ई० ) था । उसकी अभिरूचि युद्ध की अपेक्षा कला एवं साहित्य में अधिक थी। गुजरात में चालुक्य वंश का राजा भीम ( १०२० - १०६० ई०) महमूद का समकालीन था ।

दक्षिण के राज्य

इस काल में दक्षिण भारत भी अनेक छोटे-बड़े राज्यों में बँटा हुआ था । इन राज्यों के बीच भी निरन्तर संघर्ष होते रहे । सम्पूर्ण दक्षिण में अशान्ति और अव्यवस्था की स्थिति बनी रही अतः अर्थव्यवस्था तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में इस काल में दक्षिण का उल्लेखनीय विकास नही हो पाया। दक्षिण के पूर्ववर्ती चालुक्यों और राष्ट्रकूटों में प्रभुत्व के लिए दीर्घकाल तक संघर्ष हुए। महमूद के आक्रमण काल में दक्षिण के ये राज्य आपसी संघर्ष में लगे हुए थे।

इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त था । इन राज्यों में एकता, सहयोग, देश प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना के स्थान पर ईर्ष्या, द्वेष एवं संघर्ष की प्रधानता थी। शासन का स्वरूप प्रायः सामन्त शाही राजतन्त्र था। साधारण जनता राज्य के कार्यों से उदासीन हो गयी थी । महमूद गजनवी ने इसका पूरा-पूरा लाभ उठाया ।

सामाजिक स्थिति

भारतीय समाज में इस काल में विभिन्न बुराइयों ने भी आक्रमणकारियों को सहयोग दिया। समाज में संकीर्णता आ गयी थी। समाज में ऊँच-नीच, अमरी-गरीब, छूआ-छूत आदि का गहरा भेदभाव था । उच्च वर्ग के लोग नीच वर्ग के साथ अभद्र व्यवहार करते थे । अमीरों के द्वारा गरीबों का शोषण किया जा रहा था। समाज में ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का सर्वाधिक सम्मान था । शूद्रों तथा चाण्डालों की स्थिति दयनीय हो गयी थी। समाज में स्त्रियों की स्थिति गिर गयी थी । वह केवल भोग विलास का साधन मात्र बनकर रह गयी थी । बाल विवाह, विधवा विवाह निषेध, बालिका हत्या, बहुविवाह, पर्दे की प्रथा तथा सती-प्रथा आदि प्रथाएं स्त्री समाज को घुन की तरह नष्ट कर रही थी। लोगों में देशभक्ति की भावनाओं का लोप हो चुका था । भारत वासी कूप- मण्डूक बन गये थे । उनका विश्वास था कि एक देश, राष्ट्र, धर्म, जाति के रूप में विश्व श्रेष्ठतम थे। प्रसिद्ध अरब विद्वान अलबेरूनी लिखता है कि हिन्दुओं के पूर्वज इतने संकीर्ण विचारों के न थे जितने इस युग (११वीं शताब्दी) के लोग थे । उसको यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ था कि “हिन्दू लोग यह नहीं चाहते थे कि जो एक बार अपवित्र हो चुका है, उसे पुनः शुद्ध करके अपना लिया जाय।”

आर्थिक स्थिति

यद्यपि आर्थिक दृष्टि से भारत सम्पन्न था। किन्तु दुर्भाग्यवश उसकी सम्पन्नता भी उसके दुःख का कारण बन गयी । कृषि विभिन्न उद्योग धन्धे तथा वाणिज्य व्यवसायों की उन्नति के कारण देश में धन-दौलत की काफी वृद्धि हो गयी थी । देवालयों में आधुनिक बैंकों की भाँति अपार सम्पति एकत्र थीं भारत विदेशी आक्रमणकारियों के लिए 'सोने की चिड़िया' थी। महमूद के भारतीय आक्रमण का प्रधान उद्देश्य भी भारतीय सम्पत्ति का अपहरण करना ही था। एक ओर तो हम भारतीय सम्पन्नता को देखते हैं दूसरी ओर भारतीय अर्थ - व्यवस्था की बुराइयां देखने को मिलती है । राजा, सामन्त, दरबारी, व्यापारी तथा अधिकारीगणों का जीवन समृद्ध एवं विलास पूर्ण था। दूसरी ओर कृषक, मजदूर आदि अभाव में नही रहते हुए भी सुख चैन की जिन्दगी नही जी सकते थे। उन्हें कठोर परिश्रम करना पड़ता था तब जाकर दो वक्त की रोटी जुटा पाते थे । इस प्रकार की आर्थिक विषमता सदा ही हानिकारक साबित होती हैं।

धार्मिक स्थिति

धार्मिक क्षेत्र में भी भारत में उच्च आदर्शो का हम इस काल में अभाव पाते हैं। अन्धविश्वास, प्रबल मूर्तिपूजा, मन्दिर निर्माण, कर्मकाण्ड, व्रत, उपवास, उत्सव आदि पर काफी जोर दिया जाता था । हिन्दू धर्म में अनेक शक्तिशाली सम्प्रदायों का विकास हुआ । इनके बीच में पारस्परिक संघर्ष था। इस काल में बाममार्गी सम्प्रदाय अधिक प्रभावशाली हो गया था। इसके अनुयायी सुरापान, मासांहार, व्यभिचार आदि दुर्व्यसनों में लिप्त रहते थे। ये 'खाओ पियो और मौज करो' वाले सिद्धान्त के समर्थक थे । नालन्दा जैसे शैक्षिक संस्थाओं में भी इन दूषित भावनाओं का प्रदर्शन देखने को मिलता है । मन्दिरों एवं मठों में धन का बाहुल्य था। यहां देवदासियां तथा अन्य स्त्रियां भी रहती थीं । साधु, सन्त, सन्यासी श्रद्धा की अपेक्षा उपहास के पात्र बन गये। इस काल में बौद्ध धर्म का पतन हुआ। धर्म की यह स्थिति भी भारत में इस्लाम धर्म के प्रचार में सहायक हो सकती थी ।

सांस्कृतिक स्थिति

इस युग में हमारे जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में पतन आया। शिक्षा एवं साहित्य पर भी दूषित वातावरण का प्रभाव पड़ा । साहित्य की सजीवता और सुरुचि का अन्त हो गया । भारतीय स्थापत्य कला, चित्रकला तथा अन्य ललित कलाओं पर भी बुरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता हैं । संक्षेप में, किसी योग्य एवं महत्वाकांक्षी आक्रमणकारी के लिए भारत में परिस्थितियां बिल्कुल अनुकूल थीं। देश की पतोन्मुखी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्थिति आक्रमणकारियों को निमंत्रण दे रही थीं। उन्होंने इसी स्वर्ण अवसर का लाभ उठाया और भविष्य में भारत में एक विस्तृत मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना कर ली ।

महमूद गजनी ने भारत पर आक्रमण क्यों किया?

महमूद गज़नवी ने १००० ई० से लेकर १०२७ ई० तक भारतवर्ष पर सत्रह बार आक्रमण किये और देश के विभिन्न क्षेत्रों में लूटपाट मचायी । आखिर उसका इन आक्रमणों के पीछे क्या उद्देश्य था ? इस प्रश्न को लेकर विद्वानों के बीच गहरे मतभेद हैं। उनका संक्षेप में हम यहाँ उल्लेख करेंगे। प्रो० हबीब, डॉ० मुहम्मद नाजिम और डॉ० एस०एम० जाफर जैसे विद्वान महमूद के आक्रमण का प्रधान उद्देश्य लूट का लोभ ही बताते हैं । इस उद्देश्य को छिपाने के लिए उसने धर्म का केवल आड़ लिया था। श्री हैबल का कथन है कि "यदि बगदाद में उतना धन मिलने की संभावना होती, जितना कि सोमनाथ में थी तो महमूद उसे भी निर्दयता से लूटता।" बी०ए० स्मिथ' एवं डॉ० ईश्वरी प्रसाद तथा प्रो० एस०आर० शर्मा का भी मत है कि भारत में सदियों से संचित धन को लूटना ही उसका प्रधान उद्देश्य था । ऐसा कुछ खास कारणों से था

महमूद का राज्य भारत की अपेक्षा कम सम्पन्न था। वह इसकी सम्पन्नता में वृद्धि करना चाहता था। साम्राज्य के शासन को सुचारू और संगठित रूप से चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी। उसे भारत की सम्पन्नता, विशेष रूप से वर्षो से मन्दिरों में संचित विपुल धनराशि की सूचना थी । वह इसे प्राप्त करना चाहता था ।

महमूद मध्य एशिया में एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था। पुनः उत्तर में उसे तुर्क आक्रमणकारियों से सामना करना पड़ रहा था। इसके लिए भी धन की आवश्यकता थी। भारत की लूट आवश्यक धनराशि का अच्छा साधन थी ।

महमूद तुर्क एवं अन्य लड़ाकू जातियों को अपनी सेना में भर्ती करता था । भारत की लूट उनके लिए अच्छा प्रलोभन था । वे सहर्ष ही युद्ध करते थे । इस प्रकार धनलिप्सा ने महमूद को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया ।

अनेक इतिहासकारों का मत है कि महमूद के आक्रमण का उद्देश्य भारत में इस्लाम धर्म का प्रचार करना था । उसका दरबारी लेखक उत्बी ने लिखा है कि भारत पर उसका आक्रमण 'जिहाद' के रूप में था । इसीलिए महमूद ने मूर्तियों को तोड़ा और मन्दिरों को लूटा। उन्होंने उसे "अल्लाह के रास्ते पर चलने वाले एक ऐसे मुजाहिद के रूप में प्रस्तुत किया है जिसके पद चिह्नों का अनुसरण कर सभी पाक मुसलमान बादशाह गर्व का अनुभव करेंगे।" डॉ० नॉजिम का मत है कि सोमनाथ के मन्दिर की क्षति मूर्ति पूजा पर इस्लाम की चमत्कारपूर्ण विजय थी और धर्म रक्षक के रूप में समस्त मुस्लिम संसार में महमूद की प्रशंसा की गई।

कुछ आधुनिक मुस्लिम इतिहासकार महमूद के आक्रमण का उद्देश्य धार्मिक था, यह मानने को तैयार नही हैं। उनका कहना है कि महमूद ने इस्लाम के प्रचारार्थ भारत पर आक्रमण नही किया था। उत्बी के लेख से यह प्रमाणित होता है कि महमूद काफिरों के देश भारत में इस्लाम धर्म का प्रचार करने के लिये आक्रमण किया था। अलबेरूनी भी ( जो महमूद का समकालीन था ) इस मत को स्वीकार करता है । महमूद कट्टर सुन्नी मुसलमान था, इसमें कोई आश्चर्य नही कि इस्लाम का प्रसार उसके आक्रमण का मुख्य उद्देश्य रहा हो । लेनपूल ने ऐसा ही माना है ।

कुछ विद्वानों का मत है जब ६६६ ई० में खलीफा ने महमूद सुल्तान स्वीकार कर उसे उपाधियों से अलंकृत किया तब महमूद ने उसे प्रतिवर्ष भारत पर आक्रमण करने का वचन दिया था। भारत पर अनेकों बार बाक्रमण करके उसने अपना वचन निभाया।

महमूद कट्टर सुन्नी तो था ही, वह लालची भी था। धर्मान्धता ने उसे मन्दिरों और मूर्तियों की विध्वंश करने के लिए प्रेरित किया । मथुरा और भुवनेश्वर के मंदिरों को उसने विंध्वश किया था। सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण करने से महमूद की प्रतिष्ठा मुसलमानों की दृष्टि में काफी बढ़ गयी । "

महमूद गज़नवी का आक्रमण भारतीयों का प्रतिरोध

सीमान्त दुर्ग पर आक्रमण

महमूद ने १०,००० ई. में अपने पिता के प्रतिद्वन्दी और शत्रु जयपाल के राज्य के सीमान्त दुर्गों पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन कर लिया ।

पंजाब पर आक्रमण

महमूद का प्रथम प्रसिद्ध आक्रमण जयपाल और महमूद की सेनाओं में पेशावर के निकट २८ नवम्बर १००१ ई० को भीषण संग्राम हुआ। जयपाल ने शत्रु सेना का वीरता से सामना किया, परन्तु विजयश्री महमूद को मिली। जयपाल को उसके सहयोगियों के साथ बन्दी बना लिया गया, उन्हें अपमानित किया गया, शारीरिक यातनाएं दी गयी। जयपाल ने विजेता को पच्चीस सहस्त्र दिरहम पच्चीस हाथी देकर " अपनी मुक्ति प्राप्त की। इसके बाद महमूद जयपाल की राजधानी वैहन्द तक पहुँचा और नगर को खूब लूटा और अपार धनराशि लेकर गजनी वापस लौट गया। अन्त में महमूद और जयपाल में सन्धि हो गयी जयपाल ने अपार धनराशि महमूद को दी । जयपाल इस अपमान को न सह सका और अग्नि में स्वयं को भस्म कर लिया ।

भेरा पर आक्रमण

१००३ ई० में महमूद ने झेलम नदी के तट पर स्थित भेरा नामक स्थान पर आक्रमण किया। भेरा के शक ने चार दिनों तक बड़ी वीरता से महमूद की सेना से युद्ध किया परन्तु वह पराजित हुआ। विजय के बाद महमूद ने भेरा में खूब लूट-पाट की और अपार धन लेकर गजनी लौट गया। भेरा के शासक ने पराजय, दुःख और लज्जा के कारण आत्महत्या कर ली ।

मुल्तान पर आक्रमण

१००५ ई० में महमूद ने मुल्तान पर आक्रमण किया। मुल्तान का तत्कालीन शासक अब्दुल फतह दाउद था। चूंकि दाउद सिया मतावलम्बी था। महमूद सुन्नी था जो कि काफिरों की तरह उसका नाश करना चाहता था । महमूद की सेना को राह में जयपाल के उत्तराधिकारी आनन्दपाल से युद्ध करना पड़ा। दोनों की सेनाओं के बीच भयंकर संघर्ष हुआ आनन्दपाल भागकर कश्मीर चला गया। फतह दाउद ने बड़ी वीरता से सामना किया, किन्तु पराजित हुआ। मुल्तान को जीतकर महमूद ने दो लाख दिरहम वसूल किये और अब्दुल फतह ने महमूद को बीस सहस्त्र दिरहम वार्षिक कर देने का आश्वासन दिया। महमूद ने मुल्तान से लौटने पर आनन्दपाल के सुखपाल को मुल्तान का राज्यपाल नियुक्त किया। सुखपाल ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया ।

भटिन्डा पर आक्रमण

महमूद गंगा यमुना के दोआब क्षेत्र के प्रसिद्ध नगरों एवं मन्दिरों को लूटकर वहां की विपुल धनराशि को प्राप्त करना चाहता था । भटिन्डा गंगा यमुना की घाटी में प्रवेश करने के मार्ग पर पड़ता था, अतः बिना भटिन्डा पर अधिकार किये महमूद को दोआब पर आक्रमण करना कठिन था। इसलिए उसने १००५ ई० में भटिन्डा पर आक्रमण किया । भटिन्डा का शासक बाजीराय बड़ा ही प्रतापी एवं साहसी व्यक्ति था । तीन दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु अन्त में बाजीराव परास्त हो गया। बाजीराव ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए आत्महत्या कर ली । भटिन्डा के दुर्ग पर महमूद का आधिकार हो गया। मंदिरों को विध्वंस कर मस्जिदों का निर्माण किया और इस्लाम धर्म के प्रचार के लिए अनेक मुल्ला मौलवियों को नियुक्त किया। 

मुल्तान पर आक्रमण

सुखपाल को परास्त कर महमूद ने दाउद को अपने अधीन कर मुल्तान का शासक नियुक्त किया था । दाउद ने स्वतन्त्र होने का प्रयास किया । उसको सीख देने के लिए १०१० ई० में महमूद ने दाउद के विरूद्ध मुल्तान पर आक्रमण किये। युद्ध में महमूद को सफलता मिली । विजयोपरान्त मुल्तान को गजनी के साम्राज्य में मिला लिया गया ।

त्रिलोचनपाल पर आक्रमण

आनन्दपाल के पुत्र और उत्तराधिकारी त्रिलोचनपाल के विरूद्ध महमूद ने १०१३ ई० में आक्रमण किया। किन्तु इसमें उसे विशेष सफलता नहीं मिली । अतः उसे दूसरे वर्ष पुनः आक्रमण करना पड़ा। महमूद के योग्य सैन्य संचालन के कारण त्रिलोचनपाल परास्त हुआ और वह कश्मीर भाग गया। कश्मीर के शासक और त्रिलोचनपाल की सम्मिलित सेना ने महमूद की सेना का सामना किया, किन्तु महमूद पुनः सफल हुआ। शाहियों के विरूद्ध महमूद की यह अन्तिम और निर्णायक सफलता थी। इसके पश्चात् महमूद ने त्रिलोचनपाल की राजधानी नन्दन पर अधिकार कर लिया और वहां तुर्क शासन की स्थापना की ।

थानेश्वर का आक्रमण

थानेश्वर में चक्रवाक स्वामी का अत्यन्त प्रसिद्ध और सम्पन्न मन्दिर था । महमूद १०१४ ई० में थानेश्वर पर आक्रमण करने के लिए बढ़ा। थानेश्वर के शासक ने बड़ी वीरता से सामना किया, किन्तु परास्त होकर भाग गया। थानेश्वर में लूट-पाट और हत्याएं हुए नगर और चक्रवाक स्वामी के मन्दिर को मुस्लिम सैनिकों ने जमकर लूटा। चक्रवाक स्वामी की मूर्ति को उठाकर महमूद साथ ले गया और वहाँ अपमानजनक ढंग से सार्वजनिक स्थान पर फेंक दिया गया। थानेश्वर की लूट से महमूद को अपार सम्पत्ति और हाथी प्राप्त हुए ।

कश्मीर पर आक्रमण

कश्मीर के शासक ने त्रिलोचनपाल और उसके पुत्र भीमपाल को संरक्षण प्रदान किया था। अतः महमूद कश्मीर के शासक से चिढ़ा हुआ था । उसने १०१५ ई० में कश्मीर पर आक्रमण किया, किन्तु उसे विशेष सफलता नही मिली । १०२१ ई० में उसने कश्मीर पर पुनः आक्रमण किया इस बार फिर उसे सफलता नहीं मिली। उसने कश्मीर विजय की कामना का त्याग कर दिया ।

भारत के भीतरी प्रदेश और मथुरा तथा कन्नौज पर आक्रमण

१०१६ ई० में महमूद ने विशाल सेना लेकर सिन्धू तथा यमुना नदियों को पार किया और बुलन्दशहर तक आ धमका। इसके बाद महमूद ने मथुरा की ओर प्रस्थान किया । मथुरा . इस समय दिल्ली का शासक विजयपाल के राज्य में था । मथुरा में उसने खूब लूट मार की । महमूद के दरबारी इतिहासकार उत्बी ने लिखा है कि “महमूद गजनवी ने मथुरा से शुद्ध सोने से बनी पाँच मूर्तियां लूटीं और उनमें प्रत्येक में एक लाख रन जड़े हुए थे, जिसे यदि बाजार में रखा जाता और पचास हजार दीनार उसका मूल्य बताया जाता तो सुल्तान उस मूल्य को कम मानता और बड़ी उत्सुकता से खरीद लेता।" मथुरा और वृन्दावन के नगरों में भी महमूद नृशंसतापूर्वक लोगों की हत्या कर अमानवता का ताण्डव किया । 

मथुरा की लूट के बाद महमूद कन्नौज की ओर प्रस्थान किया । कन्नौज के राठौर राजा जयचन्द को उसे अपना आधिपत्य स्वीकार करने को बाध्य किया । जयचन्द ने महमूद को पचासी हाथी और बहुत सा धन तथा जवाहरात दिये। इसके बाद महमूद मार्ग में अनेक नगरों को लूटता, फूंकता और उजाड़ता हुआ गजनी लौट गया ।

कालिन्जर पर आक्रमण

१०१६ ई० में महमूद ने कालिन्जर पर आक्रमण किया। उसने वहाँ के राजा नन्द को परास्त किया और हिन्दू सेना के नगरों और शिविरों को लूटकर अतुल धन लेकर वह गजनी लौट गया ।

पंजाब पर आक्रमण

१०२१ ई० में महमूद ने एक बार फिर पंजाब पर आक्रमण किये। इस बार उसने पंजाब में सुव्यवस्थित प्रशासन स्थापित किया । अलग-अलग भागों में अपने प्रतिनिधि शासक नियुक्त किए और सामरिक महत्व के स्थानों पर सेनाएं रखी ।

ग्वालियर तथा कालिन्जर पर आक्रमण

१०२२ ई० में महमूद का आक्रमण ग्वालियर तथा कालिंजर पर हुआ। दोनों के शासकों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और उसे बहुत से भेंट दी ।

सोमनाथ पर आक्रमण

महमूद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आक्रमण स्वराष्ट्र के प्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर पर हुआ । १७ अक्टूबर, १०२४ ई० को महमूद अपनी सेना के साथ सोमनाथ पर आक्रमण करने के उद्देश्य से बढ़ा। मार्ग में लूट के लालची बहुत से स्वयं सेवक भी उसके साथ हो लिए । २० नवम्बर को महमूद मुल्तान पहुँचा । जनवरी १०२५ ई० में अन्हिलवाड़ा पहुँचा और सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर पर आक्रमण कर दिया। 

महमूद ने मन्दिर में प्रविष्ट होकर उसकी सम्पत्ति को खूब लूटा । यद्यपि मन्दिर के पुजारियों ने उसे धन आदि का लालच देकर मूर्ति को न तोड़ने का आग्रह किया, किन्तु उसने मन्दिर के शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े कर दिए इन टुकड़ों को उसने मक्का, गजनी और मदीना भेजवा दिया। वहाँ इन टुकड़ों को गलियों और मस्जिदों में लगवाया गया जिससे वे वहाँ आने जाने वाले मुसलमानों के पैरों के नीचे कुचलें जा सके। मूर्तियों को तोड़ने पर उसमें से इतने बहुमूल्य रत्न, मणियाँ और मूल्यवान धातु निकले जिसे देखकर महमूद की आँखें चकाचौंध हो गयी । सोमनाथ की मन्दिर की लूट से उसे लगभग दो करोड़ दीनार के मूल्य के सामान प्राप्त हुए। सोमनाथ की लूट की माल से लदा हुआ महमूद पश्चिम के मार्ग से सिन्ध होता हुआ गजनी की ओर लौट गया ।

मुल्तान के जाटों और खोखरों का आक्रमण

महमूद का १७वाँ और अन्तिम आक्रमण १०२७ ई० में मुल्तान के जाटों और खोखरों पर हुआ। पंजाब के राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने पर इन जातियों की शक्ति काफी बढ़ गयी थी और वे आस-पास के क्षेत्रों में उत्पात मचा रहे थे। जब महमूद सोमनाथ पर विजय प्राप्त कर गजनी लौट रहा था तब इन लोगों ने काफी तंग किया था अतः उनकी शक्ति को कुचलने तथा उनकी धृष्टता को दण्ड देने के लिए महमूद ने उन पर आक्रमण किया । तुर्की सेना ने जाटों और खोखरों को बुरी तरह से पराजित किया। उनकी बस्तियां जला दी गयीं। उनके बच्चों और स्त्रियों को पकड़कर दास बना लिया गया। यह महमूद का अन्तिम आक्रमण था ।

महमूद की सफलता के कारण

भारतीय आक्रमणों में महमूद को अप्रत्याशित सफलता मिली थी। महमूद की इस अनवरत सफलता के निम्नलिखित कारण दिये जा सकते हैं-

महमूद के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक स्थिति दयनीय थी । भारतीय शासकों में राजनीतिक मतभेद, वैमनस्य और पारस्परिक फूट थी । अतः भारतीय शासक महमूद आक्रमणों के समय संगठित होकर शत्रु सेना को परास्त करने में असफल रहे ।

महमूद की सेना भारतीय सैनिकों की अपेक्षा अधिक संगठित थी । उसके सैनिक नये अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित थे और वे द्रुतगति से शत्रु सेना पर आक्रमण करते थे । द्वितीय, महमूद अपेक्षाकृत कुशल सेनानी और वीर योद्धा था। वह शत्रु की दुर्बलताओं का सदा लाभ उठाने की ताक में रहता था ।

तृतीय, उसकी रणनीति व रणनिधि भी प्रशंसनीय थी। वह कुछ श्रेष्ठ सैनिकों को चुनकर अलग कर देता था जिनका प्रयोग अंतिम प्रहार के समय करता था । परिणामस्वरूप अनेक बार अपनी पराजय को विजय में बदल दिया । चतुर्थ, आवश्यकता पड़ने पर महमूद अपने निर्भीक कार्यों और ओजस्वी भाषणों के द्वारा अपनी सेना के मनोबल को बढ़ाता रहता था ।

उस समय राष्ट्र के रक्षार्थ कार्य करने की अपेक्षा व्यक्तियों ने राष्ट्रद्रोही के कार्य किये और शत्रु से मिलकर गुप्त भेद प्रकट कर दिये । कन्नौज के नरेश जयपाल और कालिन्जर के चन्देल राजा गंड ने तो महमूद से युद्ध करने की अपेक्षा पलायन ही श्रेयस्कर समझा। इससे स्पष्ट है कि युद्धों में महमूद की सफलता का कारण सैनिकों की दुर्बलता नही बल्कि शासकों की दुर्बलता और अज्ञानता थी ।

महमूद और उसके सैनिकों में अदम्य धार्मिक उत्साह और नवीन जोश था। इस्लाम के नाम पर वे हर कुर्बानी करने को तत्पर थे । हिन्दुओं में इस प्रकार की कोई प्रेरणादायक उत्तेजक बात नही थी। अपितु विभिन्न सम्प्रदायों मत-मतान्तरों के कारण पारस्परिक वैमनस्य और ईर्ष्या-द्वेष थे।

महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमण के प्रभाव

महमूद गज़नवी ने लगभग सत्ताईस वर्षो तक भारत पर निरन्तर सफल आक्रमण किये। भारत में उसका लक्ष्य धन प्राप्त करना था, राज्य का विस्तार नहीं । अतः कुछ विद्वानों का मत है कि उसके आक्रमणों का स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा । भविष्य में लगभग २०० वर्षो तक राजपूत शासक सम्पूर्ण उत्तरी भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण बने रहें । भारतीय आन्तरिक शासन प्रणाली और युद्ध नीति अक्षुण्ण रही। यद्यपि इस मत में सत्य का अंश है फिर भी ऐसा नही कहा जा सकता कि महमूद के भारतीय आक्रमण के प्रभाव शून्य थे। उसके आक्रमण के कुछ परिणाम अवश्य हुए

महमूद का उद्देश्य भारत में साम्राज्य विस्तार नही था, फिर भी उसके आक्रमणों के कारण भारत का उत्तरी पश्चिमी सीमान्त क्षेत्र पंजाब, सिन्ध और मुल्तान गजनी के साम्राज्य में आत्मसात् कर लिये गये। इस क्षेत्र में अनेक तुर्क बस्तियों की स्थापना की गई। बड़ी मात्रा में यहाँ से तुर्क विद्यार्थी, धर्म प्रचारक, व्यापारी आदि भीतरी प्रदेश में आने जाने लगे। ये क्षेत्र पुनः स्वतन्त्र न हो सके और सदियों इन पर मुसलमानों का प्रभुत्व बना रहा।

महमूद के आक्रमणों से भारतीय सैन्य शक्ति और राजनीति पर गहरा आघात हुआ । इन आक्रमणों के चलते अनेक राजवंशों का अन्त हो गया और कुछ सदा के लिए दुर्बल हो गए। अनेको को पकड़कर तुर्कों ने अपना दास बना लिया। युद्ध में भारतीय शासकों की पराजय ने विदेशियों को भारतीय नरेशों के पारस्परिक फूट, उनके बीच एकता और संगठन का अभाव, उनकी रणनीति और सैन्य संगठन सम्बन्धित दोषों का ज्ञान दिया । ये समस्त राजनैतिक, सैनिक, सामाजिक तथा अन्य दुर्बलताएं भारत में भावी मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिए प्रेरणादायक साबित हुई और अन्त में भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हुई ।

महमूद का प्रधान उद्देश्य भारत की सम्पत्ति का अपहरण करना था। इन आक्रमणों के पूर्व भारत धन-धान्य से परिपूर्ण था । वह सोने की चिड़िया के नाम से विख्यात था । महमूद ने इस विपुल सम्पदा का अपहरण कर भारत को श्रीहीन कर दिया। इससे भारत की आर्थिक व्यवस्था को गहरा आघात लगा ।

महमूद ने अपने आक्रमण में अनेक मनोरम नगरों, मन्दिरों, मूर्तियों तथा अन्य स्मारकों को ध्वंसित किया। मथुरा, कन्नौज, थानेश्वर, नगरकोट, सोमनाथ आदि नगरों के कलात्मक भवनों को नष्ट कर दिया। इतना ही नही, भारतीय शिल्पियों और कारीगरों (कलाकारों) को बलपूर्वक पकड़ कर गजनी ले गया। स्पष्ट है कि भारतीय कला और संस्कृति पर उसके आक्रमणों के प्रभाव घातक थे।

महमूद की मृत्यु

३० अप्रैल १०३० ई० को महमूद की मृत्यु हो गयी । महमूद की मृत्यु के समय गजनी का साम्राज्य अपने विस्तार की सीमा पर था । शाही राजकोष धनधान्य से परिपूर्ण था ।

संदर्भ -

  1. The caliph of Baghadad sent Mohmud his pontificale sanction and the official diploma of investiure as rightful lord of Ghazni and Khurasan and in the light of satisfaction Mahmud vowed that every year should see him wage a holy war against the infidels of Hindustan - LANEPOOLE
  2. India became like Germany 16th century, a brundld of states which were to all intents and purposes independent - Dr. Ishwari Prasad
  3. The Hindus believed that there is no country like their no king like theirs, no religion like theirs, no science like theirs - Alberuni
  4. the general life was economically prosperous owing to the accumulated wealth, peace and commerce. It was this fabulous wealth that tempted Mahmud of Gazni to invade our country - Dr. A.L. Srivastava
  5. So far as India was concerned Mahmud Gazni was simply a bandit poeratian.-on a large scale- V.A. Smith
  6. The iconoc last was more intent of plunder than building up cresentdom in india - S. R. Sharma

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