मुस्लिमों के त्योहार कौन कौन से है ?

मुस्लिमों के प्रमुख त्यौहार

ईद-उल-अजहा अथवा ईद - ए - कुर्बान

इस त्यौहार को ईद-उल-जुहा या बकरी ईद-ए-कुर्बानी के त्यौहार के रुप में मनाया जाता था। यह मुसलमानी वर्ष जु-ए-हिजा की दसवी मुस्लिम वर्ष के 12वें महीने में मनायी जाती थी । मुस्लिम पर्वों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। भारत में इसे प्रायः इब्राहीम द्वारा ईश्वर के आदेश का पालन करते हुए अपने बेटे इस्माइल का बलिदान करने की तत्परता की पावन स्मृति में मक्का के निकट मीना घाटी में तीर्थ यात्रियों द्वारा मनाये गये बलिदान के उपलक्ष्य में मनाया जाता है । 

दसवीं की प्रातः मुस्लिम लोग स्नान करके वस्त्र धारण करने के बाद ईदगाह (अथवा प्रार्थना स्थान ) पर जाते हैं। अपने घरों से चलकर वे सारे रास्ते तकबीर को दोहराते रहते है और वहाँ पहुँचकर वे सामूहिक रुप से प्रार्थना करते है। इस दिन शाम को मांस, मिठाइयाँ आदि बनायी जाती हैं। ईदगाह से वापस पहुँचकर कुर्बानी की रस्म अदा की जाती थी ।

ईद-उल-फितर

यह त्योहार रोजा तोड़ने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। रमजान के अन्त में इसका अवसर आता है। रमजान के रोजा की सकुशल समाप्ति के बाद लोग एक दूसरे को धन्यवाद तथा उपहार देते हैं। ईद के दिन लोग नये-नये और सुन्दर वस्त्र पहनते हैं, और ईदगाह में नमाज पढ़ने जाया करते हैं । मुस्लिम समाज में इसे विशेष खुशी का अवसर माना जाता है । 

यह ईद-उल-अजहा की तरह धार्मिक पर्व है और उससे भिन्न विशुद्ध इस्लामी पर्व है क्योंकि इसे पैगम्बर ने हिजरा संवत के द्वितीय वर्ष में आरम्भ किया था।  यह ईद भी ईद-उल-अजहा की तरह मनायी जाती है, केवल मुख्य अंतर यह है कि कुर्बानी के स्थान पर दान दिया जाता है इसलिए इस पर्व को 'ईद-ए-सदका' भी कहते हैं। बकरीद का धार्मिक महत्व ईद-ए-रमजान से अधिक है, किन्तु उपरोक्त को अधिक धूमधाम और उत्साह से मनाया जाता है इस दिन मुस्लिम लोग अपने मित्रों, और स्वयं अधीनस्थों का स्वागत करते हैं। 

मुहर्रम

यह मुसलमानों का शोक का मास होता था । इसमें हजरत इमाम हसन तथा हुसैन का संस्मरण किया जाता था, जो करबला में समाज के लिए शहीद हो गये थे ।

मुहर्रम के साथ मुस्लिम वर्ष का आरम्भ होता है अर्थात् इस्लामी वर्ष का पहला महीना मुहर्रम है। मुस्लिम वर्ग के शिया लोगों के लिए यह पर्व शोक का मास होता है। इसमें हजरत इमाम हुसैन और हसन को याद किया जाता है जो कर्बला में सत्य के लिए शहीद हो गये थे। इस महीने के प्रथम दस दिन तक शोक मनाया जाता है।

शब-ए-बारात (मिलाद-ए-शरीफ)

मुहम्मद साहब के अनुयायियों से यह अपेक्षा थी कि वे सारी रात विशेष प्रार्थनाएँ करें और कुरान का वाचन करें, जिसका पालन सभी मुसलमान पूरी तरह करते हैं। तथापि वास्तव में खूब धूमधाम होती है और इस पर्व पर आतिशबाजी चलाई जाती है और घरों, मस्जिदों में जगमगाहट की जाती है । ' इसलिए शब-ए-बारात को 'इस्लाम का गाई फाक्स डे' माना जाता है।

पैगम्बर की वर्ष गाँठ

पैगम्बर का जन्म तृतीय मास रबी-उल-अव्वल की बारहवीं तिथि को हुआ और इस तिथि को उनका देहावसान भी हुआ। इसलिए इस मास के पहले बारह दिन मालूद अथवा मिलाद-ए-शरीफ अर्थात् पैगम्बर के 'पवित्र जन्म' के रूप में मनाये जाते थे, कई इसे 'उर्स अथवा पवित्र आत्मा के ईश्वर से मिलन' के रुप में मनाते थे। इस प्रकार इस उत्सव पर लोगों के मन हर्ष और शोक के मिश्रित भाव होते थे। गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर द्वितीय ने पैगम्बर का जन्मोत्सव मनाने की प्रथा आरम्भ की। इन दिनों वे वह विद्वानों को पकवानों और मिठाईयों पर आमंत्रित करता था और उन्हें स्वयं खिलाता था और इसके बाद एक नम्र सेवक की तरह उनके हाथ धुलाता था । गुजरात का सुल्तान महमूद द्वितीय (1536 - 1554) रबी- -उल-अव्वल की पहली से बारहवीं तिथि तक नियमित रुप से पैगम्बर का जन्म दिन मनाता था और सभी उलेमा, शेख और विद्वान दरबार में आमंत्रित करके इन प्रथाओं को दोहराता था ।

ईद - इ - गुलाबी या आ-ए-पशा

यह मुस्लिम त्यौहार होली से मिलता-जुलता था। अब्दुल हामिद लाहौरी ने इसका नाम ईद-ए-गुलाब रखा था। इस अवसर पर शहजादे, अमीर, सरदार एक दूसरे पर गुलाब जल छिड़कते थे। यह वर्षा काल के

नौरोज

मुसलमानों के त्यौहार में नौरोज का त्यौहार भी राष्ट्रीय त्यौहार के रुप में मनाया जाता था। इसको 'नव वर्ष' भी कहते हैं । यह ईरानी त्यौहार है। मुसलमानों में यह त्यौहार नये वर्ष के प्रतीक के रूप में मनाया जाता था । बदायूँनी ने लिखा है कि यह त्यौहार फारसी वर्ष के पहले महीने फरवादीन के प्रथम दिन की (20 या 21 मार्च) को मनाया जाता था। भारत में यह समय बसन्त ऋतु का होता है। बदायूँनी ने इसे 'नौरोज - ए - जलाली' कहा है। सम्राट जहाँगीर ने तुजुक - ए - जहाँगीरी में 'रजा-ए-शरीफ' कहा है। यह त्यौहार बहुत ही चमक-दमक का त्यौहार है। यह उन्नीस दिन तक चलता था । यह त्यौहार पहले फरवादीन से लेकर रोजा-शरीफ - इ - आफताब तक चलता था। जिस दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता था, उस दिन का प्रथम एवं आखिरी दिन अत्यधिक महत्वपूर्ण होता था ।

संदर्भ -

  1. तुजुक -ए-जहाँगीरी, अनु० रोजर्स एण्ड बेवरीज, भाग 1, पृ0 385।
  2. अब्दुल हमीद लाहौरी, पादशाहनामा, सम्पा० कबीरुद्दीन और अब्दुर्ररहीम, भाग 1, कलकत्ता, 1867-1942, पृ० 365 
  3. मुन्तखब - उत्त - तवारीख, अनु० लो, भाग 2, पृ0 380 |
  4. मीरात-ए-अहमदी, अंग्रेजी अनुवाद, पृ0 269 उद्धृत मुहम्मद यासीन, पूर्वोद्धृत पृ०
  5. तुजुक -ए-जहाँगीरी, अनु० रोजर्स एण्ड बेवरीज, भाग 2, पृ0 22, 94; पादशाहनामा, भाग 1, पृ0 5; भाग 2, पृ0 167, 168, 216 थेवनाट, पृ0 31 उद्धृत मुहम्मद यासीन, पूर्वोद्धृत पृ0 61 |
  6. अकबरनामा, अनु० एच० बेवरीज, भाग 3, पृ0 514–515 |
  7. पी० एन० चोपड़ा, सोसाइटी एण्ड कल्चर ड्यूरिंग मुगल ऐज, पृ० 105 |
  8. मुहम्मद यासीन, इस्लामिक भारत का सामाजिक इतिहास, पृ0 58 |

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