पाल वंश की स्थापना, उत्पत्ति, पाल वंश के शासकों के नाम

पाल वंश की स्थापना

शशांक की मृत्यु के बाद गोपाल ने पालवंश की स्थापना की, जिसके इतिहास की जानकारी के लिए हमे प्रचुर अभिलेखीय और साहित्य प्रमाण प्राप्त हैं । धर्मपाल के खलिमपुर अभिलेख से ज्ञात होता है कि तत्कालीन राजनीतिक अव्यवस्था (मत्स्यन्याय) से मुक्ति पाने के लिए प्रकृतियों ने गोपाल को लक्ष्मी ( राज्यलक्ष्मी) की बाँह पकड़ायी अर्थात् उसे राजा चुना । तारानाथ 132 से भी अशासन की स्थिति में गोपाल के राजा चुने जाने का समर्थन होता है ।

पालों की उत्पत्ति

गोपाल के वंश और उसके पूर्वजों के बारे में बहुत सूचनाएं नहीं मिलती खलिमपुर अभिलेख से केवल इतना ज्ञात होता है कि गोपाल के पिता का नाम वप्पट और पितामह का नाम दयितविष्णु था। राजनीतिक दृष्टि से उनका कोई महत्व न था, उपर्युक्त अभिलेख के अतिरिक्त अन्य किसी पाल अभिलेख में उनका नाम नहीं आता है ।

पाल वंश के शासकों के नाम

गोपाल (750-770 ई०)

शशांक की मृत्यु के बाद गोपाल ने पालवंश की स्थापना की

धर्मपाल (लगभग 770-810 ई०)

गोपाल के शासनाकाल की ठीक-ठीक समय नहीं ज्ञात है । धर्मपाल के राज्यारोहण वर्ष का भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । उसकी समकालिकता वत्सराज और द्वितीय नागभट्ट नामक प्रतीहार शासकों तथा ध्रुव और तृतीय गोविन्द नामक राष्ट्रकूट राजाओं से थी । अतः इस लम्बी अवधि के भीतर ही कही धर्मपाल की स्थिति माननी होगी।

राष्ट्रकूट और गुर्जर प्रतीहार आक्रमणों से धर्मपाल की राजनीतिक प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। देवपाल का मुंगेर अभिलेख  यह बताता है कि धर्मपाल एक महान विजेता,  कुशल कूटनीतिज्ञ और अत्यन्त सफल शासक था। उसने अपने पिता द्वारा एक छोटा सा राज्य उत्तराधिकार में पाया था अपने चरमोत्कर्ष के दिनों में वह उत्तर भारत का सिरमौर सत्ता बन गया। उसने परमभट्टारक, परमेश्वर और महाराजाधिराज की उपाधियां धारण की ।

देवपाल (लगभग 810 - 850 ई०)

मुंगेर अभिलेख से ज्ञात होता है कि धर्मपाल ने परवल नामक किसी राष्ट्रकूट राजा की रण्णादेवी नामक पुत्री से विवाह किया था । उससे उत्पन्न पुत्र देवपाल धर्मपाल का उत्तराधिकारी हुआ ।देवपाल अपने वंश का सम्भवतः सबसे बड़ा विजेता था, जिसने पाल साम्राज्य की अधिसत्ता का विस्तार पूर्व में कामरूप दक्षिण में कलिंग और पश्चिम में विन्ध्य और मालवा तक किया। यदि पाल अभिलेख उसके एकाधिराज्य को महत्व देते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं तो कोई आश्चर्य नही है। उसके अथवा उसके समय के लगभग 10 -12146 अभिलेख अब तक प्राप्त हो चुके हैं। उसकी मृत्यु तिथि निश्चित करने का कोई साधन उपलब्ध नही है।

प्रथम विग्रहपाल : शूरपाल ( लगभग 850-854 ई०)

देवपाल का राजपाल नामक एक पुत्र था, जिसे उसने अपना युवराज नियुक्त किया था ।  देवपाल शासन के 33वें वर्ष तक जीवित था । पाल अभिलेखों से ज्ञात है कि देवपाल के बाद राजपाल राजगद्दी पर नहीं बैठा। इसका कारण या तो राजपाल अपने पिता के सामने मर चुका था या उसे मारकर विग्रहपाल ने राजगद्दी हथिया ली थी। भागलपुर अभिलेख " से यह प्रतीत होता है कि देवपाल के बाद विग्रहपाल राजा हुआ, वही उसके समय का बादाल स्तम्भ लेख देवपालऔर नारायणपाल के बीच शूरपाल को रखता है। कुछ विद्वानों को छोड़कर प्रायः सभी विद्वान यह मानते है कि विग्रहपाल और शूरपाल एक ही व्यक्ति के दो नाम है । जो भी हो विग्रहपाल का शासनकाल अत्यन्त लघु था ।

नारायणपाल (लगभग 854 - 615 ई०)

प्रथम विग्रहपाल की हैहयवंशी रानी लज्जादेवी से नारायणपाल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसके पक्ष में उसने (विग्रहपाल ने ) राज्य त्याग कर दिया। अपने पिता की तरह नारायणपाल भी शान्त प्रकृति का कमजोर शासक था, जिसमें सैनिक योग्यता की कमी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि उसकी अधिसत्ता मानने वाले राज्य स्वतन्त्र हो गये तथा राष्ट्रकूटों ने धावे मारना प्रारम्भ कर दिया।

नारायण पाल अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अंग और मगध पर अधिकार बनाये रख सकने में सफल था । इसकी पुष्टि उसके शासन के 6 वें वें और 17 वें वर्ष के क्रमशः गया मन्दिर अभिलेख, इण्डियन म्यूजियम प्रस्तर अभिलेख और भागलपुर के ताम्रपत्राभिलेख से होती है । इन सबमें नारायणपाल को उन प्रदेशों का शासन बताया गया है।

राजपाल ( लगभग 615- 650 ई०)

नारायणपाल के बाद उसका पुत्र राजपाल गद्दी पर बैठा नालन्दा और गया जिले के कुर्किहार नामक स्थान से उसके अनेक अभिलेख मिले हैं। उसका विवाह राष्ट्रकूट राजकुमारी भाग्यदेवी से हुआ था, जो तुंगदेवी की पुत्री थी । इस विवाह से राष्ट्रकूल पालों के सम्बन्ध में सुधार हो गया । उसे अनेक मन्दिरों और तालाबों को बनवाने का श्रेय दिया गया है। उसका राज्यकाल कम से कम 32 वर्षों का था । और 650 ई० के आसपास उसकी मृत्यु हो गयी ।

द्वितीय गोपाल ( लगभग 650 - 660 ई०) और द्वितीय विग्रहपाल (660 - 688 ई०)

राष्ट्रकूट कूलचन्द्र तुंग की पुत्री भाग्यदेवी राज्यपाल को गोपाल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ उसके बाद जो राज्य का उत्तराधिकारी हुआ । नालन्दा  बोधगया " और उत्तरी बंगाल के जाजिलपाड़ा नामक स्थानों से उसके अनेक अभिलेख मिले हैं। उसने कम से कम 17 वर्षों तक शासन किया। तत्पश्चात् उसका पुत्र द्वितीय विग्रहपाल गद्दी पर बैठा उसके बारे में कुछ गोलमोल प्रशंसाओं के साथ कहा गया है  कि उसके युद्ध में लड़ने वाले हाथियों ने पूर्व के जलप्रचुर देश में मानों मेघों की तरह पानी पिया, मलयदेश के चन्दन वनो में विचरण किया और हिमालय की तलहटियों में आनन्द लिया ।

पालो की कमजोरी के कारण उस समय की उठती हुई अन्य सत्ताओं ने भी उन पर आक्रमण किये। गुर्जर प्रतीहार साम्राज्य की अधिसत्ता का जुऑ फेकने वालों में चन्देल सर्वप्रथम थे, जिनमें यशोवर्मा और धंग नामक राजे बहुत बड़े विजेता हुए। पाल राजाओं को अपनी रक्षा के लिए उनके सम्मुख अवश्य झुकना पड़ा होगा। बिलहरी अभिलेख में यह कहा गया है 163 कि युवराज ने गौड कर्णाट लाट कश्मीर और कलिंग की स्त्रियों से प्रेमलीलायें की। कर्ण के गोहरवा अभिलेख के अनुसार 64 लक्ष्मणराज ने भी बंगाल (दक्षिण पूर्वी बंगाल) ओर ओड्र (उड़ीसा) की विजयें की।

प्रथम महीपाल ( लगभग 688 - 1038 ई०)

द्वितीय विग्रहपाल के बाद उसका पुत्र प्रथम महीपाल राजा हुआ। महीपाल ने अपनी सैनिक योग्यता और राजनीतिक कुशलता से उस तीन अवस्था का अन्त कर पुनः एक बार फिर पाल सत्ता को चमका दिया। उत्तरी बंगाल के दिनाजपुर जिले में स्थित बानगढ़ नामक स्थान से प्राप्त होने वाला उसका सर्वप्रमुख आलेख्य नवें वर्ष का अभिले है । महीपाल ने अपने सभी शत्रुओं को मारकर पैतृक राज्य उन लोगों से पुनः छीन लिया था । यह भी कहा गया है कि उसने अपने कमलचरण राजाओं के सिरो पर रखा। अपने शासन के अन्तिम वर्षों में महीपाल का अंग पर शासन का प्रमाण मिलता है।

वास्तव में देवपाल के बाद पालवंश का वह सबसे प्रमुख शासक हुआ, जिसे पाल सत्ता और गौरव का द्वितीय संस्थापक अथवा पुर्नस्थापक कहा जाता है। बनारस, सारनाथ बोधगया और नालन्दा में उसने सैकड़ो बौद्ध बिहारों और हिन्दू मन्दिरों का जीर्णोद्वार और निर्माण कराया । साथ ही उसने महीपुर नामक नगर बसाया तथा दीनाजपुर का महीपाल दीघी नामक तालाब बनवाया ।

नयपाल ( लगभग 1038 - 1055 ई०)

प्रथम महीपाल ने लगभग 50 वर्षो तक शासन‍ किया। उसकी मृत्यु कब हुई यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है । उसके बाद उसका नयपाल नामक पुत्र गद्दी पर बैठा और कम से कम 15 वर्षो तक शासन करता रहा। इसी बीच उसे कलचुरि कर्ण (1041-1073) के आक्रमण का शिकार होना पड़ा। कर्ण ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का कभी भी त्याग नही किया । कर्ण का एक स्तम्भ अभिलेख पश्चिमी बंगाल के वीरभूमि जिले के पैकोर नामक स्थान से मिला 66 है, जिससे वहां कलचुरि अधिकार की पुष्टि होती है ।

तृतीय विग्रहपाल ( लगभग 1055 - 1070 ई०)

यद्यपि रामचरित में कहा गया है कि कर्ण और तृतीय विग्रहपाल के संघर्ष में कर्ण 170 हमें इस कथन द्वारा ' में बहुत अधिक महत्व न देने में कोई आपत्ति नही जान पड़ती। कहा गया है कि कर्ण ने अपनी पुत्री योवन श्री का विग्रहपाल से विवाह कर मित्रता कर ली। लेकिन विग्रहपाल कलचुरियों से मित्रता स्थापित करने पर भी अन्य दिशाओं से भय मुक्त नही हो सका। बिल्हणकृत विक्रमांक देवचरित'' से ज्ञात होता है कि कल्याणी के चालुक्य राजा प्रथम सोमेश्वर के पुत्र विक्रमादित्य ने अपनी विजय यात्राओं में गौड और कामरूप के राजाओं को 1068 ई० के आसपास हराया ।

द्वितीय महीपाल ( लगभग 1070 - 1075 ई०)

तृतीय विग्रहपाल के समय पाल सत्ता जर्जर होकर सिकुड़ चुकी थी । विग्रहपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी महीपाल द्वितीय था । राजदरबार में व्याप्त परस्पर अविश्वास की परिस्थितियों में दिव्य अथवा दिव्योग नामक एक कैवर्त सरदार ने विद्रोह कर महीपाल को मार डाला और वारेन्द्री मे एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली। इस सम्बन्ध की सारी चर्चाएं सन्ध्याकर नन्दीकृत रामचरित में आती है।

रामपाल ( लगभग 1075 - 1126 ई०)

रामचरित से इतना मात्र ज्ञात है कि महीपाल के बाद रामपाल राजा हुआ और अपनी पैतृक प्रतिष्ठा को स्थापित करने का प्रयत्न किया। रामचरित से ज्ञात है कि वारेन्द्री पर अधिकार कर रामपाल ने वहां अनेक प्रशासन सम्बन्धी सुधार किये । कलिंग (उड़ीसा) की अशान्त राजनीति से उत्साहित होकर उस पर भी आक्रमण किया । वहां के राजा को पराजित करने के बाद भी गद्दी पर बने रहने दिया। पूर्व में कामरूप और दक्षिण-पश्चिम में उड़ीसा पर अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा स्थापित कर अपने वंश के पुराने राजनीतिक गौरव की स्मृति दिलायी । तारानाथ का कथन है कि उसने 60 वर्षों तक शासन किया ।

पालों का अन्त

रामपाल की सफलताएं एक बुझते हुए दीपक की अन्तिम लौ के समान क्षणभंगुर साबित हुई। उसके चार पुत्र थे । वीतपाल और राज्यपाल नामक उसके दो बड़े पुत्र प्रशासन में भाग ले चुके थे किन्तु वे गद्दी पर कभी नही बैठे। मालूम नही उनका क्या हुआ। कुमारपाल नामक उसका तृतीय पुत्र राजा हुआ । उसकी कमजोरी के कारण असम के अधीनस्थ शासक विग्यदेव ने विद्रोह कर दिया। फलतः असम से पालों की अधिसत्ता समाप्त हो गयी ।

कुमारपाल के बाद उसका पुत्र तृतीय गोपाल राज्यासीन हुआ, जिसके समय के घटनाओं की कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है । इस अस्तव्यस्त उत्तराधिकार क्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि रामपाल के बाद उसके पुत्र पौत्रों में कदाचित उत्तराधिकार के लिये युद्ध भी हुए। पश्चिम से कन्नौज काशी के गहड़वाल भी पालों को दबाने लगे तथा 1124 के आसपास तक पटना के सभी क्षेत्र उनके अधिकार में चले गये । 1150 ई० में गोविन्दपाल नामक एक अन्य राजा हुआ। उसके गया के आसपास के क्षेत्रों पर शासन करने की बात ज्ञात होती है। पालवंशी अन्य राजाओं से उसके सम्बन्ध में हमें कोई ज्ञान नहीं प्राप्त होता । उसे पालवंश का प्रायः अन्तिम शासक स्वीकार किया जाता है।

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