महाप्रभु चैतन्य का जन्म 18 फरवरी 14861 ई० को नदिया जिले के मायापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र तथा माता का नाम शची देवी था। कुछ समय व्यतीत हो जाने के बाद इन्हें पाठशाला भेजा गया। गुरु सुदर्शन की दीक्षा के अनुसार कुछ ही समय में संस्कृत व्याकरण में विशेष योग्यता प्राप्त कर ली। अध्ययन में इनका इतना मन लगा कि ये सदैव पुस्तकों को पढ़ा करते थे । यहाँ तक कि भोजन, स्नान तथा सोते समय पुस्तक इनके हाथों में रहती थी। थोड़े ही समय में व्याकरण, स्मृति, न्याय दर्शन में विशेष योग्यता प्राप्त कर ली ।
शिक्षा समाप्त हो जाने के बाद इनका विवाह नदिया के वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी से कर दी गई। साँप काटने से लक्ष्मी की मृत्यु हो गयी। कुछ समय के बाद इन्होंने नदिया के सम्पन्न परिवार की लड़की विष्णुप्रिया से दूसरी शादी कर ली। पारिवारिक जीवन के निर्वाह के लिए इन्होंने एक पाठशाला चलायी। तभी से इन्हें निभाई पण्डित कहा जाने लगा। परन्तु इनका ध्यान सन्यास, वैराग्य तथा आध्यात्म में था। कुछ समय के बाद इन्होंने गृहस्थ जीवन का त्याग करके सन्यासी का जीवन व्यतीत करने का विचार किया ।
फरवरी 1509 ई0 में वे सन्यासी हो गये । मयूरभंज तथा झारखण्ड के जगली रास्ते से होकर बनारस, प्रयाग तथा मथुरा की भी तीर्थयात्राएँ की । उतने से संतुष्ट न होकर वे दक्षिण भारत गये जहाँ ट्रावनकोर के राजा रुद्रपति ने इनका भव्य स्वागत किया। गुजरात का भ्रमण करते हुए वे पुनः पुरी लौट आये । इसके बाद वे मथुरा गये। इस प्रकार थोड़े ही समय में चैतन्य की लोकप्रियता बढ़ गई। 1515 से 1533 तक चैतन्य पुरी में रहे। 1533 ई० में उन्होंने अपना नश्वर शरीर का त्याग किया। 1
इस समय बंगाल पूर्णरुप से मुस्लिम शासन का अंग बन चुका था । लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये जाते थे। समाज में ब्राह्मण के अत्याचार से वे काफी क्षुब्ध थे ।
चैतन्य का मुख्य उद्देश्य सामाजिक असमानता को दूर कर दलित वर्ग को ऊँचा उठाना है। साथ ही वे शूद्रों को समानता का अधिकार देकर इस्लाम धर्म को रोकना चाहते थे। इस प्रकार वे सामाजिक कुरीतियों को दूर कर ब्राह्मणों के प्रभुत्व को समाप्त करना चाहते थे। चैतन्य हिन्दू-मुसलमानों को साम्प्रदायिक तथा ऊँच-नीच की भावनाओं को समाप्त कर समाज में सामजस्य स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने अन्य समाज सुधारकों की भाँति जाति प्रथा की आलोचना की। अनेक शिष्यों में सभी जातियों के लोग थे। उन्होंने मुसलमानों को भी अपना शिष्य बनाया ।
चैतन्य ने भगवान कृष्ण के प्रति अपने विचारों का प्रकटीकरण किया है। अन्य संतों के समान चैतन्य भी कीर्तन को कृष्ण भक्ति का प्रमुख साधन मानते थे। चैतन्य ने कीर्तन प्रणाली का देश भर में प्रसार किया तथा वैष्णव सम्प्रदाय ने इसे एक प्रमुख सिद्धान्त के रुप में अपना लिया ।
चैतन्य मत के प्रसार के कारण
1. चैतन्य की विचारधारा अन्यत्त सरल तथा हृदयग्रही थी । सर्वसाधारण के हृदय पर उनके विचारों का विशेष प्रभाव पड़ता था । वे अपने विचारों को अत्यन्त सरल तथा स्पष्ट ढंग से सर्वसाधारण के सामने रखते थे। वास्तव में, चैतन्य के उपदेशों में जटिलता का अभाव उनकी सफलता का मूल कारण था ।
2. चैतन्य केवल किसी विशेष वर्ग को भक्ति-मार्ग में सम्मिलित होने का उपदेश नहीं देते थे। वे मानव समानता में विश्वास रखते थे। उन्होंने निम्न जातियों को भी उच्च जातियों के समान भक्ति मार्ग दिखलाया, अतः उनके भक्त की संख्या शीघ्रता से बढ़ी। शूद्र भी उनके उपदेश प्राप्त कर आनन्दित होने लगे ।
3. चैतन्य के समान ही उनके शिष्य अत्यन्त त्याग तथा निष्ठा की भावनाओं से ओत-प्रोत थे। उन्होंने संगठित होकर त्यागपूर्ण भावनाओं के साथ भक्ति मार्ग का प्रचार किया । चैतन्य की भक्तों की प्रेम भावना तथा विचारों की सादगी ने जनसाधारण का मन को जीत लिया ।
4. यह उस काल की राजनीतिक दशा ने भी चैतन्य के गत प्रसार में विशेष योग दिया। मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से हिन्दुओं को अनेक कष्ट उठाने पड़ रहे थे। ऐसी दशा में चैतन्य के भक्तिमय उपदेशों ने मरहम का काम किया। शूद्रों की दशा भी शोचनीय थी। वे ब्राह्मणों के अत्याचारों से पीड़ित थे । भक्ति-मार्ग में समानता पर विशेष रुप से बल दिया जाता था, अतः शूद्रों इस मत की ओर अधिक आकर्षित हुए। यह अत्यन्त खेद का विषय है कि आगे चलकर चैतन्य मत में अनेक दोष उत्पन्न हो गये । चैतन्य के जीवन काल में उनके भक्तों में जो प्रेम भावना, सरलता तथा निष्कपटता थी, वह आगे चलकर लोप होने लगी ।