दासता क्या है दास कितने प्रकार के होते हैं?

दासता वह है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के अधीन हो जाता है। विजेता पराजित व्यक्तियों को पूर्ण तथा अपने अधिकार में कर लेता था। बाद में ऋण न चुका सकने पर, शर्त हार जाने पर, या अकाल की अवस्था में भरण-पोषण में असमर्थ व्यक्ति दूसरे के दास बन जाता था। 

दासों के प्रकार

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में आठ प्रकार के दासों का वर्णन किया है।-

  1. गृहजात- घर में पैदा हुआ अर्थात दासी से उत्पन्न या उदरदास
  2. दायागत- पिता से दाय के रूप में मिला दास
  3. लब्ध- दान से प्राप्त हुआ दास
  4. ध्वाजाहृत- युद्ध में बन्दी बनया गया दास
  5. आत्म विक्रयी- अपने आप को स्वयं बेचने वाला दास ।
  6. आहितक- जो ऋण के बदले धरोहर रखा गया हो ।
  7. क्रीत- खरीदा हुआ दास
  8. दंड प्रणीत- दंड के परिणाम स्वरूप जो दास बनाया गया हो ।

दास के कार्य

धर्मसूत्रों में जिन दास-दासियों का उल्लेख है। वे घर के नौकर थे। वे भोजन बनाते, पानी लाते, चावल कुटते, खेत में भोजन पहुँचाते, भोजन के लिए थाली, कटोरी रखते, स्वामी को पंखा झलते, आँगन साफ करते थे। परिवार के लोगो के साथ अतिथियों के पैर भी धोते, उनके लिए भोजन बनाते और पानी लाते थे। घर के नौकरो ओर इन दासों में केवल एक अंतर था। ये दास स्वतंत्र नहीं थे। जबकि नौकर नौकरी छोड़ कर कही भी जा सकते थे। दासियां पानी भर लाती, धान कूटती, घर की सफाई करती। कुछ स्त्रियाँ उपपत्नियाँ (रखैल स्त्रियों) के रुप में भी रहती थी ।

जातकों से ज्ञात होता है कि कुछ स्वामी जब उनके घर पर कार्य न होता या तो अपने दास-दासियों को दूसरे लोगों के यहाँ काम करने भी भेजते थे। उससे जो आय होती थी। उसे ये दास-दासियाँ अपने स्वामियों को देते थे । यदि वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें उनके स्वामी पीटते थे। बौधायन धर्म सूत्र से ज्ञात होता है कि कुछ व्यक्ति धन देकर स्त्रियों को खरीदते थे ये स्त्रियाँ धरोहर रखी जा सकती थी । ' इस काल में कुछ मनुष्य दासों का व्यापार करते थे।

दासों की सामाजिक स्थिति

मध्यकालीन भारत में दासों की स्थिति ठीक नहीं थी । उनकी वास्तविक स्थिति की जानकारी के लिए समकालीन साक्ष्य का अभाव है । उस समय जागीरदारों और जमीदारों के आपसी संघर्षो में विजेता पक्ष विजित क्षेत्र से लोगों को पकड़कर दास के रूप में परिणत कर देते थे। इस प्रकार दासों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई दास प्रथा हिन्दू समाज में निर्दिष्ट समय से बहुत काल पूर्व से चली आती थी। दास प्रथा का उल्लेख स्मृतियों में भी मिलता है। उनके अनुसार दास 4 वर्गो में विभक्त थे- जो दास परिवार में पैदा हुआ हो, जिन्हें खरीदा गया हो, जिन्हें लाया गया हो, और जिन्हें रूप में प्राप्त किया गया हो पाँचवीं श्रेणी में वे आते थे जिन्होंने अपने को बेच दिया हो। " दक्षिण भारत में विजय नगर राज्य में दासता की प्रथा को वैधानिक मान्यता प्राप्त थी । "

दास की स्थिति वैधानिक रूप से भिन्न थी। वह तो युद्ध बन्दी होता था । अपने बन्दी बनाने वालों की दया पर वह पूर्णतः आश्रित होता था । यदि मालिक चाहे तो दास को जान से मार सकता था या उसे बेंच सकता था। इस स्थिति को दोनों पक्ष अच्छी तरह से समझते थे। यदि मालिक अपने दास की जान छोड़ देता था और उसे अपने घर में सफाई आदि कार्य करने में लगा लेता था तो यह समझा जाता था कि मालिक ने उदारता का परिचय दिया। इसी प्रकार दास यदि गुलामों के बाजार में बेंच दिया गया हो और किसी ने उसे खरीदा हो तो वह दास मालिक की व्यक्तिगत सम्पत्ति के समान थे।


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