कन्नौज और काशी के गहड़वाल राजाओं के वंश के बारे में हमें बहुत ही कम जानकारी प्राप्त है । यद्यपि कुछ अभिलेखों में उन्हें क्षत्रिय कहा गया है, न तो उन्हें कही सूर्य अथवा चन्द्र से जोड़ा गया है, और न किसी प्रसिद्ध राजवंश से ही। उन्हें राष्ट्रकूट वंश का मानने वाले १६३ विद्वान निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित करते हैं- मिर्जापुर में स्थित मॉडा - बीजापुर के राजा अपने को राठौर कहते हैं । अभिलेखों६४ से यह प्रमाणित है कि ग्यारहवीं शती में कन्नौज और उसके आस पास (बदायूँ) के क्षेत्रों में राष्ट्रकूटों ने अनेक राजवंशों की स्थापना कर ली थी। अतः लखनपाल (राष्ट्रकूट) के बदायूँ अभिलेख में वर्णित चन्द्र को गहड़वाल वंश के चन्द्र से मिलाना चाहिए ।
गहड़वालों को राष्ट्रकूटों अथवा राठौरों से जोड़ने वाले तर्क कई कारणों से ग्राहूय प्रतीत नही होते । प्रथमतः तो गहड़वाल कभी अपने को राठौर नही कहते। दूसरे, उनका गोत्र कश्यप था, राठौरों का गोत्र गौतम है तीसरे लखनपाल के बदायूँ अभिलेख की तिथि ज्ञात नही है यह असम्भव नही है कि वह गहड़वाल शासकों के बहुत बाद का हो। उनके निजी अभिलेख तो उन्हें स्वतन्त्र रूप से उपस्थित करते हैं।
चन्द्रदेव (लगभग १०८६ - ११०४ ई०) -
महीचन्द्र का पुत्र चन्द्रदेव गहड़वालों की स्वतन्त्र सत्ता का वास्तविक संस्थापक हुआ । उसके चार अभिलेख प्राप्त हुए हैं, सबसे पहला वि० सं० ११४८ = १०८८-८६ का है तथा अन्तिम वि०सं० ११५६ = ११०० का है। चन्द्रदेव ने काशी (वाराणसी) कुशिक (कान्यकुब्ज), उत्तर कोशल (अयोध्या) और इन्द्र स्थानीय (दिल्ली - इन्द्रप्रस्थ) के सभी पार्श्ववर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । १६६ उसका चन्द्रावती से प्रकाशित १०६३ ई० का अभिलेख उसे नरपति, गजपति, गिरिपति और त्रिशंकुपति पर विजय का श्रेय देता है। इस पर कुछ निश्चित मत नही बनाया जा सका है कि दिल्ली इन्द्रप्रस्थ तक उसके क्षेत्रों की अधिकार सीमाओं का स्वरूप क्या था ।
मदनपाल ( लगभग ११०४ १११४ ई०)
चन्द्रदेव की अन्तिम ज्ञात तिथि वि०सं० ११४६ = ११०० है उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी मदनचन्द्र अथवा मदनपाल का उल्लेख करने वाला प्रथम अभिलेख वि०सं० ११०१-११०४ का है। इसी अवधि में किसी वर्ष चन्द्रदेव की मृत्यु हुई होगी और मदनपाल ने राजगद्दी प्राप्त की होगी। उसके समय के पॉच अभिलेख मिले हैं जिसमें तीन अभिलेख उसके पुत्र गोविन्दचन्द्र द्वारा प्रकाशित किये गये थे।६७ उसमें उसे परमभट्टारक महाराजधिराज परमेश्वर की पूर्ण साम्राज्य सूचक उपाधियां दी गयी है। मदनपाल के समय गजनी लाहौर के यमीनी तुर्कों ने दूर-दूर तक आक्रमण किया सम्भवतः कन्नौज को लूटा और थोड़े समय के लिए उस पर अधिकार कर लिया। राहन अभिलेख १६८ और कृत्यकल्पतरू६६ की एक दूसरे से मिलती जुलती सूचनाएं है कि गोविन्दचन्द्र ने पाल शासक ( रामपाल ) के हाथियों की पॉतों को वीरतापूर्वक चीर डाला। यह प्रतीत होता है कि पालों ने मदनपाल के समय गहड़वाल राज्य पर आक्रमण किया किन्तु गोविन्दचन्द्र की वीरता के सामने वह टिक न सके।
गहड़वाल राज्य का विस्तार
गोविन्दचन्द्र (लगभग १११४ ११५४ ई०)
गोविन्दचन्द्र गहड़वाल आपने पिता के समय ही प्रशासन के कार्यों से परिचित था और वह यमीनी एवं पाल आक्रमणों का सफलता पूर्वक मुकाबला कर चुका था। धीरे-धीरे वह उत्तरी भारत का सर्वप्रमुख सम्राट बन गया और कन्नौज पुनः एक बार राजनीति साहित्य और संस्कृति का केन्द्र हो गया ।
सरयूपार की विजय
सरवार शब्द का प्रयोग आजकल के सरयूपार का ही रूपान्तर है । अतः यह अत्यन्त सम्भव है कि गोविन्दचन्द्र ने घाघरा नदी के उत्तर क्षेत्रों (सरयूपार) की विजय करते हुए उसे एक नये राज्य (नव राज्यगण ) की विजय के रूप में स्वीकार किया हो। बहुत सम्भव है कि गोविन्दचन्द्र ने ११११ई० और १११४ ई० के बीच कभी उसे पराजित कर पूर्वोत्तर में अपनी राज्यसीमा बड़ी गण्डक तक बढ़ा ली हो। उसके १६४६ ई० के लाह अभिलेख से ज्ञात होता है२०० कि उसने सरयूपार के क्षेत्रों में ब्राह्मणों को भूमिदान किया था।
कलचुरि क्षेत्रों की विजयें
गोविन्दचन्द्र ने कलचुरियों के मूल्य पर अपनी राज्य सीमाओं के विस्तार का क्रम जारी रखा। वि०सं० ११७७-११२० के उसके एक अभिलेख से ज्ञात होता है उसने अन्तराल पत्तला के करण्ड और करण्डतल्ल नामक दो गाँवों को ठक्कुर वशिष्ठ नामक ब्राह्मण को दान दिया । स्पष्ट है कि उन गाँवों से कलचुरि अधिकार समाप्त कर २०" अपनी नयी व्यवस्था की ।
दर्शाण की विजय
नयचन्द्र कृत रम्भामन्जरीनाटक से२०२ ज्ञात होता है कि गोविन्दचन्द्र ने दर्शाण अर्थात पूर्वी मालवा भी जीता। उस विजय के समय ही उसे पौत्रोत्पत्ति की सूचना मिली, जिससे प्रसन्न होकर अपने पौत्र को जयचन्द्र नाम दिया। दर्शाण में नरवर्मा और यशोवर्मा नामक कमजोर राजा थे।
उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर उन क्षेत्रों पर चढ़ जाना गोविन्दचन्द्र जैसे महत्वाकांक्षी विजेता के लिए असम्भव नही था ।
गोविन्दचन्द्र का अन्य राज्यों से सम्बन्ध
गोविन्दचन्द्र की कूटनीतिक योग्यताएं और बुद्धिमत्तापूर्ण अन्तरराज्यीय सम्बन्ध उसकी सैनिक और राजनीतिक सफलताओं की आधारशिलाएं थी । दूरस्थ और समीपस्थ अनेक राज्यों से उसके राजनयिक, सांस्कृतिक अथवा वैवाहिक सम्बन्धों के प्रमाण उपलब्ध है। गहड़वाल राज्य की सीमाओं से मिले हुए राज्यों के साथ गोविन्दचन्द्र के इन सम्बन्धों का स्वरूप प्रायः राजनीतिक था। राजतरंगिणी में कल्हण कहता है कि कश्मीर के राजा जयसिंह (११२८ - ११४६ ई०) ने बड़े-बड़े भूखण्डों पर अधिकार रखने के कारण शक्तिशाली कान्यकुब्ज और अन्य स्थानों के राजाओं को अपनी मित्रता से गौरान्वित किया । इस सन्दर्भ का कन्नौज राज गोविन्दचन्द्र था ।
विजयचन्द्र (लगभग ११५५ - ११६६ ई०) :
गोविन्दचन्द्र के तीन पुत्र थे, जिसमें सबसे जेठा आस्फोटचक्रदेव था, जिसे ११३४ ई० के एक अभिलेख २०३ में समस्तराजक्रियोपते ( प्रशासन के सभी कार्यों से सम्बद्ध) और युवराज (यौवराज्यभिषिक्त) कहा गया है। उसके भाई राज्य पाल देव की जानकारी ११४२ ई० के एक अन्य अभिलेख २०४ से होती है किन्तु इन दोनों के कदाचित् अकाल कवलित हो जाने अथवा उत्तराधिकार के किसी अज्ञात युद्ध २०५ में मारे जाने से विजयचन्द्र गोविन्दचन्द्र का उत्तराधिकारी हुआ । विजयचन्द्र के पुत्र जयचन्द्र के ११६८ ई० के बनारस से प्राप्त कमौली अभिलेख में यह कहा गया है कि उसने पृथ्वी का दलन करते हुए मानो खिलवाड़ करते हुए हम्मीर की स्त्रियों की आँखों की, मानो बादल से गिरते हुए पानी के समान, आँसुओ से पृथ्वी का कष्ट धो डाला । २०६ यह हम्मीर का (अमीर) लाहोर के खुसारूशाह (११५०-११६० ई०) अथवा खुसरूमल्लिक (११६० - ११६८ ई० ) का कोई अधिकारी अथवा सेनानायक प्रतीत होता है, किन्तु विजयचन्द्र के समय पश्चिम में गहड़वालों की प्रभाव सीमाओं का ह्रास हुआ। चाहमानों ने अपनी सफलता से गहड़वालों को उत्तर भारत की प्रमुख राजनीतिक सत्ता होने के स्थान से हटाकर स्वयं वह गौरव प्राप्त कर लिया ।
जयचन्द्र ( ११७० - ११६४ ई०)
विजयचन्द्र का चन्द्रलेखादेवी से उत्पन्न पुत्र जयचन्द्र आषाढ़ सुदी षष्ठी, वि०सं० १२२६ २१ जून, ११७० को गहड़वाल राजगद्दी पर बैठा । उसने स्वयं अपने राज्यकाल में १६ = अभिलेखों का प्रकाशन किया, किन्तु उसमें राजनीतिक महत्व की बहुत कम बातें हमें ज्ञात होती है।
अन्य राज्यों से सम्बन्ध
जयचन्द्र को गोविन्दचन्द्र द्वारा निर्मित एक विशाल राज्य, महान् सैनिक २०७ शक्ति और कुशल प्रशासन उत्तराधिकार से मिला था। जो उसके पिता विजयचन्द्र के समय भी शिथिल नही हुआ था। अतः समकालिक राजनीति में उसकी महत्वाकांक्षाएं स्वभाविक जान पड़ती है, किन्तु हम आगे देखेंगें, कि उन महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप उसकी राजनीतिक सूझ-बूझ नही थी। उसका शत्रु पृथ्वीराज चाहमान भी इसी कमी का शिकार था। जिसका परिणाम उन्हीं दोनो के लिए नही अपितु सारे भारतवर्ष के लिए घातक साबित हुआ । गोरी के आक्रमणों के आगे वे दोनो तो एक-एक करके मिट गये, उत्तर भारत के सभी राज्य और राजे भी समाप्त हो गये ।
११७५ ई० का जयचन्द्र का शिवहर ताम्रफलकाभिलेख यह सूचित करता है कि उसने मारणपत्तला में दो गाँवों का दान किया था । जयचन्द्र का बोधगया से प्राप्त ११८३ और ११६२ ई० के बीच का अन्य अभिलेख २०८ गया तक उसके अधिकार को प्रमाणित करता है । मुसलमान साक्ष्यों से यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि गोरी आक्रमण (११६३ - ४ ई०) के समय वह कान्यकुब्ज और वाराणसी में सवैभव शासन करता था । २०६
पृथ्वीराज रासो के वे विवरण उन सबमें प्रमुख है जिसमें जयचन्द्र की दिग्विजय एवं उसके उपलक्ष्य में राजसूय यज्ञ और संयोगिता के स्वयंवर की चर्चाए हैं । २१० जयचन्द्र और पृथ्वीराज के मूल में उन दोनो का अलग-अलग प्रयत्न था कि तत्कालीन राजनीति में एक दूसरे को हटाकर प्रमुख स्थान बना लें ऐसी स्थिति में जयचन्द्र का पृथ्वीराज को आमन्त्रित न किया जाना स्वाभाविक था असम्भव नही, कि पृथ्वीराज ने एकाएक आक्रमण कर संयोगिता का अपहरण कर लिया हो जब वह कुछ धार्मिक कृत्यों में लगकर असावधान रहा हो। २" जयचन्द्र राजनीतिक क्षेत्र में अपने प्रतिस्पर्धी से अपमानित होकर व्यक्तिगत रूप से उसका शत्रु हो गया ।
* शिहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी का आक्रमण (११६३-४ ) और गहड़वाल राज्य का पतन
१२वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उत्तर भारत के चार सर्वाधिक प्रमुख राज्य गहड़वाल, चाहमान, सोलंकी और चन्देल जब आपस में ही लड़ रहे थे, गियासुद्दीन और मुहम्मद मुईजुद्दीन (शिहाबुद्दीन ) मुहम्मद गोरी के नेतृत्व में पहाड़ों में पारसी मुसलमानों की एक शाखा इतिहास में एक नये अध्याय का सूत्रपात कर रही थी । क्रमशः उन्होंने गजनी (११७३ ई०) मुल्तान (११७५ ई०) पेशावर (११७६ई०) और लाहौर (११८७ई०) पर अधिकार कर लिया। ताजुल मसीर के अनुसार अपनी बड़ी सेना और वैभव के कारण पृथ्वीराज के मन में दिग्विजय करने जैसी भावना मानो भूत जैसे कोई घर कर गया था २१२ किन्तु अवसर आने पर वह आक्रमकों के सामने अकेला रह गया । जयचन्द्र २१३ तथा भीम तमाशा देखते रहे । तराइन की दूसरी लड़ाई में जब वह पराजित होकर मारा गया (११६२ ई०) तो जयचन्द्र ने दीवाली मनायी, किन्तु उसके दीपों की लवें शीघ्र ही के आक्रमण की आँधी में बुझ गयी । मुहम्मद गोरी
११६४ ई० में अपने ५० हजार शस्त्रकवचधारी घुड़सवारों के साथ शिहाबुद्दीन ने उस पर सबसे तीखा आक्रमण किया। युद्ध के प्रथम दौर में आक्रामक अत्यन्त भयभीत रहे, किन्तु हाथी पर बैठकर सेना का नेतृत्व करते हुए उसकी आँख में कुतुबुद्दीन का एक तीर तेज से लगा, वह नीचे गिर गया। अन्ततः मारा गया उसकी सेना पराजित हुयी । 'आक्रामकों के हाथ लूट का इतना धन लगा कि उसे देखते हुए आँखे भी थक जाती। यही नहीं आगे बनारस को लूटा और वहां के १०० मंदिरों को धराशायी कर उनके स्थानों पर मस्जिदें खड़ी कर दी ।
जयचन्द्र की मृत्यु के बाद गहड़वाल राज्य की प्रतिष्ठा धूल में तो मिल गयी किन्तु उसकी एकदम समाप्ति नही हुई । जौनपुर जिले में स्थित मछलीशहर तहसील से जयचन्द्र के पुत्र हरिश्चन्द्र का वि०सं० १२५५ - ११६८ का एक दानपत्राभिलेख उसे परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर, अश्वपति, गजपति, नरपति, राजत्रयाधिपति, विविध विधा विचारवाचस्पति कहता है।२१४ गहड़वाल राजाओं की इन उपाधियों का प्रयोग उसकी स्वतन्त्र सत्ता का द्योतक है, किन्तु उस तिथि के बाद उसकी अथवा कन्नौज, काशी के गहड़वाल राज्य के अन्य किसी भी प्रतिनिधि की जानकारी उपलब्ध नही है ।