हिन्दू शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई

हिन्दू शब्द की उत्पत्ति

'हिन्द' और 'हिन्दू' शब्द संस्कृत के 'सिंध' और 'सिन्धु' से विकसित हुए हैं। वेदों में कई जगह ऐसे प्रमाण हैं, जहाँ 'स' के स्थान पर 'ह' का प्रयोग किया गया है, जैसे 'सरितो' से 'हरितो' और 'सरस्वत्यो' से 'हरस्वत्यो' इत्यादि प्रयोग देखे जा सकते हैं। ईरान में प्राचीन भाषा 'अवेस्तन' (Avesten) में 'सिन्धु' देश हिन्दू के रूप में उपलब्धि है। ईरानी भाषाओं में भारतीय भाषाओं के 'सकार' परिवर्तित होकर 'हकार' हो जाते हैं, जैसे 'सप्ताह', 'मास' और 'केसरी' शब्द क्रमशः ‘हफ्ता', 'माह' और 'केहरी' हो जाते हैं। ग्रीक और लैटिन में इस शब्द का प्रयोग 'इण्डों, 'इण्डस' (Indo, Indous) के रूप में किया गया है। ‘इण्डो' का अर्थ है 'एशिया' भारत की प्रान्तीय भाषाओं में सिन्धु को सिन्ध कहा जाने लगा उसी तरह फारसी में हिन्दू के स्थान पर हिन्द का व्यवहार होने लगा। ईरान देश के पारसी सम्प्रदाय के ग्रन्थ 'शतीर' के अनुसार भारत देश का नाम 'हिन्दू' (हिन्द) था तथा वहाँ के निवासियों को हिन्दी कहा जाता था, आज भी लोग ‘सिन्ध´ प्रान्त के निवासियों को ‘सिन्धी´ कहते हैं।

जिन समुदायों वर्गों में शव - दाह (मृत्य के बाद शव को जलाना) की परम्परा थी, उन्हें 'हिन्दू' माना गया। आर्य समाज ने हिन्दू शब्द की जगह आर्य शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि 'हिन्दू धर्म' को ब्राह्मणों का धर्म समझा जाने लगा था। इसी सोच की प्रतिक्रिया स्वरूप जैन और बौद्ध लोग भी स्वयं को ‘हिन्दू' कहलाये जाने से कतराने लगे। फलतः अलग-अलग धर्मों की स्थापना होने लगी। शेष भारतीय भी सर्वप्रथम अपने को 'हिन्दू' न कहकर वैष्णव, शैव, शाक और सिख आदि मानने लगे।

हिन्दू धर्म के अनुसार ईश्वर ही विश्व परमसत्ता है और हम सभी को उसके अस्तित्व में विश्वास करना चाहिये । प्रत्येक अनुयायी किसी भी रूप में ईश्वर की उपासना करने में स्वतन्त्र है । इसी कारण अनेक विद्वानों के मत हैं कि हिन्दू धर्म एक ईश्वर के साथ-साथ अनेक देवताओं के अस्तित्व में भी विश्वास का समर्थक है । हिन्दू धर्म में कर्म सिद्धान्त में आस्था रखने पर विशेष बल दिया गया है, जिसके अनुसार, मनुष्य का वर्तमान जन्म सब कुछ न होकर अनेक जन्मों की श्रृंखला की एक कड़ी मात्र माना जाता है । आत्मा को अमर मानकर प्रकृति नियमों के अनुसार मृत्यु के बाद प्राणी का फिर जन्म होता है, यही प्राणी का पुनर्जन्म का सिद्धान्त है । किन्तु कर्म सिद्धान्त के अनुसार मानव जीवन बहुत कुछ अपने पूर्व जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है। मनुष्य को कर्म की स्वतन्त्रता है, जो अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से जानता है। जिन मनुष्यों का मन उनके कर्तव्यों का उल्लेख करने के नियमों का पालन करने के लिए तैयार है, वही सत्कर्म कर सकते हैं। इस प्रकार कर्म सिद्धान्त मनुष्य को अपने कर्त्तव्य के अनुसार काम करना सिखाता है। 

हिन्दू धर्म में तीन देवताओं ब्रह्मा (विश्व का सृष्टा), विष्णु ( रक्षक) एवं शिव ( संहारकर्ता) का विशेष महत्व तथा वेदों को पवित्र ग्रन्थ और मुक्ति के लिए वैदिक क्रिया विधियों तथा अनुष्ठानों को सम्पन्न करना अनिवार्य बताया गया है। जीव का जीवन मृत्यु अर्थात् आवागमन के चक्र से छुटकारा पाकर मोक्ष अथवा निर्वाण (सम्पूर्ण मुक्ति) प्राप्त करना हिन्दू धर्म का अन्तिम प्रधान लक्ष्य है। परलोक जाने वाले जीव का पथ सरल रहे और उसे कष्ट न हो, उसके लिए हिन्दू धर्म में श्राद्ध और यज्ञों में तर्पणादि कर्मकाण्डों की व्याख्या है। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए पवित्र धर्मनिष्ठ पुत्र की प्राप्ति ही हिन्दू संस्कृति में विवाह संस्कार को पवित्र उद्देश्य माना गया है। वृद्ध, गो और नारी इन तीनों की पूजा हिन्दू संस्कृति की बहुत बड़ी विशेषता है। नारी को शक्ति का प्रतीक मानकर यहाँ तक माना गया है कि बिना नारी के कोई यज्ञ सम्पूर्ण नहीं समझा जाता और जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता रमण करते हैं।

हिन्दू संस्कृति में गाय, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - चारों पदार्थों को देने वाली है। पुराण के अनुसार, विश्व में सर्वप्रथम वेद, अग्नि, गाय तथा ब्राह्मण की रचना हुई। यज्ञ अनुष्ठान तथा अन्य अनेक धार्मिक कार्य विधियों में काम आने वाली वस्तुयें हमें गो से मिलती हैं। गाय घी, दूध देने वाली है और विष्णु के पूर्ण अवतार श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की सर्वप्रिय, सहचरी भी है। धर्म ग्रन्थों जैसे अथर्ववेद, ब्रह्माण्ड पुराण, महाभारत, स्कन्दपुराण, परमपुराण एवं भविष्यपुराण में गाय के व्यापक स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि उसके रोम-रोम में देवता निवास करते हैं ।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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