निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रवर्तक निम्बार्क, निम्बादित्य या नित्यानन्द तेलुगु ब्राह्मण थे जो कि बेलारी जिले में निम्ब या में रहते थे। इनके पिता का नाम जगन्नाथ एवं माँ का नाम सरस्वती था । निम्बकाचार्य का दार्शनिक सिद्धान्त द्वैताद्वैतवाद अर्थात जीव एवं जगत ईश्वर के आश्रित तथा ईश्वर आश्रय है।' वैष्णव धर्म के मूल प्रवर्तक परम प्राचीन चार आचार्य माने जाते हैं। उन्हीं के नाम से ही हंसनारायण (सनक), श्री (लक्ष्मी), रुद्र और ब्रह्म चार सम्प्रदाय प्रचलित हुये। कालान्तर में वे ही श्रीनिम्बार्क, श्रीरामानुज, श्रीविष्णुस्वामी, श्रीमध्व उन सम्प्रदायों के प्रचारकों के रूप में अविभूत हुये। वर्तमान में इन्हीं प्रचार प्रचारकों के नाम पर वैष्णव सम्प्रदायों के प्रचारकों के रूप में अविभूत हुये। वर्तमान में इन्हीं प्रचारकों के नाम पर वैष्णव सम्प्रदायों का नामोल्लेख भी होता है।
विद्वानों की धारणा ये है कि धर्म की चर्तुमुखी प्रवृति के लिये ही चारों दिशाओं में चारों वेदों की भाँति एक ही वैष्णव धर्म की ये चारों शाखायें निर्धारित हुई और एक दिशा को एक आचार्य ने ग्रहण किया। इसके अनुसार पूर्व में ब्रह्म, दक्षिण में लक्ष्मी, पश्चिम में रुद्र और उत्तर में सनक सम्प्रदाय विशेष प्रसार हुआ । आजकल सभी दिशाओं और क्षेत्रों में सभी सम्प्रदायों के मठ, मन्दिर और स्थल स्थान पाये जाते हैं तथा वहाँ उनका प्रचार भी है जो उनकी पारस्परिक सहानुभूति का परिचायक है।
निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रभाव विस्तार
निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रभाव विस्तार को तीन भाग में बाँटा है -
पूर्व युग, जिसमें श्री निम्बार्काचार्य एवं इनके चार शिष्य श्री निवासाचार्य, औदुम्बराचार्य, गौरमुखाचार्य एवं लक्ष्मण भट्ट को रखा है। इन लोगों ने सम्प्रदाय का सूत्रपात, दार्शनिक, धार्मिक, आधार परक एवं उपासना सम्बन्धी पृष्ठ भूमि तैयार की।
वैष्णवों के अनुसार निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रवर्तक हंस भगवान माने जाते हैं। एकादश स्कन्ध में प्रसंगानुसार सनकादि ऋषियों ने ब्रह्माजी से प्रश्न पूछे। जब ब्रह्माजी उत्तर देने में असमर्थ हुये तब भगवान विष्णु ने हंस का रूप धारण कर उनके प्रश्नों का उत्तर दिया था। हंसया सनकादिकों ने जो उपदेश दिया था, उससे सम्प्रदाय का प्रदेय तत्व पूरा नहीं होता । उपदेश में परमतत्व का जो स्वरूप बतलाया गया उसकी प्राप्ति का उपाय है उपासना।
मन्त्रोपदेश प्राप्तक से उपासना विधि पूरी होती है और ऐसा होने से कोई किसी का कहलाता हैं सनकादिकों ने जब नारद को मन्त्रोपदेश दिया तो वे उनके शिष्य हो गये। इस सम्प्रदाय श्रृंखला में सूत्र के समान एक दूसरे को जोड़ने वाला गोपाल मंत्र है। इसमें अठारह अक्षर और पाँच पद हैं। अतः यह मंत्र अष्टादशाक्षर या पंचपदी दिशा भी कहलाता है। सनकादिकों से नारद को यह मंत्र मिला, उन्होंने निम्बार्क को इसका उपदेश किया, ऐसा निम्बार्क ने अपने ब्रह्मसूत्र व्याख्यान में स्वीकार किया। निम्बार्क स्वामी को ब्रज की महिमा और तत्व सम्बन्धी उपासना का परिज्ञान वैदूर्य पत्तन में ही हो गया था । अतः दक्षिण से वे ब्रज को तपस्थली बनाया एवं नारद जी द्वारा मन्त्रोपदेश ब्रज में ही प्राप्त किया।
मध्य युग में श्री निम्बार्क आचार्य जी की तीसरी पीढ़ी से लेकर अष्टादश (18) भट्टों तक समय रखा गया है जो श्री विश्वाचार्य से प्रारम्भ होकर केशव काश्मीरी भट्ट के पूर्व तक पहुँचता है।
उत्तर युग, यह युग दोनों युगों से भिन्न है। यह श्री मह जी के गुरू श्री केशव काश्मीरी भट्टाचार्य के आर्विभाव साथ ही आरम्भ होता है और उनके समय से इसका उत्तरोत्तर विकास एवं प्रसार होता गया । श्रीमद् श्री भट्ट जी से पूर्व के सभी आचार्य दक्षिणात्य पद श्रीमद् जी उत्तर के गौड़ ब्राह्मण कहे जाते हैं । इनके द्वारा सबसे पहले हिन्दी की प्रमुख काव्यभाषा का ब्रजभाषा में रचनाएं करने का सूत्रपात हुआ। श्रीमद् जी ने श्रीकृष्ण स्त्रोत संस्कृत में लिखा। इनकी प्रमुख रचना युगल शतक जो कि ब्रजभाषा में है।
निम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा लिखित ग्रंथों की सूची
निम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा लिखित ग्रंथों की सूची इस प्रकार हैं
1. पूर्व युग -
1. निम्बार्काचार्य कृत रचना -- वेदान्त परिजात सौरभ
- वेदान्त कामधेनु
- मन्त्र रहस्य षोडशी
- प्रपन्न कल्पवल्ली
- प्रपत्ति चिन्तामणि
- गीता वाक्यार्थ
- श्री कृष्ण
- पारिजात सौरभ भाष्य और ख्याति निर्णय
- कठोपनिषद् काव्य
- रहस्य प्रबन्ध
- औदुम्बर संहिता
- निम्बार्क स्त्रोत
- व्रतपञ्चक
- निम्बार्क सहस्त्रनाम, कवच एवं स्तव ।
2. मध्य युग -
- प्रपत्ति चिन्तामणि, सेतु नामक टीका, पञ्च धाटी स्तोत्र ।
- वेदान्त कामधेनु या दशश्लोकी पर वेदान्त रत्न मंजूषा (टीका)
- सिद्धान्त क्षीराणवि
- सिद्धान्त जान्हवी
- इन्होंने देवाचार्य कृत सिद्धान्त जान्हवी पर सेतु का नामक यथा नाम टीका की रचना की ।
3. उत्तर युग -
1. केशव काश्मीरी भट्टाचार्य कृत रचना- गीतातत्व प्रकाशिका
- कौस्तुभ प्रभा
- मुण्डकोपनिषद् भाष्य
- श्रीमद्भागवत (वेदस्तुति) टीका
- क्रमदीपिका
- सिद्धान्तकुसुभांजलि, सिद्धान्त रत्नांजलि, तत्वार्थ पंचक।
- निम्बार्क स्तोत्र की टीका, पंचसंस्कार निरूपण ।
निम्बार्कमत से वृन्दावन का सखी - सम्प्रदाय प्रादुर्भूत हुआ है। इसके प्रवर्तक स्वामी हरिदास थे जो 15वीं शती में विद्यमान थे। पहले वे निम्बार्की थे और बाद में उन्होंने राधाकृष्ण के युगलभाव की अपनी विशिष्ट उपासना कर ली। राधावल्लभीय सम्प्रदाय भी निम्बार्कमत से ही वृन्दावन में उत्पन्न हुआ। इसके प्रवर्तक स्वामी हितहरिवंश थे जिनका जन्म 1503 ई. में हुआ था । वे कृष्ण की अपेक्षा राधा को अधिक महत्व देते थे। इस प्रकार वृन्दावन में निम्बार्क ने जो रसोपासना चलाई वह विभिन्न रुपों चल रही है जिसका प्रभाव किशनगढ़ की चित्र शैली, काव्य, संगीत, कला और धर्म में देखने को मिलता है। ब्रज संस्कृति में जितना योगदान वल्लभ, चैतन्य व अन्य सम्प्रदाय ने किया है उतना ही योगदान निम्बार्क सम्प्रदाय का है ।